सुदामा सौराष्ट्र में एक महत्वपूर्ण गुरुकुल चलाते थे। उनके आश्रम में दूर दूर से बड़ी संख्या में छात्र पढ़ने आते थे। प्राचीन परम्परा के अनुरूप छात्रों के निर्वाह तथा निवास आदि का प्रबंध गुरुकुल संचालक को ही करना पड़ता था।
उन दिनों छात्रों की संख्या बढ़ गई। समीपवर्ती क्षेत्र में दुर्भिक्ष पड़ा। दान मिलना कठिन हो गया। गुरुकुल को बन्द करने जैसी स्थिति सामने आ गई यदि ऐसा करना पड़ता तो उस टकसाल में नर रत्न ढलने का जो कार्य सफलतापूर्वक चलता था वह बन्द हो जाता। स्थिति विषय थी। सोचते सोचते यह सूझा कि द्वारका श्री कृष्ण के पास जाया जाय। वे सम्पन्न भी थे और गुरुकुल में सुदामा जी से परिचित भी।
सुदामा जी द्वारका पहुँचे। भगवान ने उनका भावभरा सत्कार किया। उनके आगमन का अभिप्राय समझा। इससे बड़ा सौभाग्य और कोई हो नहीं सकता था कि सम्पदा का श्रेष्ठ कार्य में सदुपयोग करके धन्य बना जाय। श्री कृष्ण ने अपने निर्वाह की थोड़ी सी सम्पदा पास रख कर शेष समस्त सम्पदा द्वारिकापुरी में सुदामा गुरुकुल को स्थानान्तर करा दी। दाता और गृहीता दोनों ही धन्य हो गये।