घ्राणेन्द्रियाँ बदलेंगी अब मानव की वृत्तियों को!

April 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

घ्राणेन्द्रियों को अभी तक गौण माना जाता रहा है और कहा जाता रहा है कि गन्ध सामर्थ्य के होने न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता किन्तु अब मस्तिष्कीय विकास पर शोध करने वाले जैव रसायनविदों एवं व्यवहार विज्ञानियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि गन्धशक्ति मानवी मस्तिष्क के व्यवहार एवं चिन्तन सम्बन्धी दोनों ही पक्षों के विकास क लिए उत्तरदायी है। यही कारण है कि प्राचीनकाल के अध्यात्मवेत्ताओं ने स्वास्थ्य संवर्धन एवं मानसिक-आत्मिक विकास में गंध साधना को एक अनिवार्य अंग के रूप में सम्मिलित किया। पूजा-उपासना-जैसे धर्मानुष्ठानों से लेकर वातावरण परिशोधन के विविध उपक्रमों में सुगंधित द्रव्यों को रखने या जलाने का अनिवार्य प्रचलन रखा। पूजा में सुवासित पुष्प इसी की पूर्ति करते है।

रंगों की तरह मानवी मस्तिष्क गंधों से घनिष्टता के साथ जुड़ा हुआ है। अनुकूल गंध न केवल घ्राणेन्द्रियों को सशक्त बनाती है वरन् मस्तिष्कीय चेतना के विकास-परिष्कार में भी बढ़ा चढ़ा योगदान प्रस्तुत करती है। जबकि दुर्गंध, प्रदूषित वायु या उत्तेजक गंध घ्राणेन्द्रियों में विकृति उत्पन्न करती है। परिणाम स्वरूप मनुष्य में उत्तेजनापरक मनोविकार एवं हिंसक वृत्ति पनपती है।

इस संदर्भ में ‘नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ मेण्टल हैल्थ’ अमेरिका एवं नीमहन्स बैंगलौर के मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने गहरी खोज-बीन की है और निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य के मस्तिष्क की सबसे भीतरी परत को-जिसे रेप्टीलियन ब्रेन या एनीमल ब्रेन कहकर नकारा जाता रहा है, गन्ध शक्ति से जुड़ा हुआ है। इसमें आलफैक्टरी स्ट्राएटम, कार्पस स्ट्राएटम तथा ग्लोबरनाकु जैसी महत्वपूर्ण मस्तिष्कीय संरचनाएँ जुड़ी हुई है। इस पूरे समुच्चय को उन्होंने आर. कांप्लेक्स नाम दिया है और मनोविकारों के लिए इसे ही उत्तरदायी बताया है। उनके अनुसार व्यवहार विकास सम्बन्धी अनेकानेक पक्षों के लिए यह भाग अत्यधिक महत्वपूर्ण है। किन्तु घ्राणशक्ति को महत्व न मिलने के कारण यह उपेक्षित पड़ा रहता है और धीरे-धीरे विकृतियों मनोविकारों का प्रमुख उत्पादक केन्द्र बन जाता है। आज की बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति, तनाव, बेचैनी, आवेश आतुरता एवं मास हिस्टीरिया जैसे मनोविकारों के मूल कारणों में यह भी एक प्रमुख कारण है। अतः गन्ध के माध्यम से इन केन्द्रों पर शामक प्रभाव डाल कर मनुष्य की वृत्ति को, यहाँ तक कि व्यक्तित्व को आमूल-चूल बदला जाना संभव है। कारण मस्तिष्क को तीनों भाग-रेप्टीलियन ब्रेन, लिम्बिक ब्रेन और निओकार्टेक्स क्रमशः एक के ऊपर दूसरी परत के रूप में चढ़े और सुसंबद्ध होते हैं। जिस प्रकार एक की विकृति दूसरे को भी अछूता नहीं छोड़ती उसी प्रकार एक का विकास-परिष्कार अपने सहयोगी केन्द्रों को भी इसके लिए उत्तेजित करता है।

डा मैक्लीन ने आर. कांप्लेक्स पर अधिक जोर देते हुए कहा है कि मनुष्य के व्यवहार की कुँजी इस अन्तःमस्तिष्क में छिपी पड़ी है। अचेतन मस्तिष्क की इस आदिम परत-रेप्टीलियन ब्रेन पर गंध शक्ति का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। गन्ध सम्बन्धी संवेदनशील ज्ञानतन्तु नासिका अवस्थित होते हैं। यहाँ से गन्ध सीधे स्नायु-तंतुओं के माध्यम से अग्र मस्तिष्क एवं फिर वहाँ स्थित आलफक्टरी कार्टेक्स में जाती है। नाक को जान बूझ कर विधाता ने आँखों और कानों के मध्य बनाया ही इसलिए है कि अचेतन सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारियाँ व उत्तेजना सतत् अंतःमस्तिष्क को मिलती रहे। यही अचेतन, व सचेतन को प्रभावित उत्तेजित करता है। इस कारण गन्ध का घ्राणेन्द्रिय का महत्व मानव के व्यवहार विकास में और अधिक बढ़ जाता है। अतः नासिका को कम महत्व का नहीं माना जाता चाहिए।

