यह दलाली कोई घाटे का सौदा नहीं

June 1987

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किसी को माल, जीन्स, मकान इत्यादि खरीदना हो, पर उसे यह विदित न हो कि यह असबाब कहाँ से मिलेगा, तो वह कुछ कर नहीं पाता, दूसरी ओर ऐसा भी होता है कि विक्रय के लिये सामान के ढेर लगे होते हैं, पर उसका मालिक यह नहीं जानता कि इसके खरीददार कौन हैं? कहाँ हैं? महँगा या सस्ता किस में लेने में मूड़ में हैं? दोनों अपने-अपने प्रयोजन की पूर्ति के लिए बेचैन होते हैं, पर खोज के लिए निकल पड़ना और अपने मतलब का आदमी ढूंढ़ निकालना बन नहीं पड़ता। किसी दशा में दोनों को हैरानी असाधारण रहती है। जिसके पास ढेरों जमा है, वह उसका ठीक उपयोग नहीं कर पाता, फलतः वह बर्बाद होता चला जाता है। दूसरी ओर जरूरतमंद मिलने के स्थान से अपरिचित होने के कारण अभावग्रस्त स्थिति में रहता और कष्ट उठाता है। दोनों के बीच अभीष्ट जानकारी का आदान-प्रदान न हो पाने के कारण संबंधित व्यक्तियों की निजी हानि तो होती ही है, ऐसे सुयोग न बन पाने के कारण वे मन मार कर बैठे रहते हैं। यह गतिरोध अनेकों के लिए अनेक प्रकार हानिकारक एवं कष्टदायक होता है।

इस महती असुविधा को दूर करने एवं आवश्यकता को पूरी करने के लिए एक वर्ग उभरता है जिसे बोलचाल की भाषा में दलाल या “ब्रोकर” कहते हैं। उनका कार्य आवश्यक जानकारियों का संचय करके जरूरत मंदों के साथ संपर्क बनाना और संचय करके जरूरत मंदों के साथ संपर्क बनाना और उनकी अभीष्ट आवश्यकता पूरी करना होता है। वे अपने क्षेत्र की खोज करते रहते हैं और विक्रेता खरीददारों के बीच तालमेल मिलाते हैं और सौदा करा देने तक उस प्रयास में लगे रहते हैं। इसमें उस मध्यवर्ती का अपना भी लाभ है। उसे दलाली का कमीशन मिलता है और उतने भर में अपना गुजारा वह मजे में कर लेता है। कई बार तो वह विक्रेता या ग्राहक से भी अधिक नफे में रहता है। उसे कृषि करने, व्यवसाय में पूँजी लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। हेरा-फेरी का कमीशन ही इतना हो जाता है जितना कि घोर परिश्रम करने वाला उत्पादक या लम्बी पूँजी कमाने वाला ग्राहक कमा पाता है। वस्तुस्थिति को देखते हुए दलाली का धंधा बेजोखिम का और भाग दौड़ के अनुपात में कहीं अधिक मुनाफा प्रदान करने वाला समझा जाता है।

नदी के एक किनारे पर खड़ा हुआ व्यक्ति चौड़ी एवं तेजधार को पार करना चाहता है। दूसरे किनारे पर उसकी प्रतीक्षा भी है और आवश्यकता भी। पर पार कैसे हुआ जाय? उसे तैरना तो आता नहीं। इस समस्या का समाधान नाव वाला करता है। वह उसे अपनी डोंगी में बिठाकर पार करता है। इसके बदले उसे उचित पारिश्रमिक मिल जाता है। इस प्रयास को दलाली भी कहा जा सकता है।

प्रसिद्ध है कि कहीं उगे मेंहदी के पत्ते तोड़कर किसी हाथ रचाने वाले के लिए कोई उन पत्तों की पिसाई कर देता है। मेंहदी कहीं की और रचाने पर शोभा बनी किसी की, पर पीसने वाले के हाथ मुनाफे में ही लाल हो जाते हैं। इत्र का व्यवसाय करने वाले भी अपने कपड़ों को इतना महका लेते हैं जैसा कि वे बहुत खर्च करने पर ही कर सकते थे। इत्र की दलाली में उन्हें सुवासित होने का सहज अवसर मिलता है।

