प्रश्नोपनिषद् में एक सूत्र आता है-”प्राणाग्न्य एवास्मिन ब्राह्मपुरे जाग्रति” अर्थात्-”इस ब्रह्मपुरी माने शरीर में प्राण ही कई तरह की अग्नियों के रूप में जलता है।” यह अग्नि जठराग्नि हो सकती है, यज्ञ में वर्णित तीन दिव्य अग्नियाँ, आयुर्वेद वर्णित प्राकृत अग्नि विज्ञान की तेरह अग्नियाँ अथवा योगाग्नि के रूप में प्राण शक्ति का समुच्चय कुण्डलिनी हो सकती है। अपने भिन्न-भिन्न रूप में यह बहिरंग में प्रकट होती रहती है एवं कभी आँखों से, कभी भावभंगिमा द्वारा, कभी वाक्शक्ति के माध्यम से एवं कभी-कभी बल पराक्रम-साहसिकता के रूप में इसकी स्थूल अभिव्यक्ति देखी जा सकती है।
वस्तुतः प्राण को एक प्रकार की सजीव विद्युत शक्ति कह सकते हैं, जो समस्त संसार में वायु एवं आकाश तत्व, ताप, चुम्बकत्व, क्वाण्टा तरंगों अथवा ईथर के रूप में समाई हुई है। यह समष्टि प्राण जिस प्राणी में जिस अनुपात में होता है, व्यक्ति उतना ही स्फूर्तिवान, तेजस्वी एवं साहस का धनी होता है। शरीर-रथ में संव्याप्त इसी तत्व को मनीषी जीवनी शक्ति, “ओजस्” रूप में जानते हैं। मन में अभिव्यक्त होने पर यही तत्व प्रतिभा मेधा अथवा “तेजस्” कहलाने लगता है। शास्त्रकारों का मत है कि संयम साधना द्वारा ब्रह्मचारी इसी विद्युत शक्ति का अधिकाधिक मात्रा में संचय कर वीर्यवान मनस्वी, तेजस्वी कहलाते हैं। जब भी कभी इसका अभाव हो जाता है, शरीर स्वस्थ-गोरा दीखते हुए भी, बहिरंग ढाँचा सुन्दर होते हुए भी मनुष्य निस्तेज, उदास, मुरझाये फूल-सा लुँजपुँज, वीर्यहीन नजर आता हैं तेजस् न होने से बाह्य सौंदर्य भी निर्जीव प्रतीत होता है। व्याधिग्रस्त होने अथवा मनोबल गिरने, मनोविकार ग्रस्त हो जाने पर व्यक्ति वस्तुतः निस्तेज हो जाता है।
मन को लुभाने वाले, समुदाय को आकर्षित करने वाले सौंदर्य में जो तेजस्विता एवं सौम्यता बिखरी होती है, वह और कुछ नहीं, प्राणों का उभार है। वृक्ष-वनस्पति, पुष्पों से लेकर, पहाड़, नदी-सरोवर, शिशु-शावक, किशोर-किशोरियों में जो कुछ भी आह्लादकारी सौंदर्य दिखाई पड़ता है, वह सब प्राण का ही प्रताप है। अभिव्यक्ति के रूप भिन्न-भिन्न घटकों में भिन्न हो सकते हैं, पर मूल प्राण तत्व एक ही होता है, एक ही स्रोत इस समष्टिगत प्राण का है।
मानवीकाया का जो स्थूल बहिरंग है, उसका सूक्ष्म शरीर जिन प्राण स्फुल्लिंगों के समुच्चय से बना है, वह अपने आप में अनन्त अपरिमित शक्तियों का पुँज है। यही कारण है कि इस शरीर को देव मन्दिर कहा गया है, जिसमें पाँच प्राण रूपी पंच देव प्रतिष्ठापित हैं। जब एक देवता की सहायता की मनुष्य को अजर-अमर बना देती है तो इन पंच देवों की सिद्धि कर लेने वाला कितना समर्थ, सशक्त हो सकता है, उसकी कल्पना भर से रोमाँच हो उठता है।
जर्मन विद्वान डॉ. हैकल की पुस्तक “रिडल ऑफ यूनीवर्स” में एक उद्धरण आता है कि “समष्टि में-मैटर पदार्थ एवं शक्ति का अभाव कभी नहीं होता। किसी न किसी रूप में वह बना ही रहता है।” इसे हैकल “फण्डामेण्टल ला ऑफ यूनीवर्स” बताते हुए लिखते हैं कि “इसी प्रकार प्राणतत्व, मनस्तत्व एवं चेतना भी समष्टि में संव्याप्त शक्तियाँ हैं। यद्यपि विज्ञान इनके अस्तित्व को प्रत्यक्ष न दीखने के कारण नकारता है किन्तु यह अनुभूति का विषय है कि प्राण अंतरिक्ष में संव्याप्त है, मन उसकी उच्चतर विकसित स्थिति में एवं चेतन अवस्था में बने रहकर ये तीनों पदार्थ जगत का पूर्ण रूपेण नियंत्रण करते हैं।”
