सूर्य की सविता शक्ति का विवेचन-2

June 1987

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प्रत्यक्ष दृश्यमान सूर्य ऊर्जा का भण्डार है। यह ऊर्जा जहाँ जीवनोपयोगी अन्यान्य प्रयोजनों में प्रयुक्त होती है, वहाँ वह आरोग्य लाभ के अनेकानेक उद्देश्य भी पूरा करती है। वह प्रत्यक्ष जीवनी शक्ति है। शरीर में प्रवेश करके समर्थता का संवर्धन करती है। अवयवों को रस, रक्त, माँस, मेद, स्नायु संस्थान आदि का बलिष्ठ बनाती है, जिसके आधार पर शरीर बलवान रहता है और दीर्घ जीवी बनता है। इस गर्मी से स्वेद, मल, मूत्र, श्वास आदि के माध्यम से मल विसर्जन में सुविधा होती है। भीतरी और बाहरी सफाई का आधार मजबूत रहता है। विजातीय द्रव्य ठहरने नहीं पाते। वे जिस-तिस मार्ग में बाहर निकलते रहते हैं। रोग कीटक विषाणु जहाँ कहीं भी शरीर में जड़ जमा लेते हैं, उन्हें नष्ट करने की राम बाण दवा सूर्य किरणें हैं। प्रभात काल की धूप में जितनी देर रहा जा सके उतना उत्तम है। ग्रीष्म ऋतु में मध्याह्न काल की कड़कती धूप ही खुले बदन पर लेने से कुछ हानि पहुँचाती है। मनुष्यों और पशुओं के खाद्य में काम आने वाली वनस्पतियों पर जब सूर्य की सीधी किरणें पड़ती हैं, तब उनमें विटामिन ‘डी’ जैसे कई पोषक तत्व अनायास ही बढ़ जाते हैं और वे सेवनकर्ताओं को विशेष लाभ पहुँचाते हैं। शास्त्रकारों का कथन भी है कि “आरोग्य भास्करात् इच्छेत्” अर्थात् आरोग्य की कामना सूर्य संपर्क से करें।

सूर्य किरण चिकित्सा का प्रचलन धीरे-धीरे संसार भर के विज्ञजनों में होता जा रहा है। सातों रंगों के पृथक् पृथक् गुण हैं। नीला शीतल, लाल उष्ण और पीला पाचक होता है। इन तीन के सम्मिश्रण से ही सात रंग बनते हैं। शरीरगत रुग्णता को देखते हुए रंगीन काँचों के माध्यम से आवश्यक किरणों को ही पीड़ित अंग पर डाला जाता है। अभीष्ट रंग की बोतलों में पानी भरकर उसके सेवन से क्रोमोपैथी के माध्यम से लाभ उठाया जाता है। अब तक इस प्रयोग का जो लाभ देखा गया है उसके आधार पर सोचा यही जा रहा है कि चिकित्सा विज्ञान में सूर्य किरण चिकित्सा का एक बड़ा आधार जुड़ेगा और बिना कुछ खर्च किये लोग आरोग्य लाभ का एक महत्वपूर्ण माध्यम हस्तगत कर सकेंगे।

सूक्ष्म शरीर का परिशोधन एवं शक्तिवर्धन स्वर्णिम सूर्य का ध्यान करने से पूरा होता है। प्रभात काल सूर्याभिमुख होकर, नेत्र बंद रखते हुए भूमध्य, हृदय स्थान एवं नाभिचक्र में प्रकाश पुँज का ध्यान किया जाता है। मस्तिष्क में बुद्धि चेतना का निवास है। हृदय में भाव संवेदना और नाभि में सर्वतोमुखी बलिष्ठता का। इन स्थानों में किया गया ध्यान अपने-अपने केन्द्रों को अधिक समर्थ बनाता है। उनकी चेतना को अधिक विकसित करता है। इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों ही शरीर अपने-अपने क्षेत्र में बीज रूप से विद्यमान क्षमताओं के जागरण में, उत्कर्ष में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होते हैं।