समुद्र में अथाह जल भरा पड़ा है वह दौड़कर प्यासे भूखण्डों तक नहीं पहुँच सकता। जिन्हें पानी की जरूरत है वे भी उसे प्राप्त करने के लिए समुद्र या सरोवर तक पहुँचने की लम्बी यात्रा नहीं कर सकते। यह कार्य बादल करते हैं। यद्यपि जल राशि उनकी निजी नहीं होती। वे परिवहन मात्र ही करते हैं। इधर से समेटने उधर बखेरने भर की क्रिया उन्हें करनी पड़ती है, किन्तु इतने भर से उन्हें असाधारण श्रेय मिलता है। उठती मेघमालाओं को देखकर लोग फूले नहीं समाते। मोर नाचते और पपीहे कूजते हैं। धरती हरा मखमली फर्श बिछाकर उन्हें निरन्तर बरसते रहने के लिये अपना प्रसन्नता भरा आमंत्रण भेजती रहती है। इस भाप के गट्ठर को कोई इन्द्र की सेना कहता है। कोई वरुण देवता का प्रतिनिधि। दलाली में उन्हें जो श्रेय और पुण्य मिलता है, उसे निश्चय ही असाधारण कहा और महत्वपूर्ण समझा जा सकता है। बीमा कम्पनियों के ऐजेन्ट यही काम करते हैं। कम्पनी और पॉलिसी होल्डरों का संबंध जोड़ने का काम वे करते हैं। विवाह शादी कराने में पिछले दिनों नाई-पुरोहित कारगर भूमिका निभाते थे। बदले में जो सम्मान और उपहार मिलता था, वह उससे कहीं अधिक होता था जितना कि यदि वे श्रमिक की तरह मजूरी करने पर कमा पाते। बीमा ऐजेन्ट भी घर से खाली हाथ ही निकलते हैं पर जरूरतमंदों की आवश्यकताएँ पूरी करने पर वे साधारण मजूरों की तुलना में कहीं अधिक-कई गुनी कमाई करते रहते हैं।

अध्यात्म क्षेत्र परमार्थ क्षेत्र में भी इस प्रक्रिया के लिए भारी माँग रहती है और जो उसे कर पाते हैं वे उपकारियों और उपकृतों की तुलना में कम नफे में नहीं रहते। दानी को प्रोत्साहित करने, उसे अभावग्रस्तों के लिए उदार अनुदान देने के लिए तैयार कर देने पर दोनों पक्षों को लाभ मिलता है। दाता को पुण्य, संतोष और यश मिलता है। पाने वाला अपनी व्यथा कठिनाई में राहत पाकर दुआएँ देता है। दोनों का लाभ स्पष्ट है। पर जिसने इन दोनों पक्षों को एक दूसरे से परिचित कराया और प्रोत्साहन भरी प्रेरणा देकर सुयोग बनाया, उस मध्यवर्ती को भी कम श्रेय नहीं जाता। कुछ प्रत्यक्ष देने की, लेने की बात नहीं बनी पर उस मध्यवर्ती की अप्रत्यक्ष भूमिका असाधारण समझी जायगी और उसे भी उसका पुण्य यश तथा श्रेय बड़ी मात्रा में मिलता हुआ समझा जाता है।

ज्ञान और तप के क्षेत्र में भी ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिनके पास सामर्थ्य के भण्डार भरे पड़े हैं। पर वे अपने गहरे अन्वेषण में इतने अधिक व्यस्त रहते हैं कि लाभ उठाने वालों की उत्सुकता तथा चेष्टा बढ़ाने के लिए कुछ वैसा नहीं कर पाते जैसा कि विज्ञापनकर्त्ता कर लेते हैं। दूसरी और जिज्ञासुओं, श्रेयार्थियों की भी ऐसी बड़ी मंडली होती है जो उत्सुकता तो दबा नहीं पाती और आतुरतावश ऐसों के जाल जंजाल में जा फँसती है, जिनके पास आडम्बर और प्रपंच के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता जिनके पास ज्ञान है तप है, प्रतिभा है, सूझ है उन्हें निजी प्रयोजनों में से बचा कर जन-कल्याण के लिए लगाने के लिए सहमत करना भी एक बड़ा काम है। इसी प्रकार जिनमें जिज्ञासा नहीं है, परमार्थ के लिए आत्म प्रगति के लिए उत्कंठा नहीं है उन्हें भी तथाकथित व्यस्तता से उदासी उपेक्षा से निकाल कर महामानवों के पथ पर चलने के लिए उत्साहित करना भी विश्व कल्याण की दिशा में असाधारण पग बढ़ाना है। इसके लिए मध्यस्थों की भूमिका को दाता और ग्रहीता से कम नहीं वरन् अधिक ही बढ़ा चढ़ा माना जायगा। पुरोहित, धर्म प्रचारक, परमार्थ पारायण उदारमना लोग इसी श्रेणी में आते व अगणित व्यक्तियों को धर्म धारणा का पक्षधर बनाते हैं। इसके लिए स्वयं उन्हें पहले अपने को रंगना पड़ता है। कथनी-करनी एक करनी होती है। तब मध्यस्थ रूप में निभाई गई उनकी भूमिका सार्थक होती देखी जाती है।


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