प्राणविद्युत के संवर्धन से तेजोवलय का अभिवर्धन

June 1987

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जीवात्मा के साथ लिपटे हुए तीनों शरीरों का अपना-अपना महत्व और अपना-अपना उपयोग है। प्रत्यक्षतः उनके विकास की उत्साहवर्धक उपलब्धि का प्रत्यक्ष जीवन में अनुभव किया जा सकता है। स्थूल शरीर स्वस्थ, समर्थ और सुन्दर लगे, दीर्घायुषी बने तो उसे हरेक पसन्द करेगा और इस सफलता को अपना सौभाग्य मानेगा। अपने आपको भी अपनी सत्ता शरीर तक सीमित लगती रहती है। दूसरे तो पूरी तरह वैसा ही मानते हैं। व्यावसायिक, पारिवारिक, सामाजिक संबंध शरीरों के साथ ही जुड़ते हैं। जन्म पर हर्ष और मरण पर शोक उसी के लिए मनाया जाता है। यह परिचय संपर्क पंच तत्त्वों से बने काय कलेवर के हैं। प्रत्यक्ष की दृष्टि से इतना ही औचित्य भी है और संभाव्य भी। पर जब उसकी सूक्ष्मता में प्रवेश करते हैं तो विदित होता है कि चेतना क्षेत्र अभी और शेष रह गया। शरीर जड़ ही नहीं, उसके भीतर सचेतन भी चमकता-झाँकता दिखाई पड़ता है। इस शरीर चेतना की अपनी उपलब्धियाँ हैं। उसे कुण्डलिनी शक्ति की विशिष्ट क्षमता समझा जा सकता है। काया रक्त ही नहीं प्राण भी है, इसके आधार पर समर्थता उपलब्ध होती हैं; किन्तु कायिक प्राण की क्षमता चमत्कारी होती है। उसमें तेजस्विता एवं आकर्षण शक्ति भरी रहती है। विकर्षण की प्रहार क्षमता भी।

जिसकी कुण्डलिनी जागृत है, उसकी काया में ओजस् का प्राण प्रवाह फूलता रहता है। वह संपर्क में आने वालों को अपने अनुकूल-अनुरूप बना सकता है। अपने प्रभाव से निकटवर्ती वातावरण को विशेष स्तर का बना सकता है। ऋषियों के आश्रम में सिंह, गाय एक घाट में पानी पीते थे। हिलमिल कर रहते थे। पर जब वहाँ से चले जाते थे तो पूर्ववत् व्यवहार करने लगते थे। प्राण शक्ति का चमत्कार सीमित क्षेत्र में चमत्कार दिखाता है। कुण्डलिनी की क्षमता से साहस और प्रभाव असीम मात्रा में उभरता है। इससे साधक का न केवल आत्म-विश्वास उभरता है, वरन् उसकी क्रिया प्रभाव में भी अनेक गुना कौशल भर जाता है। जीवन सामान्य स्तर का न रहकर असामान्य बन जाता है। अनेकों को शक्ति प्रदान करना, उन्हें ऊँचा उठाना, आगे बढ़ाना ऐसे ही लोगों से बन पड़ता है, जिनके काय कलेवर प्राण ऊर्जा की अतिरिक्त मात्रा में भरे होते हैं। यह जीवनचर्या के संयम, अनुशासन, आत्म-विश्वास और महान दायित्वों के परिवहन से ही संभव हो सकता है। उसका साधनात्मक तरीका यह भी हो सकता है कि कुण्डलिनी जागरण की विधा अपनाई जाय। इसमें जननेन्द्रिय मूल में सन्निहित महासर्पिणी जैसी प्राण ऊर्जा को जगाया जाता है। वह ज्वाल-माल की तरह ऊँची उठकर मेरुदण्ड मार्ग से मस्तिष्क मध्य ब्रह्मरंध्र तक पहुँचती है। मेरुदण्ड मार्ग से गुजरते हुए उसे उस प्रवाह में विद्यमान छै चक्रों का-भँवरों का वेधन करना होता है। इन केन्द्रों की प्रसुप्त शक्ति जब जागृत होती है तो अपने निकटवर्ती पदार्थों और प्राणियों को प्रभावित करती है। एक सीमा तक वातावरण में भी अभीष्ट परिवर्तन करती है। ऐसी अनेक कसौटियों पर कसने से प्रतीत होता है कि स्वस्थ सामान्य जनों में पाई जाने वाली समर्थता की तुलना में उनकी क्षमता कहीं अधिक विकसित होती है, जिनने उस क्षेत्र की प्राण प्रक्रिया को जगा लिया है। पंचतत्वों में पंच प्राणों का समन्वय हो जाने पर अनेक स्तर के प्रभाव-चमत्कार दीख पड़ते हैं। आवश्यक नहीं कि उन्हें मैस्मरेज्म-हिप्नोटिज्म की तरह प्रदर्शन के लिए प्रयुक्त किया जाय। बढ़ी हुई क्षमता को उन महत्वपूर्ण कार्यों के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, जिन्हें महामानवों द्वारा सम्पन्न किये गये महान कार्यों के समतुल्य समझा जा सके। मानवी विद्युत का एक स्वरूप शरीर के इर्द-गिर्द विद्यमान तेजोवलय के रूप में जाना जाता है। यह एक समर्थ कवच है जो बाहरी आघात आक्रमणों से रक्षा करता है और अन्यान्यों को अपने अनुशासन में चलने के लिए बाधित कर सकता है। ओजस् सचमुच ही शरीर क्षेत्र का एक विद्युत भण्डार है जिसे समयानुसार अभीष्ट प्रयोजनों के लिए सफलतापूर्वक प्रयुक्त किया जा सकता है।

