मनःक्षेत्र में चित्त की भूमिका

March 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शरीर काम करता है और मन आदेश देता है। दोनों के बीच स्वामी सेवक का सम्बन्ध है। मन का स्थान मस्तिष्क है। मस्तिष्क शरीर का एक अंग है। उसके सम्बन्ध में व्यावहारिक जानकारियाँ भी हैं और वैज्ञानिक अन्वेषण भी हुए हैं। इसीलिए उस सम्बन्ध में बहुत कुछ जाना और कहा जा सकता है।

मस्तिष्क की तीन क्रियाएँ प्रसिद्ध हैं एक कल्पना, दूसरी धारणा, तीसरी निर्धारण है। कल्पना को मनस् कहते हैं। धारणा को चित्त और विवेचन एवं निर्धारण शक्ति को बुद्धि कहते हैं। इन तीनों के सहारे से मन इस स्थिति में होता है कि कोई निर्णय कर सके।

कल्पनाओं को आकाश में उन्मुक्त पक्षी की तरह किसी भी दशा में उड़ने की छूट है। वह कुछ भी सोच सकता है। उसे सरल दो दिशाएं दीखती हैं। एक वह जिसमें लाभ दीखते हैं। जिह्वा और जननेन्द्रिय के स्वाद मुख्य हैं। इसके बाद मनोरम दृश्य देखने का नम्बर आता है। धन, लाभ, पारिवारिक समृद्धि, यश, पद, सम्मान आदि की कल्पना लाभ पक्ष में गिनी जाती है। हानि पक्ष में शत्रु भय, अनिष्ट की आकाँक्षा, घाटा, चोरी, अभावों की खिन्नता, मरण आदि के कितने ही प्रसंगों की ओर जब कल्पनाएं चलती हैं तो उसी ओर दौड़ती चली जाती हैं।

अनुकूल और प्रतिकूल कल्पनाएँ मनुष्य चाहे जब चाहे जैसी कर सकता है। सम्भावना सभी की रहती है। असम्भव कुछ भी नहीं। विशेषतया कल्पना में तो कोई अड़चन ही नहीं। मनुष्य उन्हें किसी भी खाली समय में, किसी भी स्तर की, कितनी ही देर करता रह सकता है।

मन की दूसरी परत है “धारणा”, जिसका आधार पूर्व संचित अनुभव होता है। किसी व्यक्ति या परिस्थिति के सम्बन्ध में इससे पूर्व जो जाना, सुना है उसके आधार पर धारणा बन जाती है। यह अनुभव कल्पनाओं का समर्थन या विरोध कर सकते हैं। इसके लिए मनमर्जी की बात है कि वह अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी प्रकार उदाहरण संचय करले। उदाहरणों की कमी नहीं। वे अनुकूल पक्ष के भी मिल सकते हैं और प्रतिकूल पक्ष के भी। अपने रुझान या अभ्यास के ऊपर निर्भर रहता है कि वह किस प्रकार की धारणाओं को महत्व दें और उन्हें विशेष मनोयोग पूर्वक स्मरण रखें।

इससे ऊपर की- आगे की परत ‘बुद्धि’ है। वह पक्ष और विपक्ष की बातें सुनती है। उचित अनुचित का- सम्भव असम्भव का- साधन अभावों का विचार करती है और उस आधार पर यह निर्णय करती है कि अन्तिम निर्णय क्या हो? किया क्या जाय? किस दिशा में कदम उठें। इन तीनों चरणों में होकर गुजरने के उपरान्त व्यक्ति का कोई कार्यक्रम बनता है। योजना निर्धारण में मन के इन तीनों विभागों का योगदान रहता है, तभी यह बन पड़ता है कि किस क्रम में, किन साधनों में कहाँ, किस प्रकार कार्यारम्भ किया जाय।

मनःसंस्थान की इन समस्त गतिविधियों में जितनी यथार्थता रहती है, परिस्थितियों के साथ जितना तालमेल रहता है, उतना ही उचित निर्णय ठहरता है। कार्य आरम्भ कर देने के उपरान्त भी मार्ग में कितनी ही अनुकूलताएँ प्रतिकूलताएँ आती हैं, इनका समाधान भी उसी मस्तिष्कगत तीक्ष्णता एवं व्यवहार कुशलता पर निर्भर रहता है जिसके आधार पर कि निर्धारण से पूर्व सोच-विचार किया गया था। साधारणतया इन्हीं परिस्थितियों में होकर चिन्तन तन्त्र को गुजरना पड़ता है। जो अपनी क्षमता और परिस्थितियों के साथ प्रयोजन का जितना तालमेल बिठा सकता है, उसकी बुद्धिमत्ता उतने ही ऊँचे स्तर की मानी जाती है। जो कल्पना तो करता है पर उसके साथ परिस्थितियों का तालमेल नहीं बिठाता, वह उतना ही मन्द मति या मूर्ख कहा जाता है।

