वन विहार में रास्ता (Kahani)

June 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

वन विहार में रास्ता भटक कर राजा एक वनवासी की झोपड़ी में जा पहुँचा। अनजान के साथ ऐसे सद्व्यवहार की आशा न थी, सो उसे बहुत प्रसन्नता हुई।

सवेरे जब चलने लगा तो राजा ने अपना परिचय दिया और समीपवर्ती चन्दन उद्यान उसे उपहार में दिया।

वनवासी, उद्यान में पहुँचा। चन्दन का महत्व समझता न था। सोचने लगा शहर तक इतनी लकड़ी ढोना पहुँचना कठिन है। सो कोयला बनाकर बेचने में अच्छा रहेगा।

एक-एक पेड़ काटना, जलाना और कोयला बाजार में ले जाकर बेचना। यही उसका दैनिक क्रम बन गया। गुजर पहले से अच्छा होने लगा।

वर्षा हुई। कोयला बन नहीं सका। निदान लकड़ी चीर कर शहर ले गया।

सुगंधि से सारी मण्डी महकने लगी। दुकानदारों में खरीदने की प्रतिस्पर्धा लग गई। कोयले की तुलना में दस गुने दाम मिले।

वनवासी ने खरीददारों से पूछा-इस लकड़ी में क्या खास बात है? दूसरे इतने दाम कैसे? बताया गया-यह चन्दन है। यह बहुत महंगा बिकता है।

वनवासी सिर पीटने लगा। इतनी सम्पदा उसने कोयला बनाकर क्यों बेची?

उस अनजान के दुर्भाग्य पर तरस खाने वाले एक विचारवान ने साथियों से कहा-”हम लोग भी तो जीवन सम्पदा को पशु प्रवृत्तियों में कोयला बनाकर ही तो बेचने हैं।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles