व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी, सत्चेतन धन आनन्द राशि

June 1987

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जिस प्रकार कोई कलाकृति अपने निर्माता के अस्तित्व तथा व्यक्तित्व को प्रकट करती है, उसी प्रकार यह सृष्टि भी अपने रचियता, अपने शिल्पी परमात्मा को व्यक्त करती है। जिसका निर्माण हुआ है, उसका निर्माता अवश्य है, इसमें किसी प्रकार की शंका अथवा तर्क का कोई अवसर नहीं है।

यह समस्त सृष्टि एक सुनिश्चित एवं निर्धारित रचना है। इस रचना का अणु-अणु एक निश्चित नियमावली से अनुशासित है, नियंत्रित है। हजारों प्रकार की वनस्पतियाँ और लाखों प्रकार के प्राणी अपने-अपने नियमानुसार बनते और बिगड़ते रहते है, पर क्या मजाल कि उसकी रचना में तनिक-सी गड़बड़ी हो जाये।

सूर्य समय पर निकलता, समय पर अस्त होता है। गुलाब के पौधे में गुलाब और गेंदे के पौधे में गुलाब और गेंदे के पौधे में गेंदे के ही फूल खिलते हैं। आम के वृक्ष में आम और अमरूद के वृक्ष में अमरूद के ही फल लगते हैं। उसमें भी जिन वृक्षों से जिस प्रकार के फल अपेक्षित हैं, उसी प्रकार के ही फल पैदा होंगे। एक रंग, एक आकार और एक स्वाद। खट्टे वृक्षों में खट्टे और मीठे में मीठे फल ही उत्पन्न होंगे। निश्चित भूमि, निश्चित जलवायु और निश्चित ऋतु में ही वे उत्पन्न होंगे और निश्चित समय पर ही समाप्त होंगे।

एक जंगल में लाखों प्रकार की वनस्पतियाँ होती हैं। हजारों प्रकार के पेड़ एक के पास एक उत्पन्न होते हैं, किन्तु उनकी एक भी पत्ती की बनावट में भूल नहीं होती। इमली से लेकर केले तक की पत्तियों का एक निश्चित आकार प्रकार होता है। एक पेड़ की पत्ती संसार के किसी दूसरे पेड़ की पत्ती से नहीं मिलती। उनमें कोई न कोई किसी प्रकार का थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य होगा। इतनी विविधता और इतने प्रकार जानने वाला वह कलाकार, वह शिल्पी, वह निर्माता कितना ज्ञानवान, कितना चैतन्य और कितना समर्थ होगा, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। विश्व की इतनी बड़ी रचना को देखकर और उसके संचालन की आविष्कार विधि देखकर ऐसा कौन अभागा होगा जो रचयिता के अस्तित्व में संदेह करेगा।

किसी भी वृक्ष का बीज देखिये। उसके स्तर-स्तर अलग कर डालिये। उसका रेशा-रेशा चीर डालिये। कहीं भी आपको वृक्ष का कोई आकार, उसकी कोई भी तस्वीर, उसके अन्दर भावी संभावना का कोई भी अस्तित्व दृष्टिगोचर न होगा। कितना विलक्षण है, कितना अद्भुत है कि जब वह धरती में बो दिया जाता है तब वह विविध प्रकार के वृक्ष को जन्म देता है। जब वृक्ष अस्तित्व में आता है, तब बीज मिट चुका होता है। किन्तु पुनः कई गुना होकर वह वृक्षों द्वारा उत्पन्न फलों में अपना अस्तित्व अपना स्वरूप प्राप्त कर लेता है। प्रकृति की यह प्रक्रिया कितनी विलक्षण, अद्भुत और विस्मयकारक है? ध्यानपूर्वक इसको देखने, विचार करने और मनन करने की इसकी नियामक सत्ता, निर्माता और पालनकर्ता का ध्यान आये बिना नहीं रहता। कैसा अखण्ड अनुशासन है कि एक ही मिट्टी से ईख मिठास, मिर्च कड़ुवाहट और करौंदा खटास प्राप्त करता है? मिट्टी को चखिए। उसमें इस प्रकार का कोई रस कोई स्वाद आपको नहीं मिलेगा। उसमें इस प्रकार का कोई रस कोई स्वाद आपको नहीं मिलेगा। इतने रस, इतने स्वाद और इतने गुण एक ही मिट्टी में कहाँ से आ जाते हैं? यह सारे रस, आकार-प्रकार, गुण आदि और कुछ नहीं, एक उसी परमात्मा शिल्पी का अपना व्यक्तित्व एवं अपना अस्तित्व है। वह स्वयं धरती है, स्वयं मिट्टी है, स्वयं बीज वृक्ष और फल है। वह ही स्वयं रस, स्वाद और गुण भी है। वह सब कुछ है।

संसार में लाखों पशु-पक्षी और जीव जन्तु मौजूद हैं। सब एक दूसरे से भिन्न। आकार-प्रकार बनावट, स्वभाव विचित्र। जितने प्रकार के पक्षी, उतने प्रकार के रंग, उतनी प्रकार की बोलियाँ और उतने ही प्रकार के गुण व स्वभाव। इन सब बातों में इतनी अनन्तता, इतनी असीमता और अपरिमितता एक उसी विराट की याद दिलाती है।