हठयोग में कुण्डलिनी जागरण के प्रयोग को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। मेरुदण्ड में षट्चक्र हैं। जननेन्द्रिय मूल में प्रसुप्त सर्पिणी जैसी कुण्डलिनी का मूल आधार है। इसका अंतिम सिरा मस्तिष्क मध्य वाले ब्रह्मरंध्र में सहस्रार कमल है। इन तीनों पक्षों को मिला कर कुण्डलिनी का पूरा कलेवर बनता है। जागरण के लिए जहाँ अन्यान्य क्रिया-कृत्यों का समावेश करना पड़ता है वहाँ सूर्य का ध्यान भी अनिवार्य है। जिस जिस केन्द्र में सूर्य का ध्यान किया जाता है वह जागृत, सक्रिय और गतिवान होने लगता है। इस साधना का यह सरलतम मार्ग है कि सहस्रार से लेकर मेरुदण्ड अवस्थित छहों चक्रों में होते हुए जननेन्द्रिय मूल तक के समूचे क्षेत्र में सूर्य प्रकाश के प्रवेश करने, ऊर्जा भरने का ध्यान किया जाय।

सोऽहम् साधना द्वारा प्राण आकर्षित किया जाता है। साँस लेते समय ‘सो’ और निकालते समय ‘हम्’ की ध्वनि का ध्यान किया जाता है। पर इसके साथ ही श्वास-प्रश्वास की सूर्य शक्ति से ओत-प्रोत होने की भावना भी की जाती है। नाद-योग में नाद श्रवण के साथ यह मान्यता भी परिपक्व की जाती है कि वे दिव्य शब्द सूर्य लोक से उतर कर साधक तक आ रहे हैं।

संभवतः इसी कारण सूर्य के कुछ उपासना पर्व भी निर्धारित हैं। रविवार को सूर्य दिन का दिन माना जाता है। उस दिन उपवास रखकर सूर्य को प्रसन्न करने की प्रथा है। वट सावित्री का संबंध सावित्री सत्यवान की कथा से जोड़ा जाता है। सावित्री से सूर्योपासना, करके अपने पति सत्यवान को यमराज के हाथ से पुनः वापस लौटाया था। सौभाग्य रक्षा के लिए अन्य स्त्रियाँ भी इस व्रत को करती है। मध्यप्रदेश और बिहार में कार्तिक शुक्ल 6 को सूर्य षष्ठी कहा जाता है उस दिन उस पूरे क्षेत्र में अत्यन्त समारोहपूर्वक इस व्रत उत्सव को मनाया जाता है।

गायत्री सावित्री का ध्यान चित्रण एवं प्रतिमा निर्माण तो सूर्य मण्डल के मध्य में करना आवश्यक ही है। अन्य देवताओं को भी सूर्य आभा के अंतर्गत ही किया गया है। सभी के चेहरों पर तेजोवलय का समावेश आवश्यक माना गया है। जितने भी देवता हैं उनकी प्रतिमाएँ बनाते समय उनके चेहरे के इर्द-गिर्द तेज मण्डल का अंकन या चित्रण अनिवार्यतः रहेगा यह सूर्य की ही आभा है। इससे स्पष्ट है कि कोई नर देवता या नारी देवता जो शक्ति प्राप्त करते हैं, वह सूर्य द्वारा अधिग्रहीत की गई ही होती हैं। सर्वविदित है कि चन्द्रमा पृथ्वी की तरह ही साधारण मिट्टी का बना हुआ है। पर सूर्य का प्रकाश उसके जितने भाग पर पड़ता है, उतना ही वह रात्रि के समय चमकता है। सौर मण्डल के अन्य ग्रहों और उपग्रहों के संबंध में भी यही बात है, उनमें अपना निज का कोई प्रकाश नहीं है। सूर्य की किरणों का प्रकाश पड़ने से ही वे उदय होते रहते हैं।

