गतिशील रहें - आगे बढ़ें

April 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जहाँ स्तब्धता और नीरसता का साम्राज्य है, वहीं स्थिरता रहती है। यह पसन्द भी पहाड़ों और चट्टानों की है। वे जहाँ के तहाँ जकड़े रहते हैं। न आगे बढ़ते हैं, न ऊँचे उठते हैं, न अन्य किसी प्रकार की गतिशीलता अपनाते हैं। वास्तविक जड़ उन्हें ही कहना चाहिए जो एक स्थिति में प्रसन्न होते रहें। किसी प्रकार निर्वाह होता रहे और समय कटता रहे, इतने में ही उनका संतोष सीमाबद्ध होकर रह जाता है। किन्तु जिनमें अस्तित्व रक्षा और गतिशीलता की उमंग है वे हलचलें अपनाये बिना नहीं रहते।

समुद्र में ज्वार - भाटे आते रहते हैं और पवन में झकोरे - अन्धड़, चक्रवात। नदियाँ उद्गम में ही पालथी मारकर नहीं बैठती। वे दौड़ लगाती हैं और समुद्र तक जा पहुँचती हैं। स्वच्छन्द पशु पक्षी धमाचौकड़ी मचाते और उछलते कूदते, चहचहाते हैं और मौज–मस्ती का परिचय देते हैं। बालक अकारण ही इधर से उधर भागते दौड़ते रहते हैं। कृमि - कीट को एक जगह बैठे चैन नहीं पड़ता। मेघ मालायें अपने यौवनकाल में लम्बी यात्रा पर निकलती हैं और जहाँ जी आता है वहीं घनघोर घटाटोप बरसाती हैं।

पक्षी समूहों को भी प्रवासी जीवन बिताने में मजा आता है। साइबेरिया के पक्षी ऋतु प्रभाव को ध्यान में रखते हुए भारत तक दौड़ आते हैं और जब रुचिकर परिवर्तन होता है तो वहाँ से छोड़छाड़कर अपने पुराने परिचित क्षेत्र में जा पहुँचते हैं। इस कार्य में वे पूरे आवेश के साथ जुटते हैं। हजारों मील लम्बे समुद्रों के ऊपर से उड़ानें भरते हुए बिना विश्राम किए अभीष्ट लक्ष्य तक जा पहुँचते हैं।

जीवन टीले या खड्डे की तरह नहीं है। वह सुदूर क्षेत्रों में बिखरा पड़ा है। खाद्य प्राप्त करने के लिए सभी जीव−जंतुओं को न जाने कहाँ कहाँ भटकना पड़ता है। पानी और छाया की तलाश में भी कम दौड़धूप नहीं करनी पड़ती। शत्रुओं के आक्रमणों से सतर्क रहने एवं बचने के लिए भी सुरक्षित स्थान ढूँढ़ना या बनाना पड़ता है। सर्दी गर्मी की अति होने पर भी अनुरूप वातावरण ढूँढ़ने के लिए एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र की उड़ान भरनी है। यदि ऐसा न होता तो सरोवरों, नदियों और खेतों के लिए यह अतीव कठिन था कि वे अपने स्थान से उठ उठ कर बादलों तक पहुँचते और पानी की याचना करते। हिमाच्छादित शिखर ही गलते हैं और नदी बनकर समुद्र तक पहुँचते हैं। इस प्रकार का लाभ समस्त जड़ चेतन को मिलता है। गति ही व्यवस्थिति रीति से अनुगमन करते हुए प्रगति में परिवर्तित होती है। समृद्धि इसी प्रकार बढ़ती है।

जो जहाँ बैठा है वह वहीं अड़ा न रहे। यदि दुराग्रह अपना रखे हैं तो वापस लौटे। यदि जड़ता ने जकड़ रखा है तो ही यह कहा जाना चाहिए कि स्थिरता ही हमें प्रिय है। ऐसी दशा में अपने को भी यथास्थान रहना पड़ेगा और दूसरों की कुछ सेवा सहायता न वन पड़ेगी।

तीर्थयात्रा की प्रक्रिया इसीलिए भारतीय धर्म में पुण्य मानी गई है कि उस आधार पर प्रगतिशील लोग पिछड़े क्षेत्रों, तक पहुँचते थे, जिस प्रकार अभिभावक अध्यापक पर अपने शिष्य पुत्रों को अपनी बराबरी तक पहुँचाने या उससे भी अधिक ऊँचाई तक ले जाने का प्रयत्न करते हैं। यह इसी आधार पर बन पड़ता है जिस प्रकार स्वाति की बूंदें आकाश से चलकर समुद्र की तलों में पहुँचती हैं और उपयुक्त सीपियों में अपने को घुलाकर नये मोती बनाती हैं। हमें सीमाबद्ध न होकर असीम होना चाहिए और भाषाई, सम्प्रदाई, जाती, लिंगवादी परिबंधनों से ऊँचा उठकर विश्व कल्याण की बात सोचनी और उसी में अपनी क्षमता नियोजित करनी चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118