उन दिनों धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए दान करने की प्रतिस्पर्धा समर्थों के बीच चल रही थी। तथागत ने लेखाध्यक्ष से पूछा इस वर्ष सबसे बड़ी राशि किसने प्रदान की।
कोष पुस्तिका देखकर उनने बताया कि इस वर्ष के अनाथ पिण्डर सबसे बड़े दानी हैं उन्होंने सौ करोड़ मुद्राएँ संघाराम के लिए भेजी हैं।
सम्राट अशोक उस सभा में मौजूद था। सोचने लगे जब सामान्य श्रेष्ठि इतना कर सकता है तो वे ही क्यों पीछे रहें? उनने घोषणा की कि जो राज्यकोष में है सो अभी और शेष क्रमशः भेजते हुए वे भी सौ करोड़ मुद्राएँ दान करेंगे।
क्रम चल पड़ा राज्य कोष में जितना जुड़ता उतना संघाराम में पहुँच जाता।
लम्बा समय बीता अशोक का आयुष्य पूरा हो चला रुग्ण शरीर मृत्यु के दिन गिन रहा था उनने कोषाध्यक्ष को बुलाया और पूछा-”संघाराम राशि”-संघाराम पहुँची या नहीं लेखा देखकर उनने बताया अभी 16 करोड़ ही पहुँची है चार करोड़ देने बाकी हैं।
समय निकट आया देखकर अशोक ने अपने निजी प्रयोग के सभी पात्र उपकरण भेज दिए और स्वयम् मृत्तिका पात्रों में खाने और भूमि पर सोने लगे। इतने पर भी राशि पूरी न हुई और मृत्यु का निमंत्रण आ पहुँचा।
अशोक ने चारों ओर दृष्टि पसारी। जो शेष हो उसे भी भेजा जाय। देखा तो सिरहाने आज के आहार को एक सूखा आँवला सामने था। उन्होंने उसे उठाया और बुद्ध बिहार भेजते हुए कहा जो शेष था भेज रहा हूँ। इसी से ............. पूर्ण कर लिया जाय।
सूखा आँवला पीसकर उस दिन के महाप्रसाद में मिला दिया गया। घोषित किया गया कि सर्वमेध की यह पूर्णाहुति दान सम्पदा में सर्वश्रेष्ठ मानी जाय।