ब्रह्माण्ड में सूर्य सहोदरों की बहुत बड़ी संख्या है। अपने सूर्य को आदित्य कहते हैं। ठीक इसी प्रकार के सूर्य वे तारक भी हैं, जो रात्रि के समय आकाश में चमकते हैं। चमकते ही नहीं, वे अपनी-अपनी विभिन्नताओं और विचित्रताओं से भरी पूरी विशिष्ट किरणें भी निःसृत करते हैं। पृथ्वी पर उन समस्त सूर्यों का प्रकाश आता है, पर वह अपने आदित्य की छलनी में छनकर ही धरती पर आता है। तारकों की सीधी किरणें यदि पृथ्वी पर आने लगें तो समूचा वातावरण ही गड़बड़ा जाय।

सूर्य और पृथ्वी की दूरी का इतना संतुलित क्रम है जिसे सहज एवं सुयोग सम्मत कह सकते हैं। यदि किरणें अपेक्षाकृत निकट या तीव्र होतीं तो पृथ्वी की स्थिति भी बुध के समान लाल अंगारे जैसी होती। यदि दूरी अधिक होती तो प्लूटो आदि के समान ही यहाँ असहनीय शीत होता और किन्हीं प्राणियों या वनस्पतियों का जलाशयों का कोई चिन्ह कहीं दृष्टिगोचर न होता। यह सूर्य का अनुग्रह ही है कि पृथ्वी उससे संतुलित दूरी पर है। फलतः यहाँ विविध प्रकार के प्राणी, वनस्पति, पदार्थ उत्पन्न होते हैं। जल बरसता है और वायु चलती है। वायु में जीवन तत्व ‘प्राण’ ऑक्सीजन घुला रहता है। यदि उसका अनुपात नहीं रहा होता तो वायु के रहते हुए भी उसमें प्राण प्रदायिनी शक्ति का अभाव रहता और कोई जीव जन्तु उत्पन्न न होता। इसीलिए सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है-सूर्य आत्मा जगतुस्थश्च। अर्थात्-इस जगत की आत्मा सूर्य ही है। समस्त जीवधारियों का उत्पादन, अभिवर्धन, और परिवर्तन सूर्य के कारण ही सम्भव होता है।

ऋषिगणों के अनुसार-

सूर्याज्योतिज्ज्योतिः सूर्या वर्चा ज्योतिर्वचः। - श्रुति

सूर्य ही ज्योति है। सूर्य ही वर्चस् है।

सूर्य प्रकाश रूप है। पर यह प्रकाश इतने तक ही सीमित नहीं है कि अन्धकार को दूर करें। जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में दिखाये। यह अन्तः प्रकाश भी है, जिसे ब्रह्म तेज या वर्चस् कहते हैं। इससे अपनी तथा विश्व की महिमामयी विभूतियों के दर्शन भी होते हैं।

सवित्र्यास्तु परं नास्ति। अग्नि पुराण

सवित्र्यास्तु परं नास्ति। मनुस्मृति

सवित्र्यास्तु परं नास्ति। याज्ञवल्क्य

सावित्री से ऊँचा और कोई नहीं है।

शास्त्रकारों के अनुसार सूर्य उपासना का एक मात्र मंत्र सावित्री है। सप्त व्याहृतियाँ लगने पर वह सावित्री कहलाती है और तीन व्याहृतियाँ रहने पर उसे गायत्री कहते हैं। सावित्री का प्रयोग भौतिक प्रयोजनों के लिए होता है तथा गायत्री को अध्यात्म तत्त्व-ज्ञान के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

