खो रही हो कहो, किस खनक में यहाँ? बह रही किस हवा की सनक में यहाँ,
देह के साज-श्रृंगार में होड़ ले- सो गयी हो, रजत में कनक में यहाँ
शील परिधान, भूषण गुणों के भुला- सौम्य रूपे, कहीं छवि सँवरती नहीं।
आसुरी चाह में आह भरते हुये। जी रही जिन्दगी, आज मरते हुये।
रेत की राह पर पाँव चलते चले- डूबती साँस है, सिन्धु तरते हुये।
हाथ पतवार की दूरियाँ बढ़ रहीं- डूबती इस तरह, नाव तरती नहीं।
शक्ति को कौन दे? शक्ति! बोलो तुम्हीं। तृप्ति को कौन दे? तृप्ति! बोलो तुम्हीं।
चेतना, प्रेरणा, भावना हो तुम्हीं। प्रीति को कौन दे मुक्ति बोलो तुम्हीं।
तुम संवारो सुधारो नहीं सृष्टि को- तो किसी और से ये सुधरती नहीं।
*समाप्त*