एक पंडित थे। गंगा तट पर बैठ कर गीता पाठ करते और घर लौट जाते।
उसी घाट पर एक घड़ियाल रहता था। कथा उसे बहुत सुहाती। पंडित से बोला मुझे आद्योंपन्न गीता सुनायें आपको हर दिन सौ मोतियों की दक्षिणा दूँगा। पंडित ने वैसा ही किया। घड़ियाल रोज कथा सुनता और वचनानुसार सौ मोती दक्षिणा में देता।
कथा पूर्ण होने पर एक हार और भेंट दिया। साथ ही यह निवेदन किया कि किसी प्रकार मुझे त्रिवेणी संगम तक पहुँचा दे तो आपको एक घड़ा भर कर मोती दूँगा। पंडित ने बैल गाड़ी का प्रबन्ध किया और लादकर उसे त्रिवेणी पहुँचा दिया। घड़ियाल ने भी वचन पूरा किया और मोती भर घड़ा उन्हें थमा दिया।
विदा करते समय, घड़ियाल ने नमन नहीं किया उलटा व्यंग्यपूर्ण हँसी हँसने लगा। कारण पूछने पर उसने पंडित से इतना ही कहा-अपने पड़ौस के सजन धोबी के गधे से कारण पूछना।
पंडित जी सीधे उस गधे के पास पहुँचे और घड़ियाल के व्यंग्य हँसी का कारण पूछने लगे।
गधे ने लम्बी साँस खींचते हुए कहा-पूर्व जन्म में मैं कौशल नरेश का अंग रक्षक था। वे त्रिवेणी तट पर आये तो अत्यधिक प्रभावित हुए और राजपाट दूसरों को देकर वहीं बस गये। मुझे से उनने पूछा-अब वेतन तो नहीं मिलेगा पर चाहो तो साथ रहकर तुम भी धन अर्जित करो। लौटना चाहो तो एक सहस्र मुद्रा लेकर वापिस चले-जाओ।
गधे ने कहा-मैं मुद्रा लेकर वापिस चला गया। राजा तो स्वर्ग चले गये पर मैं रुपयों के प्रपंच में पड़कर अनेक अनर्थ करता रहा और अब गधे की योनि में पड़ा कष्ट सह रहा हूँ।
पंडित समझदार थे। गधे से शिक्षा ग्रहण की और त्रिवेणी तट पर घड़ियाल के समीप रहकर आत्म कल्याण की साधना करने लगे।