रात-दिन, प्रकाश-अंधकार, गर्मी-सर्दी, जल-थल आदि सब उसी की साक्षी देते हैं, उसी के व्यक्तित्व को प्रकट करते हैं। अग्नि जलाती है, पानी बुझाता है, वायु कंपित करती है, जीवन जिलाता है और मृत्यु मारती है। किसके आदेश से किसके संकेत से? एक उसी बिन्दु के इंगित मात्र से यह सारे कार्यकलाप होते हैं, सारी प्रक्रियाएँ चलती हैं। बिना उसके संकेत के एक पत्ती भी नहीं हिल सकती, एक श्वास का भी आवागमन नहीं हो सकता।

इतनी बड़ी रचना, इतनी महान कृति को उसने किस उद्देश्य, किस हेतु से, किसके लिये विनिर्मित किया है? यह एक गहन प्रश्न है। एक गूढ़ रहस्य है। मनीषियों का मत है कि यह सब एक उस ही परमात्मा ने अपने से-अपने में-अपने लिये ही उत्पन्न किया है।

सृष्टि में हर ओर से ओत-प्रोत परमात्मा और परमात्मा में हर प्रकार से समाहित यह सम्पूर्ण रचना, मनुष्य के समझने के लिये है। समझ कर उस रचयिता का ज्ञान प्राप्त कर आनन्द पाने के लिये है। अपने अन्दर परमात्म सत्ता के प्रति विश्वास बिठाकर उसे आस्तिक बनाने के लिये है।

सृष्टि के प्रत्येक प्रत्यक्ष पदार्थ में जो अप्रत्यक्ष, निराकार, विचित्र है, विलक्षणता है, कौतूहल है, वही परमात्मा की एक झलक है, जिसके सहारे मनुष्य उस चिदानन्द परमात्मा तक पहुँचता है। अपना हृदय विशाल कीजिये। अपनी दृष्टि निर्मल कीजिये और देखिये आपकी सृष्टि के प्रत्येक अणु में उस विराट् की झाँकी देखने को मिलेगी।

परमात्मा सत्-चित्-आनन्द अर्थात् सच्चिदानन्द रूप है। उसका उद्देश्य प्राणी मात्र को आनन्द प्रदान करना है। मनुष्य को छोड़कर संसार का हर प्राणी एक नैसर्गिक आनन्द को प्राप्त करता है। एक मनुष्य ही ऐसा है जो स्वतः आनन्दित नहीं दिखलाई देता। इसका स्पष्ट कारण यह है कि परमात्मा की इच्छा है कि वह उसे सम्पूर्ण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके आनन्द की अनुभूति प्राप्त करे। अर्थात् केवल आनन्द नहीं सच्चिदानन्द परमात्मा की पूर्ण अनुभूति करे। सत् चित् अर्थात् उसके अस्तित्व का चेतन सत्ता का ज्ञान प्राप्त करके आनन्द की अनुभूति प्राप्त करे। अन्य पशु-पक्षियों की भाँति मनुष्य परमात्मा का ज्ञान प्राप्त किये बिना आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकता। उस सच्ची उच्चस्तरीय आनन्द तब ही प्राप्त हो सकता है, जब वह परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर ले।

अपनी इच्छा के अनुरूप ही उसने मनुष्य को उपादान भी दिये हैं। ये हैं अद्भुत शरीर और विलक्षण विवेक बुद्धि। इनका उपयोग कर मनुष्य सहज ही परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अपनी विवेक शक्ति को विकृतियों से मुक्त कर मनुष्य यदि प्रत्यक्ष संसार को एक गहरी अनुभूति से देखे, उस पर चिन्तन करे, तो सहज ही वह परमात्मा के अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

मनुष्य को आनन्द की खोज करने हेतु अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं। वह तो सच्चिदानन्द परमात्मा से उत्पन्न इस आनन्दमय सृष्टि से स्वयं ही ओत-प्रोत है। मनुष्य को केवल अपनी अनुभव शक्ति को प्रबुद्ध भर करना है। अनुभव शक्ति के प्रबोध के लिये उसे कोई विशेष तपस्या अथवा साधन नहीं करनी है। वह एक विस्मय मूलक दृष्टिकोण से उसकी रचना इस संसार को देखे और उसे परम शिल्पी की परम रचना समझकर उसका सम्मान करे। इतना भर कर लेने से इसकी अनुभव शक्ति स्वतः प्रबुद्ध हो उठेगी, और एक बार प्रबुद्ध हो जाने पर वह शक्ति विलुप्त नहीं होगी।

स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, फल-फूल जिसको भी देखें, एक विस्मय और कौतूहल से देखता हुआ निर्माता की सराहना में गद्-गद् हृदय हुआ मनुष्य एक दिन बिना किसी विशेष साधन के परमानन्द को अवश्य पा लेता है। यही आत्मबोध है, और यही परमात्मा के अस्तित्व की अनुभूति है।


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