वनौषधियाँ चमत्कार क्यों नहीं दिखातीं?

June 1987

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अन्य जीवधारियों की तरह वनस्पतियाँ भी सजीव होती हैं। अन्तर इतना ही है कि वे चलने फिरने वाले प्राणियों की तरह विचार व्यवहार करने में इन्द्रियों का विकास न होने से समर्थ नहीं हो पाती। फिर भी उनके कलेवर में उच्च स्तरीय संरचना का प्रमाण परिचय मिलता है, यदि ऐसा न होता तो उन्हें खाकर प्रायः सभी जीवधारी अपने लिए पोषण किस प्रकार प्राप्त करते? शरीरधारी अपनी जीवनी शक्ति वनस्पतियों से ही प्राप्त करते हैं। यहाँ तक कि माँसाहारी प्राणी भी उन्हीं का माँस खाते हैं जो शाकाहार पर निर्भर रहते हैं। वनस्पतियों से पेट भरते हैं।

सामान्य आहार में घास स्तर की वनस्पतियाँ काम आती हैं। पेड़ों के पत्ते भी काम दे जाते हैं। किन्तु विशिष्ट गुण दोषों से सम्पन्न वनस्पतियों की संरचना इस प्रकार हुई है कि उनकी गंध तथा स्वाद प्राणियों के खाने के काम न आ सकें। वे बची रहें और उस प्रयोजन की पूर्ति करें जिसके लिए प्रकृति ने उन्हें विनिर्मित किया है। हानिकारक विषाक्त पौधे भी प्राणियों के काम नहीं आते। वे सड़-गल कर खाद बन जाते हैं। किन्तु मनुष्य अपनी बुद्धिमत्ता एवं शोध प्रक्रिया के सहारे उनका सदुपयोग कर लेता है। आधि-व्याधि निवारण एवं शक्ति संवर्धन के लिए विभिन्न उपाय उपचारों के सहारे प्रयोग कर लेता है। इसी समुदाय को वनस्पति वर्ग, वनौषधि के नाम से जाना जाता है और विभिन्न प्रयोजनों के लिए उनका उपयोग किया जाता है।

व्याधि निवारण की बात सामान्य चिकित्सकों को भी विदित है। वे जड़ी बूटियों के सहारे विभिन्न रोगों का इलाज भी करते हैं। उनमें से जो पौष्टिक हैं उनका प्रयोग बलवर्धन के लिए किया जाता है। इस प्रकार उनके शामक और संवर्धक गुणों का उपयोग विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार से होता रहता है। यदि सही वस्तु का सही रीति से उपयोग किया जाय तो उसका उत्साहवर्धक प्रतिफल उपलब्ध होना भी सुनिश्चित है।

किन्तु इस संबंध में भारी घपला यह चल पड़ा है कि न तो सही वनस्पतियाँ मिलती हैं और न उसका उपयोग सही प्रकार बन पड़ता है। सही वस्तु होने से तात्पर्य यह है कि जिन औषधियों का उपयोग किया जाता है उनमें वे गुण होने चाहिए जो देखे समझे और माने गये हैं। भूमि और जलवायु का, क्षेत्र का, वीर्य कालावधि का अपना प्रभाव होता हैं। वहाँ की अन्य वस्तुओं की तरह वनस्पतियाँ भी प्रभावित होती हैं। नागपुरी संतरे, भुसावली केले, लखनवी आम प्रसिद्ध हैं। उन्हें अन्यत्र उगाया जाय तो वह स्वाद एवं गुण न मिलेगा। वनस्पतियों के भी अपने क्षेत्र हैं। चंदन अपने सीमित क्षेत्र में ही अभीष्ट सुगंध देता है। उसे अन्यत्र बोया उगाया तो जा सकता है, पर मलयागिरी जैसी सुगंध होने की आशा नहीं की जा सकती। गंगा के उद्गम से एक सीमित दूरी तक ब्राह्मी अपने असली रूप में मिलती है। उसमें वर्णित सारे गुण भी पाये जाते हैं। पर जैसे-जैसे दूरी बढ़ती है। वैसे-वैसे उसकी आकृति और प्रकृति में अन्तर होता जाता है। नहरों के किनारे पहुँचते-पहुँचते वह मण्डूकपर्णी बन जाती है। इस अन्तर को न समझने वाले प्रायः सुगमता पूर्वक मिलने वाली मण्डूकपर्णी का ही ब्राह्मी के स्थान पर प्रयोग करते हैं। संरचना में घटियापन रहने से उसका वह प्रभाव नहीं होता जो होना चाहिए।

