कुण्डलिनी का उर्ध्वगमन

June 1987

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कुण्डलिनी का अवस्थान शरीर के बीचों बीच है। जननेन्द्रिय को केन्द्र मानकर नापा जाय तो उसकी ऊपरी और निचले भाग की लम्बाई प्रायः समान ही बैठती है। इसे एक प्रकार का चौराहा कह सकते हैं, जहाँ से ऊपर भी उठा जा सकता है और नीचे भी गिरा जा सकता है। उथले तट पर भी विनोदरत रहा जा सकता है और कुशल पनडुब्बों की तरह गहरी डुबकी लगाकर बहुमूल्य मणि मुक्तकों को भी बटोरा जा सकता है।

कुण्डलिनी को प्राणाग्नि या योगाग्नि कहा गया है। उसकी स्वाभाविक प्रकृति ऊर्ध्वगामी है। पर यदि उपेक्षा बरती जाय तो वह निष्क्रिय भी पड़ी रह सकती है और यहाँ तक कि मार्ग अवरुद्ध रहने पर वह नीचे की ओर भी खिसक सकती है। कभी-कभी वह आवरण वेध कर अपने लिए बहिर्गमन का मार्ग बना सकती है।

वंश परम्परा का सृष्टि क्रम चलाते रहने के लिए प्रकृति ने जननेन्द्रिय में उत्तेजना उत्पन्न की है। सामान्य जीवधारी उससे प्रभावित रहते हैं, और वयस्क होने के उपरान्त काम कौतुक में रस लेने लगते हैं। इसके साथ ही प्रजनन का दायित्व भी जुड़ा हुआ है। उसमें जकड़ जाने के उपरान्त काम कौतुक की कठिनाई और जिम्मेदारी कंधे पर आती है। एक ऋण चुक नहीं पाता, तब तक दूसरा नया शिर पर लद जाता है, इस प्रकार वाणी वर्ग की उदरपूर्णा के अतिरिक्त यौनाचार और प्रजनन परक भार ढोते-ढोते हुए जिन्दगी बितानी पड़ती है।

जो प्राणी जितने हेय स्तर के हैं उनमें प्रजनन की क्षमता उतनी ही अधिक पाई जाती है। मक्खी, मच्छर, मछली, चूहे आदि की प्रजनन क्षमता को देखकर आश्चर्य होता है। यदि उनके प्रयास सफल होते रहे तो इनका एक ही जोड़ा कुछेक वर्ष में समूची धरती पर छा सकता है। सभी जानते हैं कि टिड्डी दल और फसल के कीड़े कितनी तेजी से बढ़ते हैं। यह वृद्धि न उन उत्पादकों के लिए हितकर होती हैं, न वातावरण के लिए और न उनके लिए जिनके कि संपर्क में वे आते हैं।

यह प्राणाग्नि का वैसा ही कौतुक कौतूहल है, जैसे कि बच्चे फुलझड़ी जलाकर करते रहते हैं। उस विनोद की परिणति सब प्रकार महँगी पड़ती है। पैसा जलता है, धुआँ स्वास्थ्य बिगाड़ता है और आग लगने का जोखिम रहता है। काम कौतुक में प्राणाग्नि जैसी बहुमूल्य सम्पदा का अपव्यय भी ऐसा है, जिसमें व्यक्तिगत रूप से आत्मिक दृष्टि से मनुष्य का कोई लाभ नहीं बनता। प्रकृति के कौतुक कौतूहल भर की पूर्ति होती है।

कुण्डलिनी जागरण उस प्रयत्न का नाम है, जिसमें प्राणाग्नि को ऊपर उठाया जाता है। शक्ति केन्द्रों के उन चक्रों को गतिशील किया जाता है, जिनका पैंदा आवश्यक गर्मी के अभाव में ठंडा ही पड़ा रहता है। हाँडी के नीचे आग न जलाई जाय तो उसमें पड़ी वस्तुएँ न गरम होती हैं, न पकती हैं।

प्राणाग्नि को गरम करने में बहुत कठिनाई नहीं है। ब्रह्मचर्य पालन से उसका अधोगामी व क्षरण रुक जाता है। इसके अतिरिक्त निर्धारित प्राणायामों के करने से शक्तिचालिनी मुद्रा जैसे प्रयोगों से उसे इतना तीव्र किया जाता है कि वह मेरुदण्ड मार्ग की नली में होती हुई मस्तिष्क के मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार चक्र को स्पर्श सके। ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ अपना संबंध जोड़ सके। तालमेल बिठा सके।

