चेतना की उदात्तीकरण प्रक्रिया

June 1987

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आदिम काल में मनुष्य बन्दरों, वन–मानुषों की तरह रहता था और शारीरिक श्रम के आधार पर ही निर्वाह के साधन जुटाता था। तब उसके पास सम्पदा के नाम पर मिट्टी के बर्तन और पत्थरों के उपकरण भर थे। लम्बे पत्तों से काया को ढकता और ऋतु प्रभाव से अपने को बचाता था। निवास के लिए पेड़ों के झुरमुट और पहाड़ों की गुफा खंदक ही उसका आश्रय थे। यह स्थिति चिरकाल तक चली।

कालान्तर में इच्छा शक्ति उभरी, प्रगति की कामना जगी तो बुद्धि के कल पुर्जे अधिक सक्रिय हो गये। अग्नि जलाना, पहिए बनाना, कृषि करना, पशु पालन, आवास खड़े करना, बस्ती बनाना जैसी जीवनोपयोगी कलाएँ सीखीं। भाषा और लिपि का विकास हुआ। आयुध एवं औजार बने। इसी प्रकार क्रमशः भौतिक विज्ञान की प्रगति होती गई। सहकार बढ़ा। कुटुम्ब बने और एक का ज्ञान अनुभव दूसरे को हस्तान्तरित होने लगा। यही प्रक्रिया बढ़ते-बढ़ते आज उस स्थिति तक आ पहुँची है कि मनुष्य विद्युत शक्ति का दैनिक प्रयोजनों में, व्यावसायिक उद्देश्यों में, भरपूर प्रयोग कर रहा है एवं प्रकृति के अनेकों अविज्ञात रहस्य उसने खोज लिए हैं।

आद्यावधि हस्तगत हुई उपलब्धियों तथा भावी सम्भावनाओं की विभूतियाँ क्योंकर हाथ लगीं? इसका उत्तर देते हुए यही कहना होता है कि यह विज्ञान का चमत्कार है। यदि इस विश्व में प्रगति न हुई होती तो यह किसी भी प्रकार सम्भव न था कि वन-मानुषों की बिरादरी से आगे बढ़कर सृष्टि का मुकुट-मणि बनने की स्थिति तक पहुँच सकना बन पड़ता तथा सम्पदा, सुविधा और साधनों के अम्बार उसके सामने खड़े होते।

भौतिक विज्ञान की जितनी प्रशंसा की जाय जितनी महिमा बखानी जाय उतनी ही कम है। पदार्थ प्रकृतितः अनगढ़ और अस्त-व्यस्त था। उसे सुनियोजित मानवी बुद्धि, श्रमशीलता और कुशलता ने ही संभव किया है। विज्ञान पदार्थों के अनुकूलन की विधा सिखाता है। इसके लिए गतिशील रहा गया तो भविष्य में इस प्रत्यक्ष प्रगति के और भी अधिक आधार हाथ लगेंगे। इतने पर भी यह सब रहेगा एक पक्षीय ही। उससे सुविधा साधनों के अतिरिक्त और कुछ मिलने वाला नहीं है। शरीर पंच तत्त्वों का पदार्थों का बना है। उसे सुविधा प्रदान करने तक ही पदार्थ विज्ञान की सीमा नियत निर्धारित है।

इतने पर भी यह सब अपूर्ण, अधूरा है। क्योंकि मानवी सत्ता का एक पक्ष चेतना का भी है। चेतना जहाँ अपने प्रभाव से शरीर को जीवित सक्रिय रखती है। वहाँ वह नीति निष्ठा, भाव संवेदना, धर्मधारणा, आदर्शवादिता से भी भरी पूरी है। मानवी गरिमा उसकी सुसंस्कारिता पर निर्भर है। उसी के संकल्प से संयम बरतते बन पड़ता है। मर्यादा पालन एवं वर्जनाओं का अनुशासन भी उसी की प्रेरणा से निभता है। चरित्र-निष्ठा का निर्वाह उसी के संकेतों पर अवलम्बित है। गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता जिस अन्तःकरण के संवेदनशील होने पर निर्भर है, उसे परिष्कृत चेतना के साथ सघन रूप से जुड़ा हुआ समझा जा सकता है। मानव जीवन का विचार पक्ष उसी पर अवलम्बित है। उच्चस्तरीय प्रगति उसी पर निर्भर है। महापुरुषों जैसी महानता उसी क्षेत्र से उद्भूत होती है। व्यक्तित्व का निखार, प्रतिभा का उभार, इसी उद्गम से होता है। दृश्य शरीर की तुलना में चेतना का अदृश्य पक्ष सहस्रों गुना अधिक श्रेष्ठ एवं वरिष्ठ है।

