वैष्णव की करुणाभरी आत्मीयता

June 1987

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नरुसी मेहता का प्रसिद्ध भजन है-”वैष्णव जन तो तेने कहिए, जै पीर पराई जाने रे”। इस छोटे से पद में भगवद् भक्ति और ईश्वर परायणता का सार तथ्य कूट-कूट कर भर दिया है।

जिसे सर्वव्यापी ईश्वर पर विश्वास है, और उसे सब में समाया हुआ देखता है। प्रियतम की साकार प्रतिमा सभी प्राणियों में विचरण करती दिखाई पड़ती है। प्रिय पात्र को सुखी बनाने की-उसके दुःख निवारण की स्वाभाविक इच्छा होती है। अपने प्रिय के प्रति कोई निष्ठुर कैसे हो सकता है? सताने की बात कैसे सोच सकता है?

सच्चे ईश्वर भक्त की दो मान्यताएँ अविचल, अटूट रहती हैं। एक “वसुधैव कुटुम्बकम्” दूसरी “आत्मवत् सर्वभूतेषु”। यह समस्त विश्व अपना ही परिवार है, और अपनी जैसी आत्मा ही हर किसी में ओत-प्रोत है। इन दो भावनाओं को जो जितनी गहराई में उतार सके, समझना चाहिए कि वह उतना ही सच्चा ईश्वर भक्त है। जब हम ईश्वर के प्रिय परिवार में सम्मिलित होना चाहत हैं तो स्वभावतः इसके लिए इतना तो करना पड़ेगा कि ईश्वर के परिवार को अपना परिवार मानें। यदि उसकी उपेक्षा करते हैं, रस नहीं लेते। सुख में सुखी और दुःख में दुःखी नहीं होते तो यह कहने का अधिकार कहाँ मिलता है कि हम ईश्वर के भक्त उसके परिवार के सदस्य है। पारिवारिकता के साथ आत्मीयता जुड़ी रहती है। घर के सदस्यों को हम अपना मानते हैं। उनके सुख दुःख में सदा साथी सहायक रहते हैं। उठाने, बढ़ाने और समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। अपनी कमाई को मिल बाँट कर खाते हैं। ऐसा नहीं करते कि जो अपना है सो तो है ही-इसके अतिरिक्त दूसरों के खीसे में जो कुछ है, उसे भी किसी प्रकार बहका-फुसला कर हड़प लिया जाय। ऐसा तो विरानों के साथ ही बन पड़ता है। पर जब ईश्वर भक्ति अन्तःकरण में आती है तो एक ही ज्योति सामने जगमगाती दीखती है। प्रतीत होता है कि एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब लहरों में से प्रत्येक के ऊपर अलग-अलग दीखता रहता है। वस्तुतः लहरों की झिलमिलाहट का केन्द्र एक ही है। जो है सो अपना प्रिय पात्र है। ऐसी दशा में उसके प्रतिबिम्बों के प्रति भी विरानापन कैसे माना जा सकता है?

सन्तजन स्वयं कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी बनाते हैं। सेवा धर्म अपनाते हैं। पुण्य, परमार्थ में निरत रहते हैं। पर यदि इसके लिए उदारता, करुणा न उभरे तो भी इतना तो मानना ही चाहिए कि सब में अपनी ही जैसी आत्मा है। हम दूसरों से जिस प्रकार के व्यवहार की आशा करते हैं, निश्चय ही दूसरे भी हमसे वैसी ही अपेक्षा रखते होंगे। अपने शरीर में कहीं चोट लग जाने या पीड़ा उठाने से बेचैनी होती है, उसका उपचार करने दौड़ते हैं। यदि सब में अपना आत्मा ही व्यापक अनुभव किया गया है तो फिर अन्यान्यों की आवश्यकताएँ भी अपनी आवश्यकता प्रतीत होंगी और उनकी पूर्ति के लिए वैसा ही प्रयास चल पड़ेगा।

हो सकता है कि संसार में कितने ही दुष्ट दुरात्मा भी हों? यहाँ उनकी आत्मा को और दुष्टता को अलग-अलग करके मानना चाहिए। डॉक्टर रोग को मारने वाली दवा देते हैं, पर रोगी के प्रति उनकी सद्भावना ही रहती है। उसे बचाने के लिए वह सामर्थ्य भर प्रयत्न करता है। रोग और रोगी को एक मानकर दोनों का सफाया करने की बात नहीं सोचते। इसी प्रकार दुरात्माओं के दुर्गुण छुड़ाने की हित कामना ही मन में रहनी चाहिए। उस विद्वेष का उदय नहीं होना चाहिए जो आक्रामक रूप धारण करता है। सिर में जुएं पड़ जाने पर कोई सिर नहीं काटता। खाट में खटमल हो जाने पर चारपाई को जलाया नहीं जाता। इतना विवेक बनाये रखा जाता है जो अवाँछनीय है मात्र उसे ही हटाया जाय। जो उचित एवं आवश्यक है मात्र उसे ही हटाया जाय। जो उचित एवं आवश्यक है उसे बचा लिया जाय। उसे क्षति न पहुँचने दी जाय। अवाँछनीयता के साथ असहयोग, विरोध से लेकर संघर्ष तक किया जा सकता है। इतने पर भी यह अन्तर समझ ही लेना चाहिए कि व्यक्ति को क्षति न पहुँचे। उसके दुर्गुणों पर ही चोट पड़े।

