अपने भाग्य का विधाता स्वयं मनुष्य

June 1987

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आत्मा और परमात्मा के बीच स्नेह सघनता का अनुग्रह, अनुकम्पा का एक ही आधार है कि उसकी नियम व्यवस्था में चला जाय। अनुशासन, अनुबंध का पालन किया जाय। इससे कम में बात नहीं बनती। व्यवहार में उद्दंडता उच्छृंखलता बरती जाय, मर्यादाओं का उल्लंघन और वर्जनाओं का व्यतिरेक किया जाता रहे और यह आशा की जाती रहे कि परमात्मा की कृपा, अनुकम्पा को किसी दूसरे पगडंडी मार्ग से हथियाया जा सकता है, तो इस मान्यता को अनधिकार चेष्टा ही समझा जाना चाहिए। ऐसी चेष्टा जिसकी पूर्ति की आशा किसी को भी नहीं करनी चाहिए।

इस सृष्टि में सर्वत्र व्यवस्था का अनुशासन है। ग्रह, नक्षत्रों से लेकर, प्राणी, पदार्थ, वनस्पति, ऋतु चक्र, जन्म मरण जैसे उपक्रम अपने ढंग से चलते हैं, अपनी धुरी पर घूमते हैं। पराक्रमी, संयमी उपार्जन करते और आलसी व्यसनी जो हस्तगत है उसे भी गँवाते चले जाते हैं। समुन्नत स्तर के महापुरुषों ने इसी आधार पर भौतिक अभ्युदय और आध्यात्मिक उत्कर्ष का लाभ कमाया है। जिनकी अवगति, दुर्गति हुई है उसका कारण भी यही रहा है कि वे अपनी जागरूकता, श्रमशीलता को सक्रिय रखने में उपेक्षा बरतते रहे। फलतः अवगति के गर्त्त में गिरे। ईश्वर किसी के साथ पक्षपात या विद्वेष नहीं बरतता। उसके लिए सभी आत्माएँ समान हैं। पुत्रवत् हैं। यदि प्यार है तो सभी से फिर द्वेष हो तो सभी से होना चाहिए। एक न्यायशील पिता जब अपने सभी बच्चों को समान स्नेह, सहयोग प्रदान करता है तो भगवान जैसे परम न्यायकारी से यह कैसे बन पड़ेगा कि किसी को उन्नति के अवसर प्रदान करता जाय और दूसरे के लिए अवगति की परिस्थिति बनाकर रख दे।

भगवान की चर्चा करने वाले अक्सर विधाता द्वारा लिखी गई कर्म रेखाओं की चर्चा करते हैं। ज्योतिषी इस संदर्भ में ग्रह नक्षत्रों का श्रेय या दोष बताते रहते हैं, पर यह दोनों ही प्रतिपादन तर्क और तथ्य की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। ब्रह्मा को क्या पड़ी कि किसी को भाग्य खोटा लिखे और किसी का खरा। यदि वह अपनी मनमर्जी से ऐसी सनक अपनाये, जिससे किसी को असाधारण लाभ मिलता रहे और किसी को बिना किसी दोष के कष्ट मिले, असफलता हाथ लगे और दुःखी होना पड़े। यदि ब्रह्मा जी ऐसी बेतुकी खिलवाड़ करते हैं तो फिर मनुष्य का उन्नति अवगति का श्रेय या दोष उन्हीं को दिया जाना चाहिए। इस अव्यवस्था का इल्जाम उन्हीं पर लगना चाहिए।

ग्रह नक्षत्रों के अनुकूल प्रतिकूल होने की बात और भी बेतुकी है। पृथ्वी से लाखों करोड़ों मील दूर रहने वाले निर्जीव ग्रह पिण्ड भला पृथ्वी के निवासी मनुष्यों को कहाँ-कहाँ ढूँढ़ते फिरेंगे। कैसे पता लगावेंगे कि कौन कब पैदा हुआ था। फिर किसी समय विशेष पर पैदा होना कोई ऐसा जुर्म नहीं है जिससे किसी को आजीवन दुःख सहने पड़ें या कोई सदा मजा उड़ाता रहे। जब मनुष्य ने ग्रहों का कोई उपकार-अपकार नहीं किया है तो फिर उन्हें ही क्या पड़ी जो किसी को गिराने, किसी को उठाने का कौतुक अकारण ही करते रहें। एक ही समय में हजारों व्यक्ति हर दिन पैदा होते हैं। पर उनमें से भी एक जैसी स्थिति में नहीं रहते। कोई उन्नत, कोई मध्यम कोई गई-गुजरी स्थिति में रहते हैं। यदि ग्रह प्रभाव ही सब कुछ रहा होता तो एक समय में जन्मे सभी मनुष्यों की एक जैसी स्थिति में रहना चाहिए था। पर ऐसा होता कहाँ है? सभी अपने-अपने ढंग से आगे बढ़ते या पीछे हटते हैं। यदि ग्रहों का ही अधिकार रहा होता तो वे विचारशील होने पर न्याय बरतते और यदि अविचारी, सनकी होते तो उन्हें ऐसा श्रेय नहीं मिलना चाहिए था कि उनका ग्रह गणित किया जाता, महत्व दिया जाता या पूजा उपचार के झंझट में पड़ा जाता। वस्तुतः ग्रह नक्षत्र निर्जीव पिण्ड हैं वे अपनी-अपनी परिधि में गतिशील रहते हैं। अपने लिए निर्धारित क्रिया चक्र को पूरा करते हैं। उनका प्रभाव यदि हो सकता है तो समूची पृथ्वी या उसके किसी क्षेत्र विशेष पर एक जैसा पड़ना चाहिए। यह कैसे हो सकता है कि मनुष्यों में से विभिन्न समयों में जन्मे लोगों के वे पीछे लगे रहे और उपहार बाँटे या हैरान करें?

