पहले स्वयं को जीतो!

April 1989

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आपकी विजय सराहनीय है महाराज! आप सचमुच वीर है, ऐसा न होता तो आप गालव नरेश को तीन दिन में ही कैसे जीत लेते? राजपुरोहित पूर्णिक ने महाराज सिंधुराज की ओर किंचित मुस्कराते हुए कहा-बात का क्रम आगे बढ़ाते हुये वे बोले-किन्तु महाराज! सेना की विजय से भी बढ़कर विजय मन की है, जो काम, क्रोध, लोभ और मोह जैसी साँसारिक ऐषणाओं को जीत लेता है वही सच्चा शूरवीर है। उस विजय के आगे यह रक्तपात वाली, हिंसा वाली, शक्ति वाली विजय तुच्छ और नगण्य सी लगती है।

महाराज सिंधुराज ने कवच परिचायक को देते हुये कहा-आचार्य प्रदर! हम वैसी विजय भी करके दिखला सकते है। आपने लगता है हमारे पराक्रम का मूल्याँकन नहीं किया-सम्राट के स्वर में अहं मिश्रित रूखापन था।

राज पुरोहित पर्णिक की सूक्ष्म दृष्टि महाराज के उस मनोविकार को ही ताड रही थी, इसलिये वे निःशंक बोले-आपके पराक्रम को कौन नहीं जानता आर्य श्रेष्ठ! आपको सिंहासन पर आसीन हुये अभी दशक ही तो बीता है। इस बीच आपने कलिंग, अरस्ट्रास, मालव, विन्ध्य, पंचनद सभी प्रान्त जीत डाले, क्या यह सब पराक्रमी होने का प्रमाण नहीं? किन्तु यदि आप एक बार महर्षि बेन के दर्शन करके आते तो पता चलता कि वे आपसे भी कीं अधिक पराक्रमी हैं, विजयी है। उन्होंने राग-द्वेष सम्पूर्ण ऐषणाओं पर विजय पाली है।

सिंधुराज को अपने सामने वह भी राज पुरोहित के मुख से किसी और की प्रशंसा अच्छी न लगी। उन दिनों राज पुरोहित राज्य की आचार संहिता के नियंत्रक हुआ करते थे। सिंधुराज उनका कुछ कर नहीं सकते थे, तो भी उन्होंने महर्षि बेने के दर्शन का निश्चय कर लिया।

सूर्योदय होने में अभी थोड़ा विलम्ब था। महाराज सिंधुराज अस्तबल पहुँचें। वहाँ उनका अश्व सजा हुआ तैयार था वे उस पर आरुढ होकर महर्षि बेन के आश्रम की ओर चल पड़े। मार्ग में उन्हें एक वृद्ध जन दिखाई दिये, वह मार्ग में पड़े काँटे साफ कर रहे थे, कंटीली झाड़ियां काट कर उन्हें दूर फेंक रहे थे। उन्हें देखकर महाराज ने घोड़े को रोका और पूछा-महान् तपस्वी बेन का आश्रम किधर है? ओ वृद्ध!

वृद्ध ने एक बार महाराज की ओर देखा फिर अपने काम में जुट गये-महाराज को यह अवहेलना अखरी, उनका अहंकार जाग पड़ा-बोले-शठ! देखता नहीं मैं यहाँ का सम्राट हूँ। बता-बेन का आश्रम किधर है? वृद्ध ने पुनः आंखें उठाई-ओठों पर एक हल्की मुस्कराहट तो आई फिर वे उसी तरह अपने काम में जुट गये। महाराज का क्रोध सीमा पार कर गया। घोड़े को वृद्ध की ओर दौड़ा दिया, उन्हें रौंदता हुआ घोड़ा आगे बढ़ गया। इस बीच महाराज ने उसकी चाबुक से वृद्ध पर प्रहार भी किया और अपशब्द कहते हुये आगे बढ़ गये। वे अभी थोड़ा ही आगे गये थे कि महर्षि की प्रतीक्षा करते खड़े उनके शिष्य दिखाई दिये, महाराज ने पूछा-आपके गुरु बेन कहाँ हैं? शिष्यों ने बताया वे प्रतिदिन हम लोगों से पूर्व ही उठकर मार्ग साफ करने निकल जाते है।

आप जिधर से आये उधर ही तो होंगे वह. और तब महाराज का क्रोध पश्चाताप में बदल गया। वे उन्हीं पैरों लौटे, महर्षि उठकर खड़े हो गये थे, कटी हुई झाड़ियां ठिकाने लगा रहे थे। घोड़े से उतर कर महाराज उनके चरणों पर गिर कर क्षमा माँगने लगे-बोले भगवान्। पहले ही बता देते कि आप ही महर्षि हैं तो यह अपराध क्यों होता?

बेन मुस्कराये-बोले बेटा-तूने मेरी प्रशंसा की उससे मन में अहंकार उठा, उसे-मारने के लिये यह आवश्यक ही था। तेरा उपकार जीवन भर नहीं भूलूँगा। महाराज सिंधुराज पानी-पानी हो गये उन्होंने अनुभव किया-सच्ची वीरता दूसरों को नहीं, अपने को जीतने में है।


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