पशु-पक्षियों में तो आत्मरक्षा का-सम्प्रेषण का एक मात्र माध्यम गन्ध होती है। नासिका का सर्वाधिक उपयोग होने से उनका रेप्टीलियन ब्रेन भी अधिक विकसित एवं सक्रिय होता है। इस गन्ध शक्ति के सहारे ही समस्त जीवधारी अपनी जीवन यात्रा चलाते हैं। हिंसक पशु गन्ध के माध्यम से ही जंगल में अपने शिकार को खोज निकालते हैं, जबकि छोटे जन्तु आत्म-रक्षा हेतु अपनी घ्राणशक्ति का ही सहारा लेते हैं। खतरा देखते ही वे गन्ध के सहारे तुरंत चौकन्ने हो भाग निकलते हैं। जीव−जंतु बोल पाते नहीं, लिख सकते नहीं, किन्तु जंगल में क्षेत्र विभाजन, अधिकार-भाव, प्यार-दुलार जैसी वृत्तियों का आदान-प्रदान इसी घ्राणशक्ति के सहारे बन पड़ता है। इस केन्द्र को उत्तेजित करके या नष्ट करके पशुओं में हिंसक वृत्ति या आत्मरक्षा वृत्ति को घटाने-बढ़ाने में वैज्ञानिकों ने आशातीत सफलता पाई है। मधुमक्खी, तितली, चींटियां, एवं अन्यान्य कृमि कीटक इस गन्ध की भाषा का ही आश्रम लेकर अपना काम चलाते हैं।

वैज्ञानिकों ने गन्ध की भाषा को मनुष्य की सबसे पुरानी एवं प्रभावशाली भाषा माना है। उनका मत है कि गन्ध की प्रतिक्रिया फेरोमोन नामक रसायन समूह की शरीर के हारमोन से प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होती है और इसी कारण गंध अपने विविध रूपों में पहचानी जाती है। जिनमें से कुछ हैं-कैम्फरलाइक, विनगरी, ऐथेरियल, प्यूट्रीड, पिपरमिन्ट्रय, मस्की और फ्लोरल गंध आदि सामान्यतया व्यक्ति न्यूनतम 4000 प्रकार की तथा अधिकतम 10,000 किस्म की गन्धों को पहचानने की क्षमता रखते हैं। मनुष्य लगातार लाखों रासायनिक संदेश गंध के माध्यम से पकड़ता-छोड़ता रहता है। जिन्हें सिर्फ हमारी नाम जानती है और जिनका विश्लेषण करने की क्षमता हमारे मस्तिष्क मध्य के गन्ध सम्बन्धी केन्द्रों में है।

मानव जीवन में गंध को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इससे न केवल व्यक्तित्व विकास में अपितु रोगों के निदान उपचार में भी सहायता मिली है। जार्जटाउन मेडिकल सेन्टर, यू.एस.ए. के प्रमुख चिकित्सा शास्त्री डा शबर्ट हैनकिन ने मानवी घ्राणशक्ति पर गहन अनुसंधान किया है। उनके अनुसार गन्ध द्वारा बेचैनी, तनाव, जैसे मनोविकारों को सरलता से दूर किया जा सकता है। उपयुक्त गन्धों का प्रयोग करके श्रमिकों की कार्यक्षमता बढ़ाई जा सकती है। अपराधियों की अपराधवृत्ति-हिंसक प्रवृत्ति को काफी हद तक कम किया जा सकता है। घ्राणशक्ति के माध्यम से आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान में शारीरिक रोगों-मानसिक विकृतियों के-निवारण में गंध चिकित्सा को अत्याधिक प्रभावशाली माना जाने लगा है। फ्राँस के पाश्च्यौर संस्थान के चिकित्सा विशेषज्ञों ने लम्बी अवधि तक किये गये विभिन्न प्रयोग परीक्षणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि विविध प्रकार को .... वनस्पतियों-वनौषधियों से तथा पुष्पों और फलों से निकाले गये गंध युक्त तेलों में न केवल रोग कारक जीवाणुओं को विनष्ट करने की क्षमता है वरन् इसके प्रयोग से मानसिक परिष्कार का भी प्रयोजन पूरा होता है। शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक परीक्षण में पाया गया है कि कमे लिया-लैवेन्डर का सुगंधित तेल बारह घंटे के अंदर क्षय रोग के विषाणुओं को नष्ट करने जैसे रोगों की चिकित्सा में सुगंधित कमल पुष्प का प्रयोग किया जाता है। इसी तरह ज्योतिष्मती (मालकंगनी) के बीजों का सुगंधित तेल शारीरिक-मानसिक क्षेत्र की विभिन्न बिमारियों का शमन करता है।

गन्ध विज्ञान की उपेक्षा न हो इसलिए विदेशों में बड़े-बड़े केन्द्र इस माध्यम से चिकित्सा के प्रतिपादन हेतु खोले गये है। सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में लंदन में ऐसे सार्वजनिक सुगंधित स्नानगृहों का निर्माण कराया गया था जिन में स्नान करने के उपरान्त स्वास्थ्य संवर्धन का लाभ स्वतः ही उपलब्ध होता रहता था। चीन के एक प्रमुख नगर हौलबोर्न का “हमाम” नामक स्नानगृह सुगंध चिकित्सा के लिए विख्यात है। विभिन्न प्रकार की सुवासित एवं मनमोहक गंध वाली जड़ी बूटियों के सम्मिश्रण से युकत यह स्नानगृह रोगियों को आरोग्य प्रदान करने के लिए सदैव खुला रहता है। स्वस्थ लोगों को भी इसमें नहाने से विशिष्ट प्रकार के आनन्द की अनुभूति होती है।

अपने देश में मानवी मन मस्तिष्क को विधेयात्मक दिशा-धारा प्रदान करने में सुगंधियों का प्रयोग प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। हर धर्म-मत के कर्मकाण्डों में प्रायः इसका प्रयोग जुड़ा हुआ है। धूप, अगरबत्ती, हवन के माध्यम से सुगन्धमय वातावरण बनाने तथा उपस्थिति व्यक्तियों की चिकित्सा का अपना पूरा विधान है। सुगंधित पदार्थ अग्नि में जलकर वायुभूत बनते और समूचे वायुमंडल में फैलकर उसे सुवासित बनाते हैं। जिससे प्रदूषित वायु का परिशोधन तो होता ही है, साथ ही वायुभूत बने गंधों के सूक्ष्म परमाणु मनुष्य की नासिका में प्रवेश होते और मस्तिष्क की भीतरी परत तक पहुँच कर उस सकारात्मक दिशा में मोड़ने मरोड़ने का काम करते है। वेद, पुराण, कुरान, बाइबिल, जेन्दावस्ता आदि धर्मग्रन्थों में वर्णित विभिन्न प्रकरणों से इस मत की पुष्टि होती है कि सुगन्धियों का प्रयोग आदिकाल से होता हो रहा है।

प्रकृति में सुगंधियां तेल और रेजिन के रूप में पौधों में छिपी पाई जाती हैं। असली तेल ही वस्तुतः प्रयोग में लाये जाने चाहिए, संश्लेषित नहीं, क्योंकि उन्हीं का वाँछित प्रभाव मनःमस्तिष्क पर देखा जाता है। अभी तक पंजीकृत सुगन्धियों की संख्या विश्वभर में दो लाख से भी ऊपर है।

वैज्ञानिकों ने गन्ध शक्ति के द्वारा क्रुद्ध भीड़ को नियंत्रित करने के अतिरिक्त वाँछित सुगंध के प्रयोग से स्मरण शक्ति बढ़ाने, पढ़ाई में अधिक मन लगे, ऐसे प्रयोग भी सफलता पूर्वक किये हैं। उनका कहना है कि मानव की वृत्तियों को बदलने और व्यक्तित्व में आमूल चूल परिवर्तन लाने जैसे क्रांतिकारी प्रयोग गन्ध के माध्यम से संभव हैं। इन दिनों हिंसक वृत्ति बढ़ती जा रही है। बढ़ते औद्योगिक प्रदूषण व आबादी की घिच-पिच से मनुष्य चिड़चिड़े स्वभाव का बनता और तनाव-ग्रस्त होता चला जा रहा है। उसके स्वभाव को बदलने हेतु गंध शक्ति का प्रयोग बड़ी सफलता पूर्वक किया जा सकता है।

कामोद्दीपन जैसी पशु प्रवृत्तियों को उभारने के प्रयोग के स्थान पर यदि गन्ध शक्ति के विधेयात्मक स्वरूप को, जो सदा-सदा से भारतीय अध्यात्मविद् अपनी अग्निहोत्र एवं धूप आदि से युक्त उपासनाचर्या में प्रयुक्त करते आये हैं, उभारा और प्रतिपादित किया जा सके तो उपलब्ध अनेकानेक सुगन्धियों से मानव जाति को अभूतपूर्व लाभ दिया जा सकता है। मूल प्रवृत्तियों के आदिम रूप को देवत्व परक मोड़ मिलने पर घ्राणेन्द्रियों की उपलब्धि की सार्थकता भी सिद्ध होगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles