चन्द्रमा उदास रहने लगा। उसे शारीरिक रोग तो कम पर मानसिक दबाव अधिक था। सो उसकी कलाएं एक-एक करके क्षीण होने लगीं।
और पन्द्रह दिन में ही स्थिति मरणासन्न जैसी हो गई। धन्वंतरि को बुलाया गया और कहा गया कि वह हँसने की आदत डालें। दिन भर मुस्कराते और हँसते रहें। इसी उपचार को अपनाने पर वे पूर्ववत् सुन्दर और समर्थ हो जागेंगे। चन्द्रमा ने वही उपक्रम अपनाया वे हर खड़ी प्रसन्न रहने लगे। कठिनाइयों और चिन्ताओं का निराकरण तो करते पर उन्हें सिर पर सवार न होने देते।
चन्द्रमा का खोया हुआ स्वास्थ्य सुधरने लगा। तेजस्विता में एक-एक कला बढ़ने लगी। पूर्णिमा आने तक उनकी सभी कलाएँ लौट आई और वैसे ही पूर्ण हो गये जैसे कि पिछली पूर्णिमा को थे।
चरक दिनों गुरुकुल में पढ़ते थे। उनके जिम्मे वनौषधियों की खोज का काम था।
एक बार उन्हें एक छोटा फोड़ा निकला। गुरु ने उसे अच्छा करने के लिए एक विशेष वनौषधि की आवश्यकता बताई। ढूंढ़ कर लाने के लिए कहा। साथ ही यह भी कहा वह औषधि न मिलने पर छोटा रोग भयंकर हो सकता है। चरक उस वनस्पति को ढूंढ़ने के लिए निकल पड़े। दूर-दूर तक गये, सैकड़ों वनस्पतियों को देखा जाता और उनके प्रभाव का निरीक्षण किया जाता। इस प्रकार उन्हें इस कार्य में लम्बा समय लग गया।
जब वे निराश लौटे तो गुरुदेव ने कहा, वह वनस्पति आश्रम के पिछवाड़े मौजूद है। उसे उखाड़ लाओ। सेवन करो, वैसा ही किया गया, वे कुछ ही दिन में रोग मुक्त हो गये।
एक दिन चरक ने गुरु से पूछा जब वह वनौषधि आश्रम के पीछे मौजूद थी तो आपने मुझे उस लम्बी खोजबीन में क्यों लगाया?
गुरु ने कहा-”शोध की लगन जगाना अधिक महत्वपूर्ण है उसके कारण असंख्यों का भला होता है। उस प्रयास में तुम्हारी तन्मयता लग सके और वैसा ही स्वभाव बन सके। इसी कारण तुम्हें उस कठोर प्रयत्न में जुटाया गया था”। चरक का समाधान हो गया।