अबोध बालक शिष्टाचार को नहीं समझते और पग पग पर बेतुकी हरकतें करते रहते हैं। उन्हें देखकर अभिभावक उग्र नहीं हो उठते। क्षमा करते और सिखाते हैं, कि उन्हें क्या करना चाहिए, क्या नहीं? न मानने पर फिर कभी के लिए अपनी सिखावन सुरक्षित रख लेते हैं। गलती करने वालों को बहिष्कृत, तिरस्कृत न करके उन्हें समझाना-सुधारना है यह भावना मन में रहे तो अनगढ़ लोगों के प्रति वैसा ही भाव उठेगा जैसा अनगढ़ बाल बुद्धि वालों के प्रति उठना चाहिए। कई व्यक्ति आयु की दृष्टि से बड़े हो जाते हैं, पर विचारों और आदतों की दृष्टि से उन पर पिछड़ापन ही छाया रहता है। तीव्र ज्वर की सन्निपात की स्थिति में अपने घर के रोगी भी अण्ड-बण्ड बकने लगते हैं। उनके शब्दों पर ध्यान नहीं दिया जाता, वरन् स्थिति को समझते हुए प्रत्युत्तर देने, प्रत्याक्रमण करने का प्रयत्न नहीं होता, वरन् आत्मीयता की करुणा ही काम करती है। क्षमा स्वयमेव उठ आती है, इसलिए रोगी को शर्मिन्दा करने या क्षमा माँगने के लिए बाधित करने के लिये कुछ सोचा नहीं जाता।

इस संसार में अनगढ़ ही भरे पड़े हैं। रोगी भी और अनाड़ी भी। उनके व्यवहार को देखकर वैसी ही प्रतिक्रिया अपनाई जाय तो समझदारी और सज्जनता कहाँ रही? चिकित्सक और रोगी की मनःस्थिति में तो अन्तर रहना ही चाहिए। बालकों और बड़ों की रीति-नीति में तो अन्तर रहेगा ही। दोनों ही एक जैसा व्यवहार करने लगें तो समझना चाहिए कि समझदारी हार गई और नासमझी जीत बोली। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने से बचाव ही करना चाहिए।

वैष्णवजन की पहिचान उसके तिलक छाप, वेश, परिवेश, पूजा, पाठ से नहीं हो सकती। उन्हें तो कोई पाखण्डी भी अपना सकता है। यह सस्ती अवधारणा ईश्वर का हृदय नहीं जीत सकती। न कोई उसका प्रिय पात्र कहला सकता है। नाटक के पात्र राजा, होने के परिधान भी पहनते हैं और वैसा ही अभिनय भी करते हैं। इतने पर भी वे किसी राज्य के अधिपति नहीं बन पाते। साधारण अभिनय कर्मचारी ही रहते हैं। इसी प्रकार पूजा पाठ की अपनी आवश्यकता एवं मर्यादा होते हुए भी उसी को ईश्वर भक्ति का आधार नहीं माना जा सकता।

वैष्णव-ईश्वर भक्त वह है जो पराई पीर जानता है। जानता ही नहीं अनुभव भी करता है। अनुभव ही नहीं करता, वरन् उसे दूर करने की चेष्टा भी करता है। चेष्टा ही नहीं करता, वरन् उसमें रस भी लेता तथा संतोष भी अनुभव करता है। उत्साहित, उल्लसित भी रहता है। इसी सहृदयता को भक्ति भावना कहते हैं।

उपरोक्त पद का अगला चरण है-”पर दुखे उपकार करे तोऊ मन अभिमान न आवे रे।” इसका तात्पर्य है कझा और सेवा को चरितार्थ करने वाले के मन में उपकारी होने जैसा अहंकार नहीं आना चाहिए। न बदले में आशा ही करना चाहिए। उपकार करके उसका बदला चाहना और प्रशंसा सुनना, कृतज्ञता की अभिव्यक्ति जैसी अपेक्षा करना भी बदला माँगने जैसा है। ईश्वर भक्ति निष्काम होती है। दूसरी उदार करुणा भी निर्मल और निष्काम सतत् ही होनी चाहिए। भक्ति व्यवहार और आचरण में परिलक्षित रहनी चाहिए।


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