जीवन- ईश्वर का एक अनुपम अनुदान

June 1987

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आत्मबोध का वास्तविक अर्थ है, स्थूल शरीर और आत्मा की भिन्नता अनुभव करना। आमतौर से चेतना शरीर के साथ इतनी गहराई तक गुँथ जाती है कि अपना अस्तित्व और सर्वस्व उसी को समझने लगती है। उसी की सुख-सुविधाओं का ताना-बना बुनती है और अहिर्निश उसी को अधिकाधिक प्रसन्न एवं सम्पन्न बनाने के लिए श्रम करती रहती है। अपना आपा काया के साथ इतना अधिक घुल जाता है कि उससे पृथक् अपनी सत्ता का कोई भान ही नहीं होता।

आत्मा शब्द कहने-सुनने में तो नित्य ही आता है। पर यह अनुभव नहीं होता कि वह शरीर से भिन्न है और दोनों के स्वार्थों में जमीन-आसमान जितना अन्तर है। दोनों की आवश्यकता और इच्छा ऐसी है जिनमें परस्पर तालमेल बहुत ही कम खाता है। शरीर की इच्छा सर्वविदित है। वासना, तृष्णा और अहंता में काया को रस आता है। इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को नित नया और असीम मात्रा में चाहती हैं। यों उनकी उपभोग शक्ति सीमित हैं उसकी पूर्ति भी थोड़े में ही हो जाती है; पर चिन्तन निरन्तर उन्हीं का चलता रहता है। धन आदमी को इतना चाहिए, जितने में औसत भारतीय स्तर का गुजारा होता चले। उसे न तो अधिक मात्रा में एक जगह जमा होना चाहिए और न उसका अपव्यय होना चाहिए। संग्रह और अपव्यय से अनेकानेक समस्यायें उत्पन्न होती हैं। श्रम-उपार्जन से न्याय और ईमानदारी की कसौटी पर खरा उतरने वाला धन सीमित ही कमाया जा सकता है।

सामान्यतया शरीर की इच्छाएँ सीमित ही हैं। किन्हीं-किन्हीं में ये अधिक चित्र-विचित्र रूप में प्रकट होने लगती हैं एवं उनकी पूर्ति के लिए निरन्तर चिन्तित एवं व्यस्त रहना पड़ता है। इन बंधनों के ढीले हुए बिना ऐसा कुछ नहीं बन पड़ता कि आत्मा की तुष्टि एवं प्रगति के लिए कुछ किया जा सके। चिन्तन यंत्र काया-कलेवर में ही इतना उलझा रहता है कि आत्मा के लिए कुछ करना तो, दूर, सोचते भी नहीं बन पड़ता।

कोई यह नहीं चाहेगा कि शरीर की उपेक्षा की जाय। उसकी स्वस्थता, बलिष्ठता एवं क्षमता में कमी आये; क्योंकि वह आत्मा का वाहन है। आत्मा उसी पर सवार होकर अपनी विभिन्न योजनाओं को पूरा करने की आशा करती है। सामान्य बुद्धि के व्यक्ति भी अपने वाहनों को सही और साफ-सुथरा रखते हैं; पर ऐसा अन्धेर कहीं नहीं होता कि सवार अपना खाना, पीना, सोना, जागना, कमाना, पढ़ना आदि भूलकर निरन्तर मात्र उस सवारी के श्रृंगार में ही लगा रहे। अपने वर्तमान या भविष्य की चिन्ता न करे। यह भी ध्यान न रखे कि सवारी आखिर किस काम के लिए प्राप्त की गई थी और उन कामों को सम्पन्न करने की योजना भी सामने है क्या?

आत्मा की अपनी आवश्यकताएँ और जिम्मेदारियाँ हैं। 84 लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त एक बार यह अवसर मिला है कि भव बंधनों से छुटकारा पाया जा सके, पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा जा सके। भगवान ने इस मानवी काया की अजस्र सम्पदा सौंपते हुए उससे जो आशा रखी है, उसकी पूर्ति के लिए जो आवश्यक है, उसे किया जाय। मनुष्य जन्म का अनुदान प्राप्त करने के उपरान्त कई और कक्षाएँ हैं, जिन्हें उत्तीर्ण किया जाना है और उसके फलस्वरूप अगली सीढ़ियों पर चढ़ते हुए महामानव, सिद्ध पुरुष, ऋषि एवं देवात्मा बनना है। उन समस्त दायित्वों की उपेक्षा कर भविष्य अंधकारमय बना लेना तो अदूरदर्शिता ही कही जाएगी।