यों देखा जाय तो पृथ्वी का सुसंचालन सूर्य की सुसंतुलित स्थिति के कारण ही हो रहा है। प्राणियों के लिए जिन पदार्थों की आवश्यकता है वह सब भी प्रकारान्तर से आदित्य अनुग्रह ही प्रदान करता है। जीवन धारण के लिए ऊर्जा नितान्त आवश्यक है। प्रत्येक प्राणी के शरीर में ऊर्जा काम करती है। खाद्य पदार्थों में भी कैलोरी के रूप में ऊर्जा तत्त्व ही काम करता है। शीत से बचने एवं गति देने के लिए बिजली, तेल, कोयला, ईंधन आदि के रूप में ऊर्जा ही काम आती है।

पृथ्वी का आकार चपटापन लिए हुए है। साथ ही उसकी भ्रमण कक्षा भी अण्डाकार है। इसी कारण शीत और ग्रीष्म ऋतुएँ आती हैं। साथ ही कुछ क्षेत्र सदा शीतल और सदा उष्ण बने रहते हैं। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों में शीतलता अधिक रहती है। उनमें भारी बर्फ जमी रहती है। यदि सूर्य ताप में घट-बढ़ रहने लगे तो उससे समुद्र में भरी जल राशि पर भारी प्रभाव पड़ सकता है। सूखे क्षेत्र पानी में डूब सकते हैं और जल घट जाने से कितने ही द्वीप उभर सकते हैं। इसलिए सर्वसाधारण को विज्ञजन सदा सचेत करते रहते हैं कि ऊर्जा का उपयोग अनुचित मात्रा में न किया जाय। कल, कारखाने, मोटर, वायुयान जैसे वाहनों की भरमार न की जाय। पृथ्वी की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिए उस पर वृक्ष, वनस्पतियों की बहुलता घटने न दी जाय। पेड़-पौधे सूर्य का प्रकाश सोखते हैं। उसकी प्रतिक्रिया प्राणवायु युक्त वायु निःसृत करने के रूप में होती है। प्राणियों के लिए यही जीवन तत्व है। इसीलिए धरती पर वन सम्पदा को अक्षुण्ण बनाये रहना भी प्रकारान्तर से सूर्य उपासना का ही एक पक्ष है। जहाँ वनस्पति से धरती ढकी नहीं होती उसे शास्त्रों में निर्वसना कहा गया है। अनुपयोगी रहने की ओर संकेत किया गया है। रेगिस्तान इसी कारण बढ़ते हैं। बंजर ऊसर भी इसी कारण पनपते हैं। सूर्य उपासना का सर्व साधारण द्वारा की जाने वाली प्रक्रिया का यह महत्वपूर्ण अंश है कि धरती को हरीतिमा से ढका रखा जाय, उस पर मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों के लिए उपयुक्त आहार उगाया जाय। वृक्ष वनस्पतियों से प्रत्येक भूभाग को भरा-पूरा रखा जाय। आदित्य पुराण में वृक्षों को सूर्य के केश और वनस्पतियों को रोम बताया गया है, पृथ्वी को आदित्य भगवान का दिया हुआ यह सीधा अनुदान है।

सूर्य पृथ्वी से बहुत ऊपर है। उसका आकार भी प्रायः 110 गुना बड़ा है। फिर भी उसकी ऊर्जा को हम कहीं भी अग्नि रूप में प्रज्वलित कर सकते हैं। अग्नि भी सूर्यांश ही है। इसलिए उसकी ज्योतिर्मय प्रतिमा अग्नि रूप से ही प्रज्वलित की जाती है। उपासना प्रयोजनों में अगरबत्ती धूप-दीप का विधान इसीलिए है कि देव प्रयोजनों में सूर्यांश को साक्षी रखे रहा जाय।

