क्षतिपूर्ति का नियम सृष्टि में सर्वत्र लागू होता है। प्रारम्भ में देखने में ऐसा लगता है कि कहीं न्याय नहीं है क्योंकि दुष्ट सफल होता देख जाता है, अच्छे लोग सताये देखे जाते हैं। परन्तु वास्तविकता इससे भिन्न है। क्रिया और प्रतिक्रिया का सिद्धान्त प्रत्येक पदार्थ अथवा प्रकृति के प्रत्येक कण पर लागू होता है। अँधेरा और प्रकाश, गर्मी और सर्दी, पुरुष और स्त्री सबमें अधूरापन होता है। ये सभी एक दूसरे के पूरक होते हैं। इसी तरह द्वैत्व सभी स्थिति में होता है, जैसे प्रत्येक मीठी वस्तु में कड़ुवापन होता है, दुष्ट में अच्छाई होती है एवं प्रत्येक बार खो देने के बदले प्राप्ति तथा प्रत्येक प्राप्ति के लिये गँवाना आवश्यक होता है।
प्रकृति एकछत्रता और अपवाद नहीं सहन करती। कुछ न कुछ ऐसा वातावरण विनिर्मित होता है, जो दोनों को बराबर कर दे। न्याय लुप्त नहीं हो सकता, सभी वस्तुयें सिद्धान्त से जुड़ी हैं। गणितीय ढंग से दोनों पक्ष बराबर रखे जाते हैं। जैसे प्रकाश-अंधकार, मीठा-कड़ुवा आदि। सभी वस्तुओं में एक दूसरे के पूरक का अथवा प्रतिरोध का गुण होता है। जैसे-ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाता है, अन्दर जाये बिना बाहर नहीं आ सकते। यदि आप किसी को दास बनाकर गले में जंजीर बाँधेंगे तो दूसरा सिरा आपके हाथ में बंधा होगा। स्वयं बुरे बने बिना बुराई की नहीं जा सकती।
प्रकृति में प्रत्येक अच्छे कार्य के बदले अच्छाई मिलने का भी नियम है। जैसे-प्रेम के बदले प्रेम। सराहना किये गये कार्य के साथ हानि होती है और इसके विपरीत हानिप्रद या बेकार समझी गई वस्तु भी लाभदायक सिद्ध होती है। जैसे-बारहसिंगा अपनी सींगों की बड़ाई और पैरों की बुराई करता है, परन्तु शिकारी के आने पर पैर ही भाग कर प्राण रक्षा करते हैं। सींग किसी झाड़ी में उलझ कर प्राण संकट ला देते हैं।
कमजोरी की स्थिति में स्वास्थ्य संवर्धन के ज्यादा अवसर होते हैं। जीवनी शक्ति को लगा धक्का प्रतिक्रिया स्वरूप प्रतिरोधी क्षमता ही बढ़ाता है। हमें यह जानना व समझना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं। एक अच्छा और एक बुरा। हम हमेशा बुरा ही बुरा देखें, वही करें, उसकी अपेक्षा उचित होगा कि अच्छा देखने व करने की ही प्रक्रिया अपनायी जाय। उसकी प्रतिक्रिया भी हमेशा भली ही होगी।
घड़ी का पेण्डुलम फनर के दबाव से हिलता रहता है। साथ ही एक दिशा में चलने की प्रतिक्रिया उसे लौटाने हुए वापस भी करती रहती है। हमारी मस्तिष्कीय चेतना और प्रकृति संगठन का निर्माण इस आधार पर हुआ है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती रहे। अच्छों के लिए अच्छे और बुरों के लिए बुरे परिणाम उत्पन्न हो रहे। चोर को भर्त्सना भी मिलती है और राजदण्ड भी। अप्रामाणिक व्यक्ति का कोई सहयोग नहीं करता। अपनी दृष्टि में गिर जाने पर उसके द्वारा कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं बन पड़ते। दूसरी ओर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने वाला व्यक्ति आत्म संतोष तो अनुभव करता ही है, अपार जनश्रद्धा एवं दैवी अनुग्रह भी बदले में पाता है।
इसी प्रकार न्याय, नीति अपनाने के संबंध में भी यही तथ्य लागू होता है। भले ही इसके बदले उसे तत्काल नगद पुरस्कार न मिले, पर अपनी और दूसरों की दृष्टि में उसका स्तर ऊँचा उठ जाने से भविष्य में आश्चर्यजनक प्रगति की संभावना बनती है। महापुरुषों के जीवन में यही क्रम घटित होता रहा है। उन्होंने पहले अपनी प्रामाणिकता और सद्भावना का परिचय दिया। पीछे ऐसे अवसर हाथ आते रहे, जिनसे उन्हें भरपूर श्रेय सम्मान मिला। सबसे बड़ी बात है अपनी आत्म सत्ता को संतोष, जो मात्र सज्जनों को ही उपलब्ध होता रहा है।
जीवन देवता की आराधना करने वाले ईश्वर की इस सृष्टि में दृश्यमान इस शाश्वत सिद्धान्त पर आस्था रखते है एवं तद्नुसार अपना जीवन-क्रम बनाते, बदले में अगणित ऋद्धि-सिद्धियों को हस्तगत करते हैं। आत्म संतोष एवं जन सहयोग की प्रकारान्तर से ऋद्धि-सिद्धि हैं।