सवार भूखा, चिथड़ा पहने बीमार रहे और घोड़े पर इत्र मलने का अशर्फियाँ निछावर करने का उपक्रम चले, तो समझना चाहिए कि नासमझी की चरम सीमा है। ऐसा जो कर रहा हो, उसे अर्धविक्षिप्त या पूर्णपागल कहना चाहिए। हममें से अधिकाँश व्यक्ति इसी स्थिति में रह रहे हैं।

दृश्य आकर्षण देखकर न दीख पड़ने वाली हानि को भुला देना ऐसा ही है, जैसा नशेबाज क्षणिक उत्तेजना के वशीभूत होकर अपनी सम्पदा, प्रतिष्ठा, सन्तान, सेहत आदि सब कुछ गँवा बैठते हैं। शरीर को गुदगुदाने भर के लिए मन की ललक को सींचने के लिए जो सब कुछ गँवा बैठते हैं, उनमें हममें से अधिकाँश की गिनती होती है।

जितना उपयोग में आ सके, उसे उपलब्ध करना एक बात है, किन्तु सदुपयोग की सीमा से अधिक संचय करना और उस भार से लद मरना दूसरी। शरीर की आवश्यकता अति सीमित है। उसे आधा सेर अन्न, छह गज कपड़ा, चारपाई और बिस्तर भर चाहिए। इसके अतिरिक्त जितनी मात्रा समेटी गई है वह अनर्थ ही पैदा करती है। दूसरे उसे लूटते हैं। इन्द्रिय भोगों की अति की जायगी तो रुग्णता और दुर्बलता के चाँटे दोनों गालों पर तड़ातड़ पड़ने लगेंगे। ऐसी फजीहत में फँसने के लिए बहुमूल्य जीवन सम्पदा को बर्बाद कर देना मानवोचित बुद्धिमानी नहीं है।

जिस पेड़ की जड़ें जितनी गहरी जमीन में जाती हैं, वह उतना ही बड़ा और टिकाऊ होता है। जड़ें छोटी और उथली हों तो उसका जीवन काल तो थोड़ा रहेगा ही, फैलाव भी अधिक न हो सकेगा। मनुष्य की जड़ें उसकी अन्तः चेतना के स्तर में सन्निहित हैं। वे यदि उथली होंगी तो व्यक्तित्व उथला रहेगा, घटिया सोचते और घटिया करते ही बन पड़ेगा। किन्तु यदि अन्तर की क्षमता आदर्शों पर टिकी हुई है, मानवोचित गरिमा के उपयुक्त गुण, कर्म, स्वभाव संचय हो सके हैं तो फिर बाहर की कठिनाइयों और अभावों के रहते उसकी प्रगति रुकने वाली नहीं है। वह अपना स्वरूप हर परिस्थिति को चीरती हुई निखार लेती है। इसके प्रमाण ढूँढ़ने हों तो महामानवों की जीवन गाथाएँ पढ़नी चाहिए। वे स्पष्ट करेंगी कि कोई आदर्श व्यक्ति परिस्थितियों ने नहीं गढ़ा है, वरन् अपने निज के पराक्रम ने ही उसे महान बनाया है।

अपनी महानता एवं क्षमता को उच्च प्रयोजनों के लिए सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है कि शरीरगत वासनाओं और मनोगत तृष्णाओं को घटाया जाय। उन्हें औसत भारतीय स्तर से आगे न बढ़ने दिया जाय।

लोग मोह-ममता बढ़ाने को ही प्यार समझते हैं वह हर दृष्टि से दुःखदायी है। राजा चन्द्रकेतु का पुत्र मर गया। वे इतना दुःखी हुए कि शोक से सूख-सूख कर स्वयं काँटा हो गये और मरणासन्न स्थिति तक पहुँच गये। महर्षि भृगु एक दिन वहाँ पधारे। राजा की व्यथा सुनी। उनने कहा “स्वर्गस्थ आत्मा से यहाँ बैठे-बैठे आपकी बातें कराये देता हूँ। वह चाहेगा तो आपके परिवार में उसे नया जन्म दिलाने का प्रयत्न करेंगे।”

वार्त्तालाप हुआ। मृत बालक की आत्मा ने कहा- “यहाँ आने पर सौ जन्मों की स्मृतियाँ मुझे हो गई हैं। सौ पिता मेरी आँखों के सामने हैं। आप उनमें से कौन से हैं, बतायें? मेरी इनमें से किसी के साथ भी कोई आसक्ति नहीं है। अपने कर्म बन्धनों से निपटने मात्र में ही मेरी रुचि है। मेरी किसी पिता में कोई दिलचस्पी नहीं। वे शोक करते हैं तो मात्र अपने मोह का दंड भर पाते हैं। उससे मेरी कोई लाभ-हानि नहीं।”