ओजस् का वैज्ञानिक पर्यवेक्षण और (तेजोवलय) के रूप में देखा गया है। वह शरीर के चारों ओर छै इंच की दूरी तक फैला हुआ विशेष यंत्रों द्वारा देखा जा सकता है। चेहरे पर उसकी मात्रा, सघनता की परिधि अधिक होती है। इसे एक प्रकार की भाप समझा जा सकता है। चूल्हे पर पानी चढ़ा देने से उसमें से भाप उठती है। यह भाप निकट क्षेत्र में तो खुली आँखों से भी देखी जा सकती है, पर कुछ ऊँची उठने के बाद वह विरल एवं अदृश्य हो जाती है। फिर भी उसका अस्तित्व बना रहता है। रात्रि को शीतलता का संपर्क होने पर वह घास–पात पर ओस बिन्दु बन कर जमा हो जाती है। इसी प्रकार स्थूल शरीर एवं उसमें समाई हुई प्राण चेतना का समन्वय जब क्रियाशील होता है तो उस ऊर्जा का भीतरी क्रिया-कलाप चलने के अतिरिक्त त्वचा के बाहर भी उसका फैलाव होता है। यही ओजस् या तेजोवलय है।

तेजोवलय अपना काम अनायास ही अपने ढंग से करता रहता है। शरीर के ऊपर वह रक्षा कवच की तरह चढ़ा रहता है। बाहरी आक्रमणों से रक्षा करता है। जो हानिकारक तत्व-विषाणुओं के रूप में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष आक्रमण होते रहते हैं, उन प्रहारों से बचाव करता है। सामान्य जनों को वातावरण का संपर्क का प्रभाव अपनी ओर खींच ले जाता है, हावी हो जाता है। फलतः व्यक्ति अपने को असहाय अनुभव करता है और बिल्ली के मुँह में दबे हुए चूहे की तरह समीपवर्ती प्रभावों से प्रभावित होता चला जाता है। अपनी निरोधक शक्ति प्रायः सीमित, न्यून पड़ने लगती है। जीवट भी स्वल्प मात्रा में होती है। किन्हीं कारणों से मनुष्य देखने में भला चंगा होने पर भी भीतर से खोखला बना रहता है-यही वास्तविक दुर्बलता है। इस स्तर के दुर्बल व्यक्ति न पराक्रम कर पाते हैं और न साहस दिखा पाते हैं। सृजन प्रयोजनों में उनका व्यक्तित्व बहुत हलका पड़ता है। प्रकृतिगत वातावरणजन्य मानसिक प्रहार एवं पतनोन्मुख आकर्षण इन दुर्बलों को चाहे जिस दिशा में घसीटते और कठपुतली की तरह नचाते रहते हैं। उनकी अपनी सृजन क्षमता, संकल्प शक्ति कुछ ऐसा नहीं कर पाती कि अपनी आकर्षण शक्ति से अभीष्ट सहयोग सम्मान, विश्वास खींचकर बुला सके। आवश्यक साधन जुटा सके। इस अभाव को अध्यात्म की भाषा में ओजस् की कमी कह सकते हैं, जिसे उपकरणों से अथवा दिव्य चक्षुओं से प्रत्यक्ष भी देखा जा सकता है। तेजोवलय वस्तुतः अन्तरंग में समाहित प्राण शक्ति का बाहर झाँकता हुआ मँडराता हुआ स्वरूप है। इसे दृष्टि कौतुक या अविज्ञात का ज्ञान भर नहीं समझा जाना चाहिए, वरन् यह मानकर चलना चाहिए कि बलिष्ठता का यह जीवन्त प्रमाण परिधान है।