एक-सी मिलती जुलती सकल सूरत की अनेक वनस्पतियाँ होती हैं। जंगलों से खोद कर लाने वाले मजूर भी उस अन्तर को नहीं समझते, फिर खरीदने वाले पंसारी तो सूखने मुरझाने पर उनकी वास्तविकता, अवास्तविकता को पहचान ही क्या पायेंगे? फिर सब को कम परिश्रम में अधिक लाभ कमाने की धुन चढ़ी रहती है। असली वस्तुएँ कम मिलती हैं। कूड़ा कचरा मिली नकली अधिक। असली रत्न कम मिलते हैं। काँच के नगीने अधिक। इसी प्रकार उपयुक्त वनस्पतियाँ यत्र–तत्र ही पाई जाती हैं। संजीवनी बूटी लाने के लिए हनुमान को हिमालय जाना पड़ा था। वह लंका के इर्द-गिर्द नहीं उगती थी। यदि कोई जहाँ-तहाँ से हर बूटी को खोजने का प्रयत्न करेगा, क्षेत्र की विशेषता न समझेगा और असली नकली के बीच रहने वाले सूक्ष्म भेद की जानकारी न रखेगा तो बात बढ़ते-बढ़ते वहाँ पहुँचेगी कि असली से मिलती जुलती शक्ल की दूसरी वनस्पति बटोर ली जायगी। उसी को असली के स्थान पर दिया जाने लगेगा। इससे खोदने वालों और बेचने वालों को तो लाभ मिलेगा पर उन प्रयोक्ताओं का हित साधन न हो सकेगा जो अभीष्ट काम की आशा लगाये बैठे हैं।

पंसारियों की दुकानों पर ऐसी ही नकली, मिलावटी वस्तुओं की भरमार रहती है। उनसे लेकर चूर्ण गोली अवलेह, अर्क आदि बनाने वाले औषधि निर्माता भी बारीकी से जाँच पड़ताल करने के झंझट में नहीं पड़ते। पर्चा लिखकर पंसारी की दुकान से वस्तुएँ मँगा लेते हैं, उन्हीं का कूट छानकर इच्छित औषधि बना लेते हैं। इसी को रोगी को सेवन कराते हैं। गुणविहीन होने के कारण वे वैसा लाभ नहीं दे सकतीं जैसा कि देना चाहिए।

इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह है कि वनौषधियाँ परिपक्व स्थिति में ही समग्र गुणों से अभिपूरित होती हैं। उन्हें यदि कच्ची स्थिति में उखाड़ लिया जाय या सूख जाने के उपरान्त बहुत समय बाद लिया जाय तो या तो उनमें अभीष्ट रसायन भरे ही न होंगे या सूख जाने पर धूप या हवा से निःस्वत्व हो गये होंगे। परिपक्व स्थिति में भी उन्हें सुरक्षित रखने की एक सीमित अवधि है। यह आमतौर से छः महीने तक की मानी गई है। एक वर्षा ऋतु उतर जाने के बाद तो वे अपनी स्वतः सारी विशेषताएँ खो बैठती हैं। किन्तु देखा गया है कि पंसारियों के गोदामों में वे दसियों वर्ष पुरानी भरी रहती हैं और जब तक बिक नहीं जाती, रखी ही रहती है।

इस संबंध में ऐलोपैथी वाले अधिक जागरूक और ईमानदार हैं कि संश्लेषित एवं प्राकृतिक सभी औषधियों पर उनके गुण समाप्त हो जाने की तिथि छाप देते हैं। समय बीतने के बाद उन्हें फेंक दिया जाता है। उपयोग में नहीं लाया जाता है। पर अपने यहाँ तो काष्ठ औषधियाँ चिरकाल तक काम देती रहती हैं। इस संदर्भ में बटोरने वाले, खरीदने वाले, फार्मेसी वाले, विक्रेता, चिकित्सक सभी प्रमाद बरतते हैं। अन्त में स्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है कि गुणों की दृष्टि से वे लकड़ी का बुरादा मात्र रह जाती हैं। उनसे आशाजनक परिणाम मिलने की अपेक्षा कैसे की जाय? दोष होता है मध्यवर्ती लोगों का, बदनाम होती है समूची पद्धति। ऐसी दशा में यदि न पर से विश्वास उठता है-अप्रामाणिक समझा जाता है तो उसमें आश्चर्य की बात भी क्या है?

