कलाकारिता के अनेकों पक्ष हैं। पर सबकी व्याख्या एक ही है कि अनगढ़ को सुघड़ में परिणत कर दें। कुम्हार बेकार मिट्टी को खिलौनों में बदल देता है। स्वर्णकार धातु खण्डों से सुहावने आभूषण बनाता है। लोहे को गलाने वाले, उससे उपयोगी पुर्जे बनाकर अच्छी-खासी मशीन खड़ी कर देते हैं। मूर्तिकार पत्थर के छोटे-बड़े टुकड़ों को छैनी-हथौड़े की सहायता से देव प्रतिमा में बदल देते हैं।
मनुष्य के हाथ में सबसे बहुमूल्य वस्तु है - “जीवन” इसे हीरे के समतुल्य समझा जा सकता है। हीरा वस्तुतः पका हुआ कोयला है। उसी खदान में पड़ा रहे तो उसकी कीमत कानी-कौड़ी के बराबर भी नहीं, पर यदि वह जौहरी के हाथ पहुँचे तो उसे तराश कर ऐसा चमकदार नगीना बनाता है जिसे देखने वाले और खरीदने वाले का मन पुलकित हो उठे। सुयोग्य माली के हाथों बनाया हुआ उद्यान कितना मनोरम लगता है उसे सभी जानते हैं।
जीवन निरर्थक भी है। जब उसका उपयोग खाने और सोने से अधिक और क्या बन पड़ता है? अनगढ़ों के हाथ पहुँचने पर वह हेय, निन्दित और पिछड़ेपन से भर जाता है। पग-पग पर उसे दूसरों की सहायता माँगनी होती है।
पर जीवन के वास्तविक कलाकार वे हैं, जो इस पंच तत्वों से विनिर्मित खिलौने को ऐसा सुरुचिपूर्ण बना दें, जिस पर देवता अपने आपको निछावर करने के लिए ललचायें।