ईश्वर का दर्शन-पवित्र अन्तःकरण में

June 1987

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समग्र स्वस्थता शरीर के सभी अवयवों के निरोग एवं परिपुष्ट होने से विनिर्मित होती है। किसी अवयव विशेष के बढ़ जाने से तो विद्रूप विपन्नता ही उत्पन्न होती है। पैर फूलने पर फीलप व और पेट फूलने पर अपच की चिन्ताजनक स्थिति बनती है। किसी अंग विशेष में गाँठ उभर आने से प्रसन्नता नहीं, चिन्ता ही बढ़ती है।

पूजा पाठ भी समग्र जीवन के विकास का एक छोटा भाग है। उसके लिए समय निकालना और अभ्यास क्रम चलना चाहिए। किन्तु इतने भर में ही सन्तोष कर बैठना और आत्म-कल्याण की समग्र आवश्यकता पूरी होने जैसी आशा नहीं करनी चाहिए।

साथ में जीवन की पवित्रता और प्रखरता का समावेश भी उतना ही आवश्यक है। ईश्वर की झाँकी अन्तरात्मा में ही हो सकती है। अन्यत्र उसे खोजना हो तो समस्त ब्रह्माण्ड में उसकी व्यापकता पर ही दृष्टि डालनी पड़ेगी। आत्म-दर्शन ही ईश्वर दर्शन का सरलतम और निकटतम साधन है।

आत्म-दर्शन का अर्थ है अन्तःकरण में पवित्रता और प्रखरता का समुचित सम्वर्धन। दर्पण पर धूलि जमी हो या उसके भीतर का रंग उतर गया हो तो फिर उसमें मुख दीख पड़ने का सुयोग न बनेगा। जिसने अपने अन्तःक्षेत्र को टटोला नहीं है, उसे धोया सँजोया नहीं है, उसके लिए यह कठिन हैं कि उस गंदले क्षेत्र में ईश्वर का आगमन अवतरण या दिव्य-दर्शन की आशा करें। वस्तुतः आत्मशोधन ही प्रभुदर्शन का एक मात्र उपाय है।


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