साधु और डाकू की एक ही दिन मृत्यु हुई। धर्मराज के दरबार में भी वे साथ-साथ ही पेश हुए।
डाकू ने अपने दुष्कर्म कह सुनाए और यथोचित दण्ड पाने के लिए सिर झुका कर खड़ा हो गया। साधु ने अपने पुण्य बखने और स्वर्ग सुख का दावा प्रस्तुत किया।
धर्मराज ने डाकू को दण्ड दिया कि तुम आज से इस साधु के सेवा में संलग्न रहो। ताकि जो सद्भाव तुम में जागा है वह संगति से और अधिक निखर सके। वह तैयार हो गया।
साधु ने आपत्ति की और कहा-इसकी संगति से मैं भ्रष्ट हो जाऊँगा। मुझे यह स्वीकार नहीं।
धर्मराज ने अपना फैसला बदल दिया। उलट कर साधु को दण्ड दिया कि तुम डाकू की सेवा में निरत रहो ताकि तुम्हारा अहंकार गल सके।