जापान के सेनापति नावुनाना को एक भयंकर लड़ाई लड़नी पड़ रही थी। शत्रु का मोर्चा प्रबल था। जापानी सेनापति के पास थोड़े सैनिक रह गये थे। उनका भी मनोबल टूट रहा था। सेनापति को आधे बचे सैनिकों में नया साहस और विश्वास भरने की आवश्यकता अनुभव हो रही थी। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए उसने एक चतुराई बरती। एह कुछ प्रमुख सैनिकों समेत देवता के मंदिर में गया और जीतने के लिए सिक्के उछालने का उपाय निकाला। चित्त गिरे तो जीत और पट्ट गिरे तो हार।
चतुर सेनापति ने ऐसे सिक्के बनवा रखे थे जो दोनों ही ओर से चित्त थे। वे उछाले गये तीनों ही बार वे चित्त गिरे उपस्थित सैनिकों का मनोबल चौगुना हो गया। जब देवता हमारे साथ है और उसकी शक्ति हमारी विजय में साथ देगी तो जीत होकर ही रहेगी। समाचार पूरी टुकड़ी में पहुँचा दिया गया। जो सैनिक बचे खुचे थे, वे इतने उत्साह और कौशल के साथ लड़े कि अन्ततः विजय उन्हीं की हुई।
मनोबल और विश्वास की शक्ति का सभी ने अनुभव किया।
ज्ञानयज्ञ तो उच्चस्तरीय ब्रह्मयज्ञ है, जिसके साथ प्राणिमात्र का कल्याण जुड़ा हुआ है। साप्ताहिक साधना का दिन ऐसे ही श्रेष्ठ सत्कर्मों में लगाना चाहिए।
अर्धवार्षिक साधनाएँ आश्विन और चैत्र के नवरात्रियों में नौ-नौ दिन के लिए की जाती हैं। इन दिनों गायत्री मंत्र के 24 हजार जप की परम्परा पुरातन काल से चली आती है। उसका निर्वाह सभी आस्थावान साधकों को करना चाहिए। बिना जाति या लिंग भेद के इसे कोई भी अध्यात्म प्रेमी निःसंकोच कर सकता है। कुछ कमी रह जाने पर भी इस सात्विक साधना में किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका नहीं करना चाहिए। नौ दिनों में प्रतिदिन 27 माला गायत्री मंत्र के जप कर लेने से 24 हजार की निर्धारित जप संख्या पूरी हो जाती है। अन्तिम दिन कम से कम .... आहुतियों का अग्निहोत्र करना चाहिए। अन्तिम .... अवकाश न हो तो हवन किसी अगले दिन किया जा सकता है।
अनुष्ठानों में कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है-(1) उपवास अधिक न बन पड़े तो एक समय का भोजन या अस्वाद व्रत का निर्वाह तो करना ही चाहिए। (2) ब्रह्मचर्य पालन-यौनाचार एवं अश्लील चिन्तन का नियमन। (3) अपनी शारीरिक सेवाएँ यथा संभव स्वयं की करना। (4) हिंसायुक्त चमड़े के उपकरणों का प्रयोग न करना। पलंग की अपेक्षा तख्त या जमीन पर सोना। इन सब नियमों का उद्देश्य यह है कि नौदिन तक विलासी या अस्त-व्यस्त निरंकुश जीवन न जिया जाय। उसमें तप, संयम की विधि-व्यवस्था का अधिकाधिक समावेश किया जाय। नौ दिन का अभ्यास अगले छः महीने तक अपने ऊपर छाया रहे और ध्यान बना रहे कि संयमशील जीवन ही आत्मकल्याण तथा लोक-मंगल की दुहरी भूमिका सम्पन्न करता है। इसलिए जीवनचर्या को इसी दिशाधारा के साथ जोड़ना चाहिए। अनुष्ठान के अंत में पूर्णाहुति के रूप में प्राचीन परम्परा ब्रह्मभोज की है। उपयुक्त ब्राह्मण न प्राचीन परम्परा ब्रह्मभोज की है। उपयुक्त ब्राह्मण न मिल सकने के कारण इन दिनों वह कृत्य नौ कन्याओं को भोजन करा देने के रूप में भी पूरा किया जाता है। कन्याएँ किसी भी वर्ण की हो सकती है इस प्रावधान में नारी को देवी स्वरूप में मान्यता देने की भावना सन्निहित है। कन्याएँ तो ब्रह्मचारिणी होने के कारण और भी अधिक पवित्र मानी जाती है।
ब्रह्मभोज का दूसरा प्रचलित रूप प्रसाद वितरण भी है। यों प्रसाद में कोई मीठी वस्तु थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बाँटने का भी नियम है। इसमें अधिक लोगों तक अपने अनुदान का लाभ पहुँचना उद्देश्य है, भले ही वह थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ही क्यों न हो? एक का पेटभर देने की अपेक्षा सौ का मुँह मीठा कर देना इसलिए अच्छा माना जाता है कि इसमें देने वाले तथा लेने वालों को उस धर्म प्रयोजन के विस्तार की महिमा समझने और व्यापक बनाने की आवश्यकता का अनुभव होता है।
यह कार्य मिष्ठान्न वितरण की अपेक्षा सस्ता युग साहित्य वितरण करने के रूप में अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है। “युग निर्माण सत्संकल्प” एवं ऐसी ही अन्य छोटी पुस्तिकाएँ भी युग निर्माण योजना द्वारा प्रकाशित हुई है उन्हें बाँटा या लागत से कम मूल्य में बेचने का प्रयोग किया जा सकता है। नवरात्रि अनुष्ठानों में यह ब्रह्मभोज के सत्साहित्य के रूप में प्रसाद वितरण की प्रक्रिया भी जूड़ी रहनी चाहिए।
स्थानीय साधक मिल-जुलकर एक स्थान पर नौ दिन की साधना करें। अन्त में सामूहिक यज्ञ करें सहभोज का प्रबन्ध रखें, साथ ही कथा-प्रवचन, कीर्तन, उद्बोधन का क्रम बनाये रह सकें तो उस सामूहिक आयोजन से सोने में सुगंध जैसा उपक्रम बन पड़ता है। यह प्रकारान्तर से समष्टिगत सूक्ष्म जगत के उपचार की प्रक्रिया है। नवरात्रि के दिनों तो इनका विशेष महत्व ही है।