मूर्धन्य भविष्यवेत्ताओं के अभिमत एवं इक्कीसवीं सदी

April 1989

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जैसे-तैसे बीसवीं शताब्दी की समापन वेला समीप आती जा रही है, विश्वभर के चिन्तकों, मनीषियों का ध्यान वर्तमान की सुधारने, भूत को भुलाने एवं भविष्य को सँवारने की दिशा में उद्यत होता प्रतीत होता है। ऐसे सृजनात्मक प्रयासों को बल मिलता है। उन पूर्वानुमानों से-पूर्वाभास के कथनों से जो समय-समय पर भविष्य के संबंध में सामान्य एवं विशिष्ट जनों को हुए एवं समय आने पर सत्य निकले। ऐसे कुछ प्रसंगों की चर्चा विगत अंक में की जा चुकी है। “प्रोफेसी” शब्द की व्याख्या करते हुए यह भी बताया गया था कि ऐसे महामानव-मनीषी समय-समय पर धरती पर अवतरित होते है जिन्हें रहस्यमयी अन्तःस्फुरणा समय-समय पर होती रहती है एवं वे घटना घटने के बहुत पूर्व भविष्य का लेखा-जोखा लिख कर चले जाते है। इन्हें प्रोफेट्स या भविष्य-वेत्ता कहा जाता है इस्लामधर्म, ईसाईधर्म, हिन्दूधर्म प्रायः सभी धर्मों में ऐसे मनस्वी तत्त्ववेत्ता अवतरित हुए हैं, होते रहे है, विद्यमान है, एवं आगे भी जन्म लेते रहेंगे।

प्रस्तुत पंक्तियों में मार्च 1989 अंक में प्रकाशित “दिव्य पर आधारित भविष्य कथन” लेख के प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए प्रथम कोटि के दिव्य दृष्टि सम्पन्न भविष्य के गर्भ में झाँकने में समर्थ मनीषियों के कथनों की विवेचना की जा रही है।

इन सभी को समय-समय पर दैवी प्रेरणावश अन्तःस्फुरणा होती रही है। शेष तीन श्रेणियों ज्योतिर्विज्ञानियों, विभिन्न धर्म ग्रन्थों तथा भविष्य विज्ञानियों (फ्यूचरालॉजी विधा के आधार पर आंकड़ों के माध्यम से विश्लेषण करने वाले वैज्ञानिकों) का प्रसंग अगले लेखों व आगामी अंकों में किया जाता रहेगा।

प्रायः सभी दिव्यदृष्टि-सम्पन्न मनीषियों का मत है कि सन् 2000 के आगमन के पूर्व की विनाशकारी प्रलयंकर गतिविधियों, हलचलों को देखकर जन साधारण को निराश नहीं होना चाहिए। दिया बुझाने से पहले लौ तीव्र प्रकाश के साथ टिमटिमाती है। सूर्य उदय होने के पूर्व घना अंधकार छा जाता है, किन्तु तुरंत बाद सप्त रश्मियों का प्रकाशपुँज लेकर सूर्य भगवान प्रकट होते है व अरुणोदय की लालिमा उसका संकेत लेकर आती है।

मानवी स्वभाव का रुझान प्रायः निषेधात्मक ही होता है। तार्किक बुद्धि भी चिन्तन पर हावी रहती है। व कहती है कि जो कुछ भी सामने है, उसे देखते हुए तो नहीं लगता कि इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य का संदेश लेकर आ रही है। हर कोई दूसरे पर आक्षेप लगाता देखा जाता है। आत्मानुशासन एवं आत्म सुधार की ललक जागती नहीं। यह इसलिए की गीता का “यदा यदा हि धर्मस्य” वाला श्लोक तो उसे याद रहता है व कहता भी है कि अवतार आने वाला है, तब परिवर्तन आएगा। आखिर यह अवतार की प्रतीक्षा क्यों? महर्षि अरविन्द ने ठीक लिखा है कि “अवतार साधारण मनुष्यों में चेतना के विकास की परिणति का नाम है” उनका कहना है कि “देवी तंत्र अनुशासन के नियमों से आबद्ध है एवं जब उच्छृंखलता अपनी सीमा लाँघ जाती है तो अतिचेतन सत्ता का ही मानवी सत्ता में आरोहण होता है व ऐसी सत्ता को यदि अवतार कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं है”।

पौराणिक इतिहास की गवेषणा करें तो पाते है कि राम, कृष्ण, बुद्ध तक कुल नौ अवतार जन्म ले चुके व अपने-अपने समय की क्रान्ति कर चले गये। अब महाकाल की युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया व्यक्ति के रूप में नहीं, विचार शक्ति के रूप में अवतरित होगी व इसे निष्कलंक अवतार कहा जाएगा। यह व्यक्ति के विचारों, निर्धारणों एवं क्रिया-कृत्यों में आमूलचूल परिवर्तन के रूप में जन्म ले चुकी है एवं विगत कई शताब्दियों से गतिशील है। इस विचार-क्रान्ति का उदय पूर्वार्ध के रूप में बुद्धावतार के रूप में माना जा सकता है जिनने “बुद्धि” की शरण में जाने (बुद्धं शरणं गच्छामि) की प्रेरणा दी व मूढ़मान्यताओं को निरस्त किया। आद्य शंकराचार्य, कबीर, समर्थ रामदास, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण अरविन्द आदि ने उसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। विज्ञान के क्षेत्र में अपने ढंग से। सत्रहवीं शताब्दी का-न्यूटन के समय को विज्ञान कहाँ से कहाँ आ पहुँचा, देख कर अचम्भा होता है। मार्टिन लूथर नामक व्यक्ति बोपवाद को चुनौती देकर समाज सुधार की ऐसी व्यापक लहर पूरे विश्व में फैला सकता है, जानकर अचरज होता है। गाँधी जैसा मनस्वी व्यक्ति छोटे से देश हिन्दुस्तान में बैठकर मात्र “अहिंसा” असहयोग” के अपने मंत्र से साम्राज्य शक्ति को हिला सकता है यह हम सबने पिछले कुछ वर्षों में उपनिवेशवाद के अन्त के रूप में देखा है। रूसो की प्रजातंत्रवादी क्रान्ति तथा कार्ल मार्क्स की साम्यवाद की क्रान्ति विगत दो शताब्दियों की ही तो बात है।

सोचने की बात है कि वह सब जो कभी असंभव लगता था, वह संभव कैसे हो गया? यही विचार-क्रान्ति है, जो जनमानस को मथ डालती है, एवं परोक्ष जगत से एक ऐसी आँधी चलती है जो अवांछित को उखाड़-पछाड़ कर क्या से क्या कर डालती है। प्रस्तुत शताब्दी को ही लें तो विवेकानन्द, योगीराज अरविंद व महात्मा गाँधी ऐसे मनीषियों में माने जा सकते हैं जिन्होंने इक्कीसवीं सदी को उज्ज्वल बनाने की दिशा में सूक्ष्म जगत में वातावरण बनाया तथा उस सुदृढ़ नींव की स्थापना की, जिस पर आने वाले युग की आधार शिला रखी जाएगी, भवन विनिर्मित होगा व सतयुगी संभावनाएँ साकार होंगी।

स्वामी विवेकानन्द ने अपने मद्रास प्रवास में दिये गए भाषण में ओजपूर्ण शब्दों में कहा था कि भारत का भविष्य निश्चित रूप से उज्ज्वल है। “ भारत का भविष्य” शीर्षक से प्रकाशित “भारत में विवेकानन्द” (श्री राम कृष्ण आश्रम नागपुर) पुस्तक में स्वामी जी कहते है कि “इस महान राष्ट्र की अवनति व पतन की कथा-गाथा से भरे भूतकालीन इतिहास में ही भविष्य के भारत रूपी वृक्ष का अंकुर छिपा पड़ा है। उस शक्तिभर ऊर्ध्व मूल में वृक्ष का निकलना प्रारंभ हो चुका है। आने वाले वर्षों में शास्त्र ग्रन्थों में आध्यात्मिकता के जो रत्न विद्यमान है वे मठों में छिपे पड़े हैं, बाहर निकलेंगे! जन-जन तक इस व्यावहारिक अध्यात्म को पहुँचाया जाएगा। चाहे व्यक्ति संस्कृत जाने या न जाने पर ऐसी जन सुलभ भाषा में बोलचाल की भाषा में उन विचारों को जन-जन तक पहुँचाना होगा जो युगान्तरकारी होंगे। संस्कृत का भी भली-भाँति प्रचार-प्रसार होगा एवं वह विश्व भाषा बनेगी। ज्ञान नहीं, संस्कार ही शिक्षा के मूल होंगे एवं व्यापक स्तर पर संस्कारों की शिक्षा हेतु केन्द्र खुलेंगे।

“भविष्य में जो सतयुग आ रहा है, उस में ब्राह्मणेतर सभी जातियाँ फिर ब्राह्मण रूप में परिणत होंगी। ब्राह्मणत्व का अर्थ होगा मनुष्यत्व का चरम आदर्श। आने वाला युग एकता का-समता का होगा। न कोई छोटा होगा, न बड़ा। उसे आध्यात्मिक साम्यवाद भी कहा जा सकता है।”

“हर बड़े स्थान पर हमें मन्दिरों की आवश्यकता होगी। ये मन्दिर ही शिक्षण-संस्था की भूमिका निभायेंगे। हर मन्दिर चाहे वह अति पुरातन हो या नवीनतम धार्मिक प्रचारक तैयार करेगा जो लौकिक ज्ञान का भी शिक्षण लेंगे। सारे भारत में नव निर्माण के ऐसे जाग्रत केन्द्र बीसवीं सदी के अन्त तक बन कर तैयार हो जायेंगे। युवकों से मुझे बड़ी आशा है। वे ही इस योजना को कार्य रूप में परिणत करेंगे। जो फूल मसला नहीं गया है, ताजा है और सूँघा नहीं गया है वही भगवान के चरणों में चढ़ाया जाता है और उसे वे ग्रहण करते है। युवकों से मेरी अपेक्षा है कि वे वकील-बैरिस्टर बनने की अपेक्षा संस्कृति के उद्धारक-रक्षक बनेंगे और नया जमाना लाकर दिखायेंगे। जन साधारण में से ही महापुरुष पैदा होते है और वे ही क्रान्ति कर दिखाते है और यह अगले दिनों साकार होते आप स्वयं देखेंगे”।