ऊर्ध्वगामी प्राणाग्नि प्रायः प्रकृति प्रेरणा से नीचे गिरने या अन्य छिद्रों द्वारा बाहर फूटती है। इन्द्रियों के रस ऐसे ही हैं, जो सामान्य स्थिति में काम चलाऊ उपयोगों से शान्त हो जाते हैं। पर उनके पृष्ठ भाग में जब ऊर्जा उभरती है तो हाँड़ी में उफान आने जैसी स्थिति बन पड़ती है। सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय के भोगों को अतिवाद की सीमा तक ले जाना चाहती हैं। जिह्वा को रसास्वादन-आँखों को दृश्य कौतूहल, मस्तिष्क को लिप्सा लालसा का उभार आता है। यह संस्थान आतुर हो उठते हैं। असावधानी बरतने पर वे संग्रहित क्षमता से ही हाथ धो बैठते हैं और खोखले हो जाते हैं। इसलिए कुण्डलिनी साधक को न केवल ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है वरन् मन समेत सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण कड़ा करके संयम साधना पड़ता है।

कुण्डलिनी जागरण अभ्यास को निरन्तर जारी रखने पर असंयमजन्य उत्तेजनाएँ शान्त हो जाती हैं और प्राणाग्नि नीचे से ऊपर को उठना आरम्भ करती है।

मूलाधार गह्वर-मेरुदण्ड का अन्तिम सिरा कुण्डलिनी शक्ति का केन्द्र है। यों उसकी ऊर्जा समस्त शरीर में काम करती और गर्मी पहुँचाती है। ऊर्ध्वमुखी कुण्डलिनी क्रमशः एक-एक चक्र को वेधती हुई आगे बढ़ती ऊपर चलती है। मेरुदण्ड में मूलाधार के अतिरिक्त चार चक्र और हैं (1) स्वाधिष्ठान (2) मणिपूर (3) अनाहत (4) विशुद्धि चक्र। इसके बाद सहस्रार आ जाता है। आज्ञा चक्र का विषय विवादास्पद है। उसे मेरुदण्ड में सम्मिलित भी माना जाता है और पृथक भी कहा जाता है।

ऊर्जा कितनी ऊपर उठी, इसका आभास इससे होता है कि ऊपर उन चक्रों के स्थान पर बार-बार अनायास ही स्पन्दन, फड़कन, गर्मी, खुजली जैसी मचती है। कभी-कभी चींटी काटने- कीड़े रेंगने जैसे अनुभव होते हैं। यह हलचलें जिस क्षेत्र में होती हैं वहाँ तक प्राणाग्नि का उर्ध्वगमन हुआ माना जा सकता है।

स्वभाव में अन्तर आने वाली बात ही यह परिचय देती है कि कुण्डलिनी की पहुँच कितनी ऊँची हो गई। स्वाधिष्ठान में चंचलता, आतुरता, स्फूर्ति जैसे-उत्तेजनात्मक प्रयास चल पड़ते हैं। क्रोध एवं अहंकार की मात्रा भी बढ़ जाती है। यह उफान भर है। उफान स्थायी नहीं होते। वे कुछ ही समय उछल कूद करने के बाद स्थिर होते और तली में बैठते दीख पड़ते हैं। यह इसलिए होता है कि आत्म संयम की अगली सीढ़ी पर चढ़ने की परीक्षा साधक उत्तीर्ण कर सके।

इसी प्रकार ऊपर के चक्रों की दिशा में प्राणाग्नि का बढ़ना स्वभाव में तरह-तरह की उत्तेजनाएँ भरता है। इनमें से कुछ सात्विक भी हो सकती हैं कुछ राजसिक और तामसिक भी। लगता है कई प्रकार के आवेश आते हैं और उतावली अपनाने के लिए बेचैन करते हैं। इन सभी को अधिक दृढ़तापूर्वक संयमित करना पड़ता है। न कर पाने पर उत्तेजना कार्यान्वित होने लगती है और साधक के किये हुए प्रयासों को निष्फल बना देती है। अस्तु इस मार्ग को अपनाने पर पूर्णता तक पहुँचने तक क्रमशः अधिक कठोर संयम बरतने की आवश्यकता पड़ती है। धीर, वीर, गंभीर की तरह फूँक-फूँक कर कदम बढ़ाना पड़ता है और ध्यान रखना पड़ता है कि यह नशे जैसे आवेश कुछ ऐसा न कर बैठें, जिसे उद्धत कहा जा सके।

कुण्डलिनी की प्राण ऊर्जा जब मस्तिष्क के मध्य भाग सहस्रार तक पहुँचती है तब आत्म-ज्ञान उभरता है और शरीर और आत्मा की पृथकता अनुभव होने लगती है। इस स्थिति का प्रतिफल यह होता है कि दृष्टिकोण में उच्चस्तरीय परिवर्तन आता है जो आत्मा के पक्ष में अधिक सोचने और अधिक करने के लिए विवेक और साहस की मात्रा कहीं अधिक बढ़ा देता है। पूर्व जीवन में जिस ओर इच्छा ही उत्पन्न नहीं होती उस आत्म-कल्याण के लिए परामर्श मार्ग पर चल पड़ने का निश्चय दृढ़ से दृढ़तर होता जाता है। यही कुण्डलिनी का ऊर्ध्वगमन है।


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