सम्राट अशोक का साहस और पराक्रम सर्व विदित है। उनके जीवन में उनका चरित्र और पुरुषार्थ अनुपयुक्त दिशा में भी बटा पर बौद्ध धम्र के संपर्क में आने से उसकी दिशा पूरी तरह बदल गई। वे सन्त-सम्राट की संयुक्त भूमिका निभाते रहे। बौद्ध धर्म का प्रचार देश देशान्तरों में पहुँचाने में उनकी सूझ-बुझ और सम्पदा ने चमत्कारी सफलताएँ प्रस्तुत कर दिखाई। मिश्र, सीरिया, मेसीडीनिया, एपिरस, गान्धार किरीन, तिब्बत, बर्मा, मलाया, जावा, सुमात्रा वाली, इन्डोनेशिया, जापान, चीन, रूस, ईरान आदि देशों में प्रशिक्षित प्रचारक भेजने से लेकर अपने निजी प्रभाव का उपयोग करने तक के अनेक प्रमाण, शिलालेख उन क्षेत्रों में मिले हैं। एशिया के अधिकाँश भागों का मात्र 28 वर्ष की अवधि में इतने शानदार ढंग से धार्मिक, और सामाजिक परिवर्तन कर सकना अशोक के लगन का ही प्रतिफल था।
उन्होंने अनेक स्थानों पर बौद्ध मठ, विहार, संघाराम बनाये जिनमें धर्म प्रचारकों को प्रशिक्षित करने और दूर देशों तक भेजने के लिए आवश्यक साधनों की व्यवस्था थी। धर्मचक्र प्रवर्तन दृश्य प्रेरणा देने वाले अनेकों स्तूप भी उन्होंने स्थान-स्थान पर बनवाये।
अन्य राजाओं की तरह यदि अशोक ने भी अपने प्रभाव और वैभव का उपयोग निजी विलास और अहंकार की पूर्ति में किया होता तो उन्हें कौन जानता और क्यों संसार का मस्तक उनके चरणों पर झुकता, उनके प्रयास से समय परिवर्तन जैसा सुयोग कैसे बनता?