चेतना यों रहती तो सभी जीवधारियों में हैं। उसी की उपस्थिति तक जीवन रहता है। विलग होते ही मरण निश्चित है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि प्रखर परिष्कृत होने पर वह अन्तःकरण की भाव-संवेदना, मस्तिष्क की दूरदर्शी-विवेकशीलता और शरीर की तन्मय, तत्परता का विकास संभव कर दिखाती है। चेतना का उत्कर्ष ही नरपशु को महामानव बनाता है।

इस ब्रह्माण्ड की संरचना दो भागों में बँटी हुई है-एक जड़ तथा दूसरा चेतना। एक प्रकृति दूसरा पुरुष। सब जानते हैं कि बिना संचालक के आटोमेटिक मशीनें भी नहीं चल सकतीं और न कम्प्यूटर, रोबोट ही काम कर सकते हैं। प्रकृति को भी सचेतन पर ब्रह्म ने ही बनाया है। अस्तु यह तथ्य स्पष्ट है कि जड़ से चेतन का मूल्य-महत्व असंख्य गुना होना चाहिए। जड़ पदार्थों के सहारे जब अनेकानेक सुख साधन विनिर्मित हो सकते हैं तो चेतन की बुद्धिमत्ता एवं भाव संवेदना कितनी अधिक श्रेय साधना सम्पादित कर सकती है? इसे सहज ही समझा जा सकता है।

भौतिक विज्ञान पदार्थों के अनुकूलन पर आधारित है। उसमें वस्तुओं को इच्छानुरूप स्थिति में बनाने की क्रिया प्रक्रिया सीखी-सिखाई जाती है। दूसरा समानान्तर विज्ञान है चेतना का। उसके परिशोधन, उन्नयन का। इसे अध्यात्म कहते हैं। इसका प्रथम चरण है-चिन्तन। विचार पद्धति का सुसंतुलन। सर्वविदित है कि क्रिया-कलापों के मूल में विचारणा ही काम करती है। विचार प्रवाह यदि अनुपयुक्त दिशा में बह रहा है, तो उसके सूत्र संचालन पर निर्भर क्रिया-कलाप भी हेय स्तर के ही बन पड़ेंगे, हेय कृत्यों का प्रतिफल दुःखद, संकटापन्न एवं अपयश, विरोध विग्रह के रूप में ही सामने आना चाहिए। उस कुचक्र में फँसे मनुष्य खिन्न, विपन्न से बने रहते हैं और वर्जनाओं का उल्लंघन नहीं करते। चरित्र में गुण, कर्म, स्वभाव के सभी पक्ष आते हैं। निज की विनम्रता, संयमशीलता और दूसरों को सम्मान प्रदान करते रहने, मधुरता का पुट लगाते रहने, प्रसन्नता, सफलता व्यक्त करने वाली हल्की मुस्कुराहट चेहरे पर बनाये रहने पर व्यक्तित्व का स्तर प्रकट होता है। इस चुम्बकत्व से जन-साधारण का सहयोग, सद्भाव खिंचता चला आता है। वैसे चरित्र-निष्ठा के आवश्यक अंग समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी के रूप में जाने जाते हैं।

तीसरा पक्ष व्यवहार का है। जैसा सोचा जाता है, वैसा ही व्यक्तित्व बनता है, चरित्र ढलता है। चरित्र अपनी गरिमा के अनुरूप लोकोपयोगी कामों में हाथ डालता है। उदार, परमार्थ, परायणता का परिचय देता है। मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा के रूप में दूसरों से यथोचित व्यवहार बन पड़ता है। योजना ऐसा कुछ कर गुजरने की रहती है, जिसका प्रभाव ग्रहण करने वाले-हर किसी को ऊँचा उठने, आगे बढ़ने की प्रेरणा मिल सके।