तेजोवलय की स्थिति में प्रयत्नपूर्वक परिवर्तन किया जा सकता है। वह उच्चस्तरीय भी होता है और निकृष्टतम भी। रूप सौंदर्य वाले व्यभिचारियों में, वेश्याओं में, ठगों में, क्रूर आक्रान्ताओं में यह भयावह स्तर का होता है। इसे असुरता का परिचायक कह सकते हैं। इसका सघन होना धारणकर्ता के पतन का द्वार खोलता है। जिस पर प्रभाव छोड़ता है उसे अशक्त, असहाय बनाकर निर्जीव पराधीन की स्थिति में ला पटकता है। इस आसुरी तेजोवलय का रंग कालिख लिए हुए होता है। दैत्य-दानवों की आकृतियाँ काले रंग की चित्रित की जाती है। पर यह त्वचा की निरख परख पर लागू नहीं होती। गोरे रंग के हिटलर एवं नीत्से जैसे महत्वाकाँक्षी व्यक्तित्वों का व्यक्तित्व दानवी पाया गया। रावण आदि लंकावासी हो सकता है कि गोरे रंग के रहें हो। उष्ण कटिबन्ध क्षेत्र में रहने वाले सभी निवासियों की चमड़ी काली होती है, पर उनमें भी सज्जनता का बाहुल्य पाया जाता है। इस प्रकार रंगों का निर्धारण त्वचा को देखकर नहीं, तेजोवलय में घुले काले रंगों को देखकर किया जाता है। सन्त, सज्जन एवं देव प्रकृति के लोगों का तेजोवलय पीली झलक लिए हुए प्रतीत होता है। वे समीपवर्ती लोगों का विविध-विधि अनुग्रह, अनुदान अनायास ही देते रहते हैं।

तेजोवलय की न्यूनाधिकता तथा रंगों की झलक देखते हुए व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक स्थिति का अन्तःस्वरूप जाँचा जा सकता है। भले-बुरे की, दुर्बल-सबल की, दुर्जन-सज्जन की परख की जा सकती है। उनसे बचा अथवा लिपटा जा सकता है। व्यक्तित्वों का विश्लेषण इस आधार पर हो सकता है। किसके शरीर में कहाँ किस प्रकार के विजातीय द्रव्य जमा हैं, इस प्रकार का रोग निदान जहाँ अंग-परीक्षण की अन्यान्य निदान पद्धतियों द्वारा होता है, वहाँ वह कार्य विभिन्न स्थानों से शरीर में उभरने वाले भिन्न-भिन्न स्तर के तेजोवलय को देखते हुए भी वस्तु स्थिति समझ कर सम्पन्न किया जा सकता है। इसी प्रकार मानसिक न्यूनताओं, विपन्नताओं को भी समझा जा सकता है। चरित्र का भी बहुत हद तक पता लगाया जा सकता है। तेजोवलय को देख पढ़ सकने की प्रक्रिया यदि किसी को हस्तगत हो सकें तो वह दूसरों के बारे में इतना अधिक जान सकता है जितना कि गहरी जाँच-पड़ताल से भी संभव नहीं। इस आधार पर अनुपयुक्त संपर्क से बचा जा सकता है और उपयुक्त सान्निध्य से शक्ति वर्षा जैसा लाभ उठाया जा सकता है।

तेजोवलय मात्र स्थिति का परिचायक नहीं है। उसे घटा-बढ़ाकर दूसरों की स्थिति में ऐसा परिवर्तन किया जा सकता है। जिससे समग्र सन्तुलन बन सके। विपन्नता सुधारी और सुसंस्कारिता बढ़ाई जा सके।