वह कथा प्रसिद्ध है कि राजा को मरकर कीड़े में जन्म मिला और वह महल के बगीचे में ही पेड़ पर छिपा बैठा था। शोकाकुल रानियों को एक दिव्यदर्शी महर्षि ने भेंट कराई और पूछा रानियों के संबंध में आपका मन कैसा है। उनने कहा-”उन सब को मैं भुला चुका। अब तो यह कीड़े का शरीर ही अब मुझे परमप्रिय है।”

“रघुवंश” में दशरथ की रानियों का शोक घटाने के लिए महर्षि वशिष्ठ ने तत्वज्ञान की चर्चा की है और उदाहरण देते हुए कहा है कि “जैसे बहती नदी में लकड़ी के लट्ठे भी चले आते हैं और कभी वे एक साथ हो जाते हैं और कभी लहरों के दबाव से अलग-अलग बहने लगते हैं। यह प्रकृति का नियम है। इसमें शो करने जैसी अनोखी बात नहीं हैं। तुम ममतावश अपने को व्यर्थ शोकाकुल न करो। कोई प्राणी किसी के साथ-संबंधों के रिश्ते में तभी तक बँधा है, जब तक वह जीवित है। अन्यथा सभी प्राणियों की स्वतंत्र सत्ता है। मरने के बाद भी वह उसी रूप में नहीं बनी रहती। इसीलिए अज्ञानमूलक शोक से विवेक आश्रय लेकर पार होना ही श्रेयस्कर है।”

गर्भोपनिषद् में बताया गया है कि गर्भावस्था में जीव के अन्तःकरण में पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ जागृत होती हैं। और वह कहता है-”हजारों बार मेरा जन्म हो चुका है, विविध प्रकार के आहार मैं खा चुका हूँ, हजारों माताओं का दूध मैं पी चुका हूँ, बार-बार पैदा हुआ हूँ बार-बार मरा हूँ। पर वे तो आज साथ हैं ही नहीं। साथ हैं मेरे कर्म ही। उनका ही फल मुझे मिल रहा है।”

इस अलंकारिक वर्णन से आशय यही है कि मनुष्य सदैव मृत्यु को याद रखे, कायसत्ता को नहीं, आत्म सत्ता को महत्त्व दे, तो कभी लोभ-मोह के बंधन उसे आबद्ध नहीं कर पायेंगे।

जीवन की महानता को जीवन्त बनाये रहने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपनी काया का क्षणभंगुर होना याद रखे। मौत-बच्चे, जवान, बूढ़े किसी को भी किसी समय निगल सकती है। जो जीवन काल मिला हुआ है उसके बारे में क्या पता कि अगले ही क्षणों में समाप्त हो जाय। ऐसी दशा में मिला हुआ सुयोग लाखों वर्ष तक चौरासी के परिभ्रमण में चला गया ही समझना चाहिए।

अजर-अमर की तरह-विलासी, संग्रही और अहंकारी बने रहना और इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों के लिए अपना सर्वस्व निछावर करते रहना किसी-भी प्रकार उचित नहीं। लिप्साओं को पूरा करने का अवसर तो न्यूनाधिक मात्रा में हर योनि में-हर जन्म में मिल जाता है, पर सद्गति सम्पादन के लिए तो मात्र यह मानव जन्म ही है। इसकी भी कोई अवधि निश्चित नहीं। श्मशान साक्षी है कि बूढ़ा होकर मरना भी निश्चित नहीं। उनसे अधिक संख्या में जवानों की चिताएँ आये दिन जलती रहती है।

जीवन काल की अनिश्चितता और करने योग्य कामों की सूची सामने रखते हुए संगति मिलाई जाय, तो विवेक का एक ही निर्णय होगा-बाल क्रीड़ाओं में समय सम्पदा का एक क्षण भी बर्बाद न किया जाय। उस विधि व्यवस्था को अविलम्ब अपनाया जाय, जिससे आत्मा की प्रगति होती हो और परमात्मा को संतोष मिलता हो। इसके लिए उचित समय की प्रतीक्षा किये बिना तुरंत ही स्वयं को नियोजित कर देना चाहिए।

पूर्व संचित संस्कारों का दबाव अन्य जन्मों में तो ज्यों का त्यों बना रहता है। मात्र मनुष्य जन्म ही ऐसा है जिसमें आन्तरिक कायाकल्प किया जा सकता है और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण हो सकता है। यह अवसर चूकने का नहीं है। जो चूकते हैं, वे पछताते हैं। अंतिम समय में इस छटपटाहट को प्रत्यक्षतः देखा जा सकता है। वह समय कभी भी आ सकता है, यह भाव मन में रखते हुए क्यों न जीवन-सम्पदा का भरपूर सदुपयोग किया जाय, देवमानव-सा जीवन जीकर धरित्री पर आना सार्थक किया जाय।


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