जापान के डॉ. शेरवुड के प्राणयोग प्रक्रिया का अध्ययन कर महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले व अपने शोधग्रन्थ में प्रकाशित किये हैं। श्रीमती जे.सी. ट्रस्ट (“अणु और आत्मा” पुस्तक की लेखिका) की ही तरह उन्होंने भी प्राण सत्ता के अद्भुत प्रयोग किए व सम्मानित नागरिकों, पत्रकारों के समक्ष प्रस्तुत किए थे। एक ब्लैक बोर्ड पर खड़िया बाँधकर अपनी प्राण सत्ता सूक्ष्म शरीर के रूप में स्थूलकाया से बाहर निकालकर अनेकों प्रश्न ब्लैक बोर्ड पर हल किए। पत्रकार गुत्थियाँ देते रहे एवं खड़िया ब्लैक बोर्ड पर चलती रही। ओ.बी.ई. (आउट ऑफ बॉडी एक्सपीरियेन्स) की इस प्रक्रिया द्वारा उन्होंने यह प्रमाणित किया कि मानव शरीर मात्र वहीं तक सीमित नहीं है, जो दृश्यमान है। सूक्ष्म की सत्ता, प्राण शक्ति की क्षमता असीम अपरिमित है। इस प्रकार के कई उदाहरण ग्रन्थों में मिलते हैं।
शरीर के नियम बंधनों से मुक्त मानवी चेतना को प्रमाणित करने के लिए डॉ. थेल्मामाँस ने ऐसी कई घटनाओं का उल्लेख किया है उनमें से एक घटना सन् 1908 की है। ब्रिटेन के ‘हाउस ऑफ लार्ड्स’ का अधिवेशन चल रहा था। इस अधिवेशन में विरोधी दल ने सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखा था और उस दिन प्रस्ताव पर मत संग्रह किया जाना था। विरोधी पक्ष तगड़ा था। अतः सरकार को बचाने के लिए सत्तारुढ़ दल के सभी सदस्यों का सदन में उपस्थित होना आवश्यक था। इधर सत्तारुढ़ दल के एक प्रतिष्ठित सदस्य सर काँर्नरोश गम्भीर रूप से बीमार पड़े हुए थे। उनकी स्थिति इस लायक भी नहीं थी कि वे शैया से उठकर चल फिर भी सके। जबकि उनकी हार्दिक आकाँक्षा यह थी कि वे भी मतदान में भाग लें। उन्होंने डॉक्टरों से बहुत कहा कि उन्हें किसी प्रकार मतदान के लिए सदन में ले जाया जाय परन्तु डॉक्टर अपने कर्त्तव्य से विवश थे। आखिर उनका जाना सम्भव न हो सका। परन्तु मतदान के समय सदन में कई सदस्यों ने देखा कि सर काँनरोश अपने स्थान पर बैठे मतदान में भाग ले रहे हैं जबकि डॉक्टरों का कहना था कि वे अपने बिस्तर से हिले तक नहीं। प्रबल प्रचण्ड शक्ति ही चेतन-सत्ता को वहाँ खींच लायी थी।
एक दूसरी घटना का उल्लेख करते हुए डॉ. माँस ने लिखा है-”ब्रिटिश कोलम्बिया विधान सभा का अधिवेशन विक्टोरिया सीनेट में चल रहा था। उस समय एक विधायक चार्ल्सवुड बहुत बीमार थे, डॉक्टरों को उनके बचने की उम्मीद नहीं थी, परन्तु उनकी उत्कट इच्छा थी कि वे अधिवेशन में भाग लें। डॉक्टरों ने उन्हें बिस्तर से उठने के लिए भी मना कर दिया था और वे अपनी स्थिति से विवश बिस्तर पर लेटे थे। परन्तु सदन में सदस्यों ने देखा कि श्री चार्ल्स विधान सभा में उपस्थिति हैं। अधिवेशन की समाप्ति पर सदस्यों का जो फोटो लिया गया, उसमें चार्ल्सवुड भी विधान सभा की कार्यवाही में भाग लेने वाले सदस्यों के साथ उपस्थित थे। “यह चित्र आज भी वहाँ के म्यूजियम में सुरक्षित हैं।
जिनके प्राण समर्थ हैं, वे एक ही शरीर से कई स्थानों पर कार्य करते रह सकते हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ प्राणवान संकल्पवान व्यक्तियों के साथ घटती देखी गयी हैं। इस संबंध में शास्त्रकार का कथन है-
एषोऽग्निस्तपत्येष सूर्य एषपर्जन्यो मद्यवानष्। एष पृथिवी रयिर्देवः सदसच्चामृतं चयत्॥ प्रश्नोपनिषद् 2/5
यह प्राण ही शरीर में अग्नि रूप धारण करते तपता है यह सूर्य, मेघ, इन्द्र, वायु, पृथ्वी तथा भूत समुदाय है। सत असत तथा अमृत स्वरूप ब्रह्म भी यही है।
प्राणशक्ति की बहुलता ही मनुष्य की तेजस्विता है। उसे जितना बढ़ाया जा सके, बढ़ाना चाहिए।