यहाँ एक तथ्य को और भी अधिक गम्भीरतापूर्वक समझने की आवश्यकता कि स्वच्छन्द कल्पना और बुद्धि युक्त निर्धारण के मध्य जो धारणा पक्ष है, उसकी अदृश्य भूमिका सबसे अधिक होती है। इसे चित्त कहते हैं। यह मध्यवर्ती नाभिक है जो एक शक्तिशाली सत्ता की तरह काम करता है। कल्पनाओं को भी अपने साथ उड़ा ले जाता है और उसी के अनुरूप मन पर चिन्तन सवार रहता है। इसी प्रकार चित्त ही बुद्धि को भी अपने प्रभाव में समेट लेता है। यदि अवसर ही नहीं और कार्यान्वयन भी असम्भव दीखता हो, किसी बड़े जोखिम की आशंका हो तो ही बुद्धि अपनी दिशाधारा में परिवर्तन करती है अन्यथा वह भी अन्धी दौड़ में दुस्साहसपूर्वक लग जाती है। यहाँ चित्त का प्रभाव स्पष्ट है। इसी को परिष्कृत बनाने के लिए मनुष्य को अनेक साधनाएँ करनी पड़ती हैं। यह पक्ष, अनुभव, अभ्यास, और दबाव से ही किसी ढांचे में ढलता है और इस योग्य बनता है कि श्रेष्ठता से प्रभावित हो और अपनी दिशाधारा, रीति-नीति इस प्रकार बदले जिससे मानवी गरिमा के अनुरूप ऐसे काम बन पड़े जिसमें आत्म सम्मान और लोक सम्मान की उपयुक्त मात्रा उपलब्ध हो सके। चित्त का उत्कृष्टता का पक्षधर बनना ही वस्तुतः मनोयोग की साधना है।

इस प्रकार चित्त की प्रमुखता अध्यात्मवादी और भौतिक मनोविज्ञानी समान रूप से स्वीकार करते हैं। आध्यात्मवादी चित्त को आदतों का भाण्डागार कहते हैं। उसी में से वैसा कर गुजरने की प्रेरणाएं उठती रहती हैं जैसी कि चित्त की लालसाएँ उभरती हैं। आदतें इतनी प्रबल होती हैं कि वे समूचे व्यक्तित्व पर छाई रहती हैं और नशेबाजी की तरह छुड़ाये नहीं छूटती। इसलिए साधना विज्ञान में हठ पूर्वक चित्त का परिशोधन करने के लिए कहा गया है। अनेक प्रकार के साधनात्मक प्रयोग इसी निमित्त किए जाते हैं। तपश्चर्या की आग को चित्त भाग में ही परिमार्जित करना पड़ता है।

मनोविज्ञानियों की मान्यताएँ भी प्रत्यक्षतया भिन्न होते हुए वस्तुतः बहुत कुछ मिलती-जुलती हैं। उनका कथन है कि शरीर की स्वसंचालित क्रियाएँ भी अचेतन मन (चित्त) के आधार पर चलती हैं। सामान्य चेतन तो विचार करने में ही लगा रहता है। पर मनुष्य का स्वभाव और व्यक्तित्व मध्यवर्ती अचेतन के अनुरूप ही ढलता है।

मनोवैज्ञानिक परिभाषाओं के अनुरूप चेतन (कल्पना और बुद्धि) अचेतन (आदतें और शरीर की स्वसंचालित क्रियाओं का तारतम्य) सुपर चेतन (भावनाओं और सूझ-बूझ का केन्द्र) अपने-अपने काम करते रहते हैं और इन तीनों की सामर्थ्य से मानवी गतिविधियों का सूत्र संचालन होता है। मनोविज्ञान में अचेतन का कार्य रक्त संचार, आकुँचन-प्रकुँचन, निमेष-उन्मेष, शयन-जागरण, पाचन-विसर्जन आदि कार्यों की अनवरत प्रक्रिया को चलाते रहना है। इसी केन्द्र पर निरोगता और रुग्णता का बहुत कुछ आधार रहता है। शरीर की स्वाभाविक गतिविधियाँ इसी की स्थिति के अनुरूप ढलती और चलती हैं।

मन के सामान्य और असामान्य पक्षों का पुनर्निरीक्षण किया जाय तो उसमें मध्यवर्ती चित्त की ही महिमा गरिमा समझी गई है। सामान्य बुद्धि तो अनुभवी क्रिया-कुशल लोगों की संगति में सीमित कार्यों की चतुरता प्राप्त कर लेती है, पर जहाँ तक समग्र स्वस्थता, प्रतिभा एवं प्रज्ञा का सम्बन्ध है वहाँ चित्त को ही सम्भालने-सुधारने प्रशिक्षित करने का प्रयत्न करना आवश्यक हो जाता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118