महाराज प्रद्युम्न का शरीर छूट गया। गुणी लोगों ने कहा-राजा की आत्मा मरते ही दूसरा जन्म लेगी। यदि उस नये शरीर को जन्मते ही मार दिया जाय तो राजा प्राण वापिस लौट आयेगा और वे फिर से जीवित हो उठेंगे।
नया जन्म कहाँ, किस योनि में लिया इसे बताने के लिए उन दिनों में प्रख्यात दिव्यदर्शी पुरंध्र बुलाये गये। उनने समाधिस्थ होकर देखा तो उन्होंने पाया कि पास के बगीचे में आम्रकीट के रूप में जन्मे हैं। स्थान तथा रूप सबको बता दिया गया।
पकड़े कौन? मारे कौन? यह कार्य महामंत्री को सौंपा गया। वे वृक्ष पर चढ़े। कीटक को नमन किया और राजा रूप में लौट चलने के लिए वध कराने को उद्यत होने के लिए निवेदन किया।
आम्रकीट ने मुँह मोड़ लिया। वध के लिए वह किसी भी प्रकार उद्यत न था। अब उसे वही काया प्रिय लगने लगी थी। महामंत्री का आग्रह उसे तनिक भी न रुचा। प्राण बचाने के लिए वह एक डाली से दूसरी डाली पर भागने लगा।
यह आँख मिचौनी घंटी चलती रही। कीड़ा महामंत्री की पकड़ में न आया। बार-बार राजकाज और प्रिय परिवार का स्मरण दिलाने पर भी वह उस ओर ध्यान देने को सहमत न हुआ। अब उसे नई काया ही प्राण प्रिय लगने लगी थी।
थक हारे महामंत्री निराश लौटे और उन्होंने समूचा विवरण सभासदों एवं परिवारीजनों को सुना दिया।
विचारकों ने निर्णय दिया। आत्मा की इच्छा को ही प्रधानता दी जाय और मृत शरीर की अंत्येष्टि कर दिया जाय।