व्यक्तित्व के विकास का उद्गम केन्द्र

June 1987

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व्यक्तित्व के विकास के मूल में जिन तथ्यों का समाहित माना जाता है, उनमें से एक है-शरीर में जीवनी शक्ति का प्रकटीकरण, प्राण ऊर्जा का उभार। व्यक्तित्व का मूल्यांकन सामान्यतया शरीर की सुडौलता, सुन्दर चेहरे से किया जाता है, पर यह मान्यता भ्राँति युक्त है। यदि मनुष्य काला व कुरूप भी है किन्तु आहार-विहार का संतुलन कर आरोग्य रक्षा में निरत रहता है तो ऐसा निरोग मनुष्य भी प्रभावोत्पादक व्यक्तित्व का स्वामी होता देखा जाता है। जबकि चेहरे–मुहरे से सुन्दर व्यक्ति रोगग्रस्त, उदास, निस्तेज, आलसी होने पर मरा-गिरा-सा, टूटा हुआ प्रतीत होता है।

आशा और उमंग से मन भरा हो, उत्साह और साहस स्वभाव का अंग हो, हँसने-मुस्कुराने की आदत हो तो व्यक्ति की आकृति-प्रकृति आकर्षक हो जाती है। ऐसे व्यक्ति की बनावट भले ही कुरूप हो, वह सहज ही सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेता है एवं जहाँ जाता है, अपनी उपस्थिति से वातावरण प्रभावशाली बना देता है। अब्राहम लिंकन, सुकरात, महात्मा गाँधी आदि का बाह्य स्वरूप सुन्दर नहीं कहा जा सकता किन्तु उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व को, मनस्विता को, अंग-अंग से फूटने वाले तेजस् को कोई नकार नहीं सकता।

वस्तुतः हमारा चेहरा मनःस्थिति का प्रतिबिम्ब है। आँखों की खिड़की से भीतर की स्थिति झाँकती व उस क्षेत्र का भला-बुरा विवरण दर्शकों को बिना बोले ही बताती रहती है। प्रकृति ने कुछ ऐसी व्यवस्था की है जिससे व्यक्ति की भाव-भंगिमा, शिष्टता, कार्य पद्धति को देखते ही यह पता लग सके कि वह कितना पानी में है। शरीर बाह्य परिकर प्रभावोत्पादक हो इसके लिए शरीर और मन को इस प्रकार ढाला जाना चाहिए कि वह सौंदर्य, सज्जा, शिक्षा आदि के अभाव में भी अपनी विशिष्टता का परिचय दे सके।

शालीनता वह दूसरी शर्त है जो व्यक्तित्व को वजनदार बनाती है। इसी सत्प्रवृत्ति को सज्जनता, शिष्टता, सुसंस्कारिता आदि नामों से पुकारा जाता है। गुण,कर्म, स्वभाव में गहराई तक घुली यह विशिष्टता पास बैठने वाले को थोड़ी देर में बता देती है कि सामने वाले का बचकानापन किस मात्रा में घट गया और वजनदार व्यक्तित्वों में पायी जाने वाली विशेषताओं का कितना उद्भव समावेश हो गया।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुँग ने अन्तःकरण की ऊर्जा-”लिबिडो” को अपने शब्दों में प्रतिपादित करते हुए कहा है कि “न जाने क्यों यह तथ्य बुद्धिमानों के गले नहीं उतरता कि वे मस्तिष्कीय चमत्कारों की तुलना में कहीं अधिक विभूतियाँ अपनी अन्तः चेतना को विकसित करते हुए हस्तगत कर सकते हैं। “स्व” को यदि उच्चस्तरीय बनाया जा सके तो फिर “पर” के प्रति न कोई शिकायत रहेगी; न कोई आशा-अपेक्षा ही रखनी होगी।”

यह कथन व्यक्ति के व्यापक सर्वांगपूर्ण विकास की चर्चा करते समय काफी महत्व रखता है। यहाँ उनका संकेत है कि हमें एक विशेष बात का ध्यान रखना होगा कि आत्मिक क्षेत्र की सबसे बड़ी प्यास घनिष्ठ आत्मीयता की है, जिसे व्यवहार में सद्भाव सम्पन्न मैत्री कहते हैं। पुरातन भाषा में इसी को अमृत कहते थे। मैत्री परिकर भी बढ़ना चाहिए व वातावरण भी बनना चाहिए। किन्तु वैसी न हो जैसी कि आजकल मित्र बनकर शत्रुता का आचरण करने की विभीषिका बन कर उस पुनीत शब्द को बदनाम कर रही है।

इन दिनों वैभव को सर्वोपरि मान्यता मिली है। फलतः सम्पदा का संचय और प्रदर्शन जनसाधारण की आकाँक्षा व तत्परता का केन्द्र बन गया है। इसी को ललक-लिप्सा में आपाधापी और छीना-झपटी की दुष्प्रवृत्तियाँ पनपी हैं। फलतः विपन्नताएँ बदली चली गई। अगले दिनों यह प्रवाह उलटना होगा तथा लोकचेतना को यह सोचने पर सहमत करना होगा कि वह आदर्शों की ओर चले, उसके लिये अन्तःकरण टटोले और अंतःप्रेरणा से ही मार्गदर्शन प्राप्त करे।