वनौषधियों के सेवन का सही तरीका यह है कि उन्हें हर स्थिति में ही कल्क रूप में चटनी या ठंडाई के रूप में सेवन किया जाय। सुखाये जाने पर क्वाथ बड़ा कर लिया जाय। पर यदि हर मौसम में उनके न मिलने की कठिनाई को ध्यान में रखते हुए सुरक्षित रखना हो तो यह सावधानी रखनी चाहिए कि उन्हें छाया में सुखाया जाय। कड़ी धूप और तेज हवा के कारण उनके गुणों को घटा देने का खतरा न उठाया जाय। जहाँ तक पीसने की आवश्यकता का संबंध है वहाँ यह ध्यान रखा जाय कि अधिक से अधिक बारीक पीस कर उनके कणों को सूक्ष्म किया जाय, जिनमें स्वरस की अथवा अन्य वनस्पतियों की भावना देने का उल्लेख है उन्हें उस प्रक्रिया को पूरी करते हुए निर्धारित समय तक लगातार घुटाई की जाय इससे उनकी सूक्ष्म शक्ति उभरती है। होम्योपैथी दवाओं के निर्माता, डीशेन पद्धति वाले इस तथ्य पर पूरा ध्यान देते हैं। इसलिए उनकी दवायें द्रव्य की दृष्टि से स्वल्प मात्रा में होते हुए भी गुणों की दृष्टि से बढ़ी चढ़ी होती है।

यदि वनौषधियों की क्षमता को जीवित रखना है, आयुर्वेद की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण बनाये रहना है तो आवश्यक है कि उसमें प्रयुक्त होने वाली जड़ी बूटियों की प्रामाणिकता पर आँच न आने दी जाय। भले ही इसमें अधिक समय श्रम लगाना पड़े या अधिक खर्च करना पड़े। शुद्ध और गुणकारी वस्तुएँ कुछ महंगी लेने में भी लोगों को आपत्ति नहीं हो सकती, पर गुणहीन वस्तु तो सस्ती होने पर भी भ्रामक एवं महँगी पड़ती है। इतना ही नहीं गुणहीन निर्माण के प्रति सेवनकर्ताओं के मन में अश्रद्धा, असंतोष उत्पन्न करती हैं और विधा विज्ञापित होकर दूसरों के लिए ही उपेक्षा की पृष्ठभूमि बनाती हैं। जब तक इस प्रचलित अन्धेर में जड़ मूल से सुधार न किया जाय तब तक आयुर्वेद को वह श्रेय न मिल सकेगा, जिसका वह अधिकारी है।

इस हेतु आयुर्वेद प्रेमियों को विशेषतया औषधियों के निर्माता, विक्रेताओं को यह प्रबंध करना चाहिए कि नकली या सड़ी गली वस्तुओं का प्रयोग न किया जाय। इसके लिए अपना दोष दूसरों पर टालते रहने की अपेक्षा यही उचित है कि दावेदारों को समूची प्रक्रिया अपने संरक्षण में चलाने का दायित्व उठाया जाय।

इस निमित्त अन्न, शाक आदि के उत्पादन की तरह वनौषधि फार्म बनाये जायँ और उनमें प्रामाणिक वस्तुएँ उगाई जायँ। उन्हें सुरक्षित रहने के लिये कोल्ड स्टोरेज का उपयोग किया जाय। यदि किसी स्थिति में रखा जाना है तो फिर उनकी निर्धारित अवधि समाप्त हो जाने पर फेंक देने में भी लोभ को आड़े न आने दिया जाय। कितनी ही औषधियाँ ऐसी हैं जो विशेष भूमि या जलवायु में ही उत्पन्न होती हैं। उनका उत्पादन उसी क्षेत्र में किया या कराया जाय। बटोरने वाले यह ध्यान रखें की उनकी जड़ें नष्ट न करें। पकने पर उनके बीज धरती पर बिखरने दें ताकि उनकी उत्पत्ति का सिलसिला आगे भी चलता रहे। अन्यथा एक बार में ही उनका पूरी तरह सफाया कर देने से अगले वर्ष उगने की सम्भावना न रहेगी। सच तो यह है कि उत्पादन चाहे खेतों में हो या जंगलों में, उनके लिए खाद पानी की, रखवाली की समुचित व्यवस्था की जाय उनके लिए वैसी ही तत्परता बरती जाय जैसी कि किसान अपने खेत के लिए या माली अपने बगीचे के लिए बरतते हैं।

यह कार्य बड़े पैमाने पर किये जाने की आवश्यकता है। ताकि देश भर की समस्त विश्व की वनौषधियों की आवश्यकता पूरी हो सके। इस संदर्भ में यह निश्चित है कि इस प्रयोजन के लिए भारत भूमि की अपनी विशेषता है। जैसी दिव्य गुणों वाली वनौषधियाँ यहाँ उगती हैं, वैसी धरातल पर अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होती।

यह प्रक्रिया ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान शान्ति कुँज हरिद्वार से शुभारम्भ के रूप में आरम्भ हुई। प्रमुख और महत्वपूर्ण वनौषधियाँ यहाँ उगाई जाती हैं या संग्रहित की जाती हैं। उनके प्रयोग का परिणाम भी ऐसा उत्साहवर्धक हो रहा है कि वनौषधियों के प्रति लोक श्रद्धा को पुनर्जीवन मिल सके।


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