जिस प्रकार पैसे के लेन-देन से रुके व्यवसाय चल पड़ते हैं, उसी प्रकार तेजोवलय की आवश्यक मात्रा किसी को हस्तान्तरित करके उसके द्वारा शारीरिक रोगों से, मानसिक उद्वेगों से, प्रतिकूलता भरे संकटों से, अभावों से कषाय-कल्मषों से भी छुटकारा दिलाया जा सकता है। यह एक बड़ी उपलब्धि है। शरीर में माँस तो खा-पीकर भी बढ़ाया जा सकता है, पर उसमें प्राण तत्व की प्रचुरता भर लेना यह असाधारण कौशल एवं पुरुषार्थ है। इसे पाकर निजी व्यक्तित्व को समुन्नत स्तर का प्रभावशाली प्रतिभावान बनाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त बाँटा जा सके जिसकी तुलना कर्ण जैसे दानवीर से की जा सके।

इस हेतु प्राण अभिवर्धन के लिए साधनात्मक प्रयोग करने पड़ते हैं। इसके लिए प्राण योग से संबंधित ऐसी साधनाएँ करनी पड़ती हैं जो अपने स्तर के अनुरूप हों। सभी भेड़ों को तो एक लाठी से हाँका जा सकता है पर ऐसा नहीं हो सकता कि सभी साधकों को एक ही साधना बताई जा सके। रोग निदान व उनकी स्थिति में भिन्नता के आधार पर उन्हें भिन्न-भिन्न औषधियाँ दी जाती हैं। भले ही वे स्वस्थता के लिए लालायित एक जैसी मनःस्थिति के क्यों न हो? यह बात साधना के संबंध में भी है। प्राण-योग के अंतर्गत प्राणाकर्षण का, प्राणायाम प्रक्रिया का सर्वसुलभ आरंभिक प्रयोग हैं। पर उसे अन्त नहीं आरम्भ समझना चाहिए और उसका अभ्यास बन पड़ने पर अपने अनुकूल प्राणायाम चुनना चाहिए। लोम-विलोम प्राणायाम सूर्य वेधन प्राणायाम तथा नाड़ी शोधन प्राणायाम आदि के अपने-अपने विधान हैं, जिनका विस्तार प्रसंग आने पर उपयुक्त मार्ग-दर्शक से समझा जा सकता है।

संकल्प शक्ति को बढ़ाना भी इसी प्रक्रिया का व्यावहारिक पक्ष माना गया है। इसके लिए आत्म संयम एवं परमार्थ के छोटे-छोटे पुण्य प्रयासों के ऐसे संकल्प लेने चाहिए जो सरल भी हों और नियत अवधि में निश्चित रूप से पूरे हो सके। जो अपनी स्थिति एवं रुचि के अनुरूप हों उसके लिए व्रत लेने का साहस करना चाहिए, उसे हर हालत में करते रहने का प्रण करना चाहिए। इतनी तत्परता और तन्मयता उसमें नियोजित करनी चाहिए जिससे उसका पूरा कर सकना सुनिश्चित रूप से संभव हो सके। ऐसे छोटे-छोटे व्रत लेते रहने और पूरे करते चलने की श्रृंखला मनोबल बढ़ाने में अत्यन्त सहायक होती है। घरेलू एवं व्यावसायिक क्रिया–कलापों को नित्य ही करना पड़ता है। उनका अनुमान अभ्यास भी रहता है, किन्तु व्रत धारण एवं पुण्य-परमार्थ की दिशा में कहना-सुनना ही बन पड़ता है। उसे व्यवहार में उतारने का यदा-कदा ही अवसर मिलता है। इस उपेक्षित दिशा में प्रगति होनी चाहिए, तभी प्राण चेतना को बढ़ा सकना सम्भव है।

प्राण तत्व ही मनुष्य में उच्चस्तरीय समर्थता का आधार है। तेजोवलय के रूप में उसी की व्याख्या-विवेचना होती है। इस दिव्य क्षमता को उपलब्ध करने के लिए जहाँ योग साधनाओं का महत्व है वहाँ संकल्प शक्ति का भी स्थान है। जिन्हें इच्छा उत्कंठा है, उन्हें अपना संकल्प-बल विकसित करने के लिए पुण्य परमार्थ के साधना व्रत संयम निबाहते हुए सम्पन्न करते रहना चाहिए।


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