वह विचार उस मनीषी के है जिसने भविष्य के गर्भ में झाँक कर परतंत्र भारत की अपार जन मेदिनी में छिपी शक्ति-सामर्थ्य को पहचान लिया था व तदनुसार ही सब कुछ आज से नब्बे वर्ष पूर्व कह दिया।

इजराइल के एक धर्म-निष्ठ यहूदी परिवार में जन्मे प्रोफेसर हरार को भी दिव्य द्रष्टा की मान्यता प्राप्त है। वे योरोप, उत्तरी अफ्रीका में वैसी ही ख्याति प्राप्त कर चुके है जो जीन डिक्सन एवं कीरो की तथा आचार्य वराहमिहिंर को प्राप्त है। अरब के शाह मोहम्मद के प्रधान माँगलिक सलाहकार के रूप में वे उन्हें समय-समय पर उन पर, महाद्वीप पर आने वाली आपदाओं की सूचना देते निवारण का मार्ग सुझाते रहते थे। वे प्रायः कहा करते थे कि “ प्रातः बेला में मुझे कई बार स्वप्न में यह देखने को मिला है कि भारतवर्ष एक विराट शक्ति के रूप में उभर रहा है। एक संस्था जो धर्म तंत्र का माध्यम बनाकर सत्प्रवृत्ति संवर्धन का सरंजाम जुटाएगी, अपने औदार्यभाव व सेवाभावी कार्य-कर्त्ताओं के कारण विभिन्न संस्थाओं से समन्वय स्थापित कर विचार क्रान्ति का विश्वव्यापी वातावरण बनाएगी। राजतंत्र की बागडोर भी चरित्रवान धर्मनिष्ठ व्यक्तियों के हाथ आ जाएगी व सन् 2000 तक देखा जाने लगेगा। सारी छोटी शक्तियाँ मिल कर एक में समा रही है, न कोई भाषा का बंधन है, न क्षेत्रीय विभाजन का। साम्प्रदायिकता अपनी चरम सीमा पर पहुँच कर नष्ट हो जायगी। सब एक होकर मिल जुल कर रहेंगे”।

यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्रो0 हरार की भविष्यवाणियाँ कभी असत्य नहीं निकलीं जो कुछ भी उनने कहा सच हो कर रहा। हमें आने वाले बारह वर्षों पर भी इसी दृष्टि से निगाह डालनी चाहिए।

अपनी “क्रिस्टलबाँल” के माध्यम से प्रोंफेसी करने वाली जीन डिक्सन भी बहुचर्चित महिला रही है। बचपन से ही उनमें यह क्षमता विद्यमान थी। ख्याति उन्हें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान की गई। भविष्यवाणी तथा जान एफ॰ कैनेडी जो 1961-63 की अविध में अमरीका के राष्ट्रपति थे की मृत्यु के संबंध में बहुत पूर्व व्यक्त किये गए भविष्य कथनों से मिली। सन् 60 में कैनेडी के जीतते ही उनने कह दिया था कि नवम्बर 1963 के द्वितीय सप्ताह में राष्ट्रपति को दक्षिण (टेक्सास) की याख नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उनकी हत्या किये जाने का डर है। गाँधी जी की हत्या, नेहरू के निधन, रूस में खुश्चेव के पतन की भविष्यवाणियाँ भी अपनी “क्रिस्टल बॉल” में देखकर कर चुकी थी।

अपनी पुस्तक “माईलाइफ एण्ड प्रोफेसीज” के अष्टम अध्याय में वे लिखती है कि इक्कीसवीं सदी नारी प्रधान होगी। कई राष्ट्रों में महिला नेतृत्व संभालेगी। शान्ति स्थापना की पहल पूर्व से ही होगी व इस में भारत की विशेष भूमिका होगी। राष्ट्रसंघ का मुख्यालय भारत में बनेगा व वैचारिक क्रांति के माध्यम से अध्यात्म-परक मूल्यों पर आधारित समतावादी शासन पूरे विश्व में स्थापित होगा”। वे तृतीय विश्व युद्ध की भयंकरता का वर्णन करते हुए उसके संभव व सफल होने की बात को नकारती है व लिखती है कि ठीक समय पर विधेयात्मक शक्तियों इस महाप्रलय से संसार को बचा लेंगी।

जीन डिक्सन की ही कुछ और अन्तःस्फुरणा स उपजी भविष्यवाणियाँ व अन्यान्य भविष्यवेत्ताओं के अभिमत इन्हीं पृष्ठों पर अगले अंक में पढ़ें।


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