अग्निहोत्र सूर्य आराधना का सर्वोत्तम प्रयोग है। सामान्य कार्यों में प्रयुक्त होने वाली अग्नि तो ईंधन के सहारे जल जाती है। पर यज्ञाग्नि को प्रज्वलित करने के लिए विशेष वृक्षों की ही समिधाएँ काम में आती है। समिधा के लिए जिन वृक्षों का काष्ठ प्रयुक्त होता है, उनमें सूर्य तत्त्व की बहुलता पाई जाती है। फिर इसके अतिरिक्त शक्तिशाली शब्द शक्ति का मंत्र रूप में भी समावेश किया जाता है। यज्ञाग्नि सूर्य का भूतलीय प्रतिनिधित्व करती है, इसके लिए उसके माध्यम से भी वे लाभ उठाये जा सकते हैं जो सूर्य किरणों के द्वारा उपलब्ध होते हैं। शारीरिक रोगों का निवारण, मानसिक चेतना का अभिवर्धन, व्यक्तित्व में ओजस्, तेजस्, वर्चस का समावेश, प्रतिभा का संवर्धन सद्गुणों का विकास, सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन अग्नि होत्र के प्रधान लाभ हैं। इसके अतिरिक्त यह ऊर्जा आत्मा को परमात्मा से मिलने का दोनों के बीच तादात्म्य उत्पन्न करने का प्रयोजन भी पूरा करती है। इसलिए चेतना में ब्रह्मत्व की-ब्रह्मभाव की अभिवृद्धि के लिए यज्ञाग्नि का सान्निध्य आवश्यक माना गया है। कहा गया है कि यज्ञाग्नि के सान्निध्य से मनुष्य शरीरधारी ब्राह्मणत्व की उच्च भूमिका तक पहुँचते हैं।

सीलन, सड़न, कृमि, कीटक दुर्गन्ध आदि के निवारण में जितने भी प्रयोग उपचार प्रयुक्त होते हैं, उन सबकी तुलना में अकेले सूर्य ऊर्जा कहीं अधिक बढ़कर प्रयोजन पूरा करती है। गंदगी का अनुपात जब बढ़ता है तब ग्रीष्म ऋतु में तूफान, अन्धड़, चक्रवात उठते हैं। उनका उद्देश्य वातावरण की-वायु मण्डल की सुविस्तृत सफाई करना ही है। समुद्र स्थिर रहता है पर उसे भी ज्वार-भाटों के माध्यम से ऊँची लहरें एवं तूफान के माध्यम से गतिशील बनाये रहती है। चल नदियों का पानी की स्वच्छ रहता है। स्थिर जोहड़ों का पानी सड़ने लगता है। उसकी प्रकार समुद्र का जल तभी तक शुद्ध रहता है जब तक उसमें हलचल उठती रहती है। यह कार्य सूर्य और चन्द्रमा का आकर्षण शक्ति ही सम्पन्न करती है। सूर्य किरणें ही समुद्र जल को भाप बनाती हैं। बादल बनाकर उन्हें जहाँ-तहाँ बरसाती हैं। इसीलिए सविता को अग्नि का ही नहीं जल का देवता भी माना गया है। धूप, दीप, जैसे अग्नि प्रतीकों के साथ-साथ देव पूजा में जल कलश का भी प्रयोग होता है। जिस प्रकार यज्ञाग्नि में अनेकानेक देवताओं का आह्वान किया जाता है उसी प्रकार पूजा वेदी पर स्थापित किये जाने वाले जल कलश में विभिन्न प्रकृति के विभिन्न प्रयोजनों वाले देवताओं को भी आमंत्रित किया जाता है। सूर्य को इन्द्र और वरुण दोनों की संज्ञा दी गई है। इन्द्र अग्नि है और वरुण जल। दोनों के समन्वय से यह पृथ्वी अपनी विभिन्न क्रिया-प्रक्रियाओं का सूत्र संचालन करती रहती है। मनुष्य शरीर भी एक प्रकार का भूमण्डल, सौर मण्डल अथवा ब्रह्माण्ड ही है। इसके प्रकट और अप्रकट क्रिया-कलापों में सूर्य का असाधारण एवं अद्भुत योगदान रहता है। इसीलिये सूर्योपासना का इतना अधिक माहात्म्य बताया गया है।


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