आत्मीयता की स्नेह संवेदनाओं से भरा-पूरा उदार सेवी सहयोग, सम्मिश्रित सद्व्यवहार हर किसी से नहीं बन पड़ता। ओछे व्यक्ति तो अहंकार भरी अशिष्ट उजड़ता ही बरतते देखे गये हैं। सज्जनता, चरित्र-निष्ठा का ही एक अंग है। नीतिवान मानवी गरिमा का-मनुष्य जन्म का-मूल्य महत्व समझते हैं। अस्तु अपना व्यक्तित्व ऐसा बनाये रहते हैं जिससे अन्तरात्मा प्रफुल्लता-प्रसन्नता अनुभव करे और संपर्क क्षेत्र में लोग सराहना करते रहें। किसी को किसी भी कारण उँगली उठाने का अवसर न मिले। शत्रु भी लोहा माने और उसका मूल्यांकन अजातशत्रु के रूप में करे। चरित्र चिन्तन का परिणाम है। चिन्तन बीज है, उसमें चरित्र और व्यवहार का खाद पानी लगाने से जीवन कल्पवृक्ष जैसा फलता है। चन्दन जैसा महकता है। चिन्तन आमतौर से अचिन्त्य चिन्तन की रँगीली उड़ानें उड़ता और आवारागर्दी में भटकता देखा गया है। पर जब उसे आदर्शवादिता का अवलम्बन मिलता है, तो सही मार्ग पर चलने लगता है। उच्छृंखलता अवरुद्ध होती है और निर्धारित उद्देश्यों के लिए वह एकनिष्ठ, तन्मयता अपनाता है। ऐसों की एक भी विचार तरंग अनगढ़ नहीं होती। न उनमें भटकाव देखा जाता है और न ही असंयमी स्वच्छंदता का दौर उभरता है। विचारों का मूल उद्गम अन्तःकरण है। आस्थाएँ, भावनाएँ, कामनाएँ जिस अन्तःकरण में उत्कृष्ट स्तर की होती हैं, वहाँ विचार तरंगों का उत्पादन भी आदर्शवादी अभिव्यंजनाओं से आपूरित रहता है। अन्तःकरण ही है जिसमें संस्कार जड़ जमाये रहते हैं। जहाँ कुसंस्कारों का उन्मूलन करके सुसंस्कारों को आरोपित कर लिया गया है, वहाँ चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के सभी स्तर आदर्शों से भरे पूरे रहते हैं।

चेतना का उदात्तीकरण जीवन के अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्रों का परिशोधन, परिष्कार करने की प्रक्रिया जारी रखने पर सहज संभव है। इसके लिए आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास के चार कदम उठाने पड़ते हैं। एकान्त में बैठ कर एकाग्र मन से अपने गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अवाँछनीयता को समझने, पहचानने का प्रयत्न करना पड़ता है। जो अनुपयुक्तता समझ में आवे, उसे कूड़े कचरे की तरह बुहार फेंकने का साहस भरा प्रयत्न करना चाहिए। प्रबल इच्छा शक्ति के सामने कोई दुष्प्रवृत्ति टिक ही नहीं सकती। यह परिशोधन हुआ। यह आवश्यक है किन्तु पर्याप्त नहीं। दुष्प्रवृत्तियों के हटाने पर जो स्थान खाली हुआ है, उसे रिक्त नहीं रहने देना चाहिए, वरन् उसमें सत्प्रवृत्तियों का आरोपण करना चाहिए। उन्हें स्वभाव का अंग बनाने के लिए अभ्यास में उतारने के लिए तद्नुरूप आचरण करने की क्रमबद्ध योजना बनानी चाहिए और उसे कार्यान्वित करते रहने के निश्चय पर आरुढ़ रहना चाहिए।

आत्म विकास का अर्थ है-अपने “स्व” का दायरा बढ़ाना। जिस शरीर, परिवार में अपनी ममता सँजो रखी है। उसे सुविस्तृत करते हुए “आत्मवत् सर्व भूतेषु” की “वसुधैव कुटुम्बकम्” की मान्यता अपनानी चाहिए। दूसरा तात्पर्य है स्वार्थ को परमार्थ में विकसित करना। विराट् ब्रह्म का विशाल विश्व के रूप में दर्शन करना। लोक सेवा का व्रत लेना और सत्प्रवृत्ति संवर्धन में जुट जाना।

इस स्थिति तक पहुँचने के लिए अध्यात्मवादी तत्व दर्शन के अनुरूप अपने श्रद्धा विश्वास को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढाला जाना चाहिए। इसके लिए स्वाध्याय, सत्संग, सेवा और साधना के चारों आधार जीवन-चर्या के अविच्छिन्न अंग बनाये जाने चाहिए। चिन्तन और मनन की प्रक्रिया में अधिकाधिक समय लगाना चाहिए। चिन्तन का प्रयोजन होना चाहिए परिशोधन और मनन का उद्देश्य रहे-भावी गतिविधियों को सत्प्रवृत्तियों में सुनियोजित करने की उमंग भरी विचारणा रहनी चाहिए।


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