आरम्भिक जीवन की ग्रहण संवेदनशीलता के अतिरिक्त व्यक्तित्व निर्माण का एक बड़ा कारण यह भी होता है कि बालक को माता के शरीर का रस मात्र ही नहीं मिलता, वरन् उसकी मानसिक संरचना भी उस नव निर्मित प्राणी को उपलब्ध होती और ढाँचे को अंग बनती है। यहाँ एक बात विशेष रूप से प्रभावित करने में भावनात्मक घनिष्ठता सर्वोपरि भूमिका निभाती है। माता की बच्चे के प्रति जो संवेदनात्मक घनिष्ठता होती है, वह आदान-प्रदान का समर्थ माध्यम बनती है। माता के द्वारा वह न केवल पोषक पदार्थ प्राप्त करता है न केवल सुविधा, सुरक्षा के अनुदान उपलब्ध करता है, वरन् इन सबसे बड़ी वस्तु स्नेह दुलार का वह रसायन भी प्राप्त करता है जिसके सहारे गहन स्तर के आदान-प्रदान बन पड़ते हैं। माता-पिता तथा अन्य अभिभावक जो बालक के साथ जितनी भावनात्मक घनिष्ठता एवं सहानुभूति जोड़े रहते हैं। उसे बिना माँगे ही बहुत कुछ गले उतारते रहते हैं।

बालकों का यह उदाहरण यहाँ इसलिए दिया जा रहा है कि घनिष्ठता, समीपता एवं भावनात्मक आत्मीयता के उस दुहरे प्रभाव को समझा जा सके, जिसमें न केवल सान्निध्य, सुख एवं सहयोग मिलता है वरन् अन्तरंग विशेषताओं के आदान-प्रदान का भी द्वार खुलता है। यहाँ मैत्री की ओर संकेत किया गया है। मैत्री किसी भी कारण बनी या बढ़ी क्यों न हो, यदि वह गहराई तक पहुँची एवं आत्मीयता तक विकसित हुई है तो फिर उसका ऐसा प्रभाव भी होना ही चाहिए कि एक पक्ष दूसरे को, विशेषतया सबल-दुर्बल को प्रभावित कर सके।

यह तथ्य इस निष्कर्ष पर पहुँचाते हैं कि व्यक्ति को यदि उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करना अभीष्ट हो तो उसके लिये शिक्षण के साथ-साथ आत्मीयता का गहरा सम्पुट लगाने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। विकृत व्यक्तित्वों को संतुलित एवं समुन्नत बनाने में स्नेह-दुलार की उपलब्धि इतनी बड़ी औषधि है, जिसकी तुलना में अन्य कोई उपाय-उपचार कारगर नहीं होते देखा गया। प्यार की प्यास हर किसी को रहती है और वह समुचित परिमाण में किसी भाग्यवान को मिल सके तो समझना चाहिए कि व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास हेतु एक प्रभावशाली साधन जुट गया।

प्रतिभा की विलक्षणताएँ अनेकों सफलताओं का निमित्त साधन बनती हैं किन्तु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह मात्र वंशानुक्रम, सान्निध्य, साधन-शिक्षण आदि बाहरी प्रभाव अनुदानों से ही पूर्णरूपेण हस्तगत नहीं होती। ऐसी बात होती तो मनुष्य को सचेतन कहते हुए भी परिस्थितियों का दास कहना पड़ता। यह तो भाग्य-प्रारब्ध से भी बुरी बात होती। यदि परिस्थितियाँ ही किसी के भले बुरे बनने का आधार रही होती तो किसी को श्रेय या दोष न देकर उन साधनों को ही सराहा या कोसा जाता जिन्होंने उत्थान या पतन में भूमिका निभाई।

चरित्र मनुष्य की मौलिक विशेषता एवं उसका निजी उत्पादन है। इसमें इसके निजी दृष्टिकोण, निश्चय, संकल्प एवं साहस का पुट अधिक होता है। इसमें बाह्य परिस्थितियों का यत्किंचित् योगदान ही रहता है। असंख्यों ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जिनमें लंका जैसे विषाक्त वातावरण में विभीषण जैसे संत अपने बलबूते समूची प्रतिकूलताओं को चुनौती देते हुए अपने स्थान पर अटल बने रहे। ऐसे भी कम नहीं, जिनमें पुलस्त्य ऋषि के देवपरिकर में रावण जैसे अनाचारी का प्रादुर्भाव हुआ और उसने वातावरण को ताक पर उठाकर रख दिया।

यह व्यक्तिगत चरित्र ही है जो व्यक्ति अपने बलबूते विनिर्मित करता है। परिस्थितियाँ सामान्य स्तर के लोगों पर ही हावी होती है। जिनमें मौलिक विशेषता है, वे नदी के प्रवाह से ठीक उलटी दिशा में मछली की तरह अपनी पूँछ के बल पर छर–छराते चल सकते हैं। निजी पुरुषार्थ एवं अन्तःशक्ति को प्रसुप्त को उभारते हुए साहसी व्यक्ति अपने को प्रभावशाली बनाते व व्यक्तित्व के बल पर जन–सम्मान जीतते देख गए हैं। यह उनके चिन्तन की उत्कृष्टता, चरित्र की श्रेष्ठता एवं अन्तराल की विशालता के रूप में विकसित व्यक्तित्व की ही परिणति है। जिसे भी इस दिशा में आगे बढ़ना हो, इसके लिए यही एक मात्र राजमार्ग है। इसके लिये किसी शार्टकट का किसी रूप में प्रावधान नहीं है। यह एक शाश्वत निर्धारित सिद्धान्त है, जिसे हर स्थिति में स्वीकार किया जाना चाहिए।


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