जन्म कुण्डलियों में कोई अशुभ संकेत बताये जाने पर अनेकों अपने को भाग्यहीन समझते रहते और अपना मनोबल गिराते रहते हैं। मंगली बता दिये जाने पर कई लड़के या लड़कियाँ अपने को अभागा मान बैठते हैं और दाम्पत्ति सुख न पा सकने की आशंका से खिन्न रहते हैं। यही बात मूल नक्षत्रों में जन्मे बालकों के संबंध में भी है। उन पर अभिभावकों की घृणा और अकृपा बरसती रहती है। यह ग्रह गोचर किसी को कदाचित ही उत्साहवर्धक संकेत देते हों। हर किसी को किसी न किसी अनिष्ट की आशंका से चिन्तित करते रहते हैं। इसमें ज्योतिषियों की बन आती है। वे ग्रह शान्ति के बहाने, भोले भावुकों को बुरी तरह ठगते रहते हैं।

वस्तुतः मनुष्य का निजी प्रयत्न पुरुषार्थ ही उसके उत्थान, पतन का मूलभूत कारण है। जो समय और श्रम का मूल्य समझते हैं। कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक रहते हैं, अपनी सामर्थ्य को तोलते हुए कदम बढ़ाते हैं, व्यवहार में सज्जनता, मधुरता और सहयोग भावना का समुचित समावेश किये रहते हैं उन्हें प्रगति के अनेकानेक अवसर निरन्तर मिलते रहते हैं। किन्तु जो अव्यवस्थित, अस्त-व्यस्त और उद्धत जीवन जीते हैं, वे हारते और गिरते जाते हैं।

कभी-कभी इसके अपवाद भी देखे जाते हैं। कभी अंधे के हाथ बटेर लग जाती है तो कभी सुव्यवस्थित लोग भी मात खा जाते हैं। इसमें प्रधान कारण संयोग ही होता है। परिस्थितियों और क्रियाओं का तालमेल कुछ ऐसा बैठ जाता है जिसमें सहज स्वाभाविक प्रतिफल के स्थान पर उलटे परिणाम सामने आते हैं। अप्रत्याशित लाभ मिल गया तो उसे संयोग ही कहना चाहिए, और यदि घाटा हुआ तो उसे अपने क्रिया-कलापों में कही भूल रहना अथवा परिस्थितियों का उलटा-सीधा मोड़ ले लेना भी कारण समझा जा सकता है प्रकृति की प्रतिकूलता भी अकाल, बाढ़, सूखा, भूकम्प, महामारी आदि के रूप में टूट सकती है। इस प्रकृति प्रतिकूलता के पीछे भी मनुष्यों द्वारा अपनाई गई दुष्प्रवृत्तियाँ ही प्रधान कारण हो सकती है।

जिनका समाधान अपने कर्त्तव्य के साथ नहीं जुड़ता उन यदा-कदा आ धमकने वाले अपवादों के संबंध में यह समझा जा सकता है। कि यह अपने किसी पूर्व जन्मों के किये गये कृत्यों का परिणाम हो सकता है। आमतौर से दूध जिस दिन दुहा जाता है उसी दिन उसका उपयोग हो जाता है। पर कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बच जाने पर उसे जमा देते हैं। दूसरे दिन उसका नाम, रूप, स्वाद, गुण सभी बदल जाता है। पूर्व संचित कर्म इस जन्म में प्रारब्ध होकर प्रकट हो सकते हैं। वे अप्रत्याशित होते हैं और तात्कालिक क्रिया-कलाप के साथ उनकी संगति नहीं बैठती। ऐसी दशा में यह कहा जा सकता है कि किसी पूर्वकृत कर्म का उदय हुआ है। इसमें भी श्रेय या दोष अपना ही होता है, क्योंकि संचित कर्म भी तो अपने ही किये हुए थे।

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। इस उक्ति में कुछ अपवादों को छोड़कर 99 प्रतिशत सच्चाई है। यदि हम अपने आपको सुव्यवस्थित रखें और सही मार्ग अपनायें तो प्रगति का द्वारा खुला हुआ ही मिलेगा। अपने भाग्य और भविष्य का निर्माण हम अपने वर्तमान का सदुपयोग करके स्वयं ही करते हैं।


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