मन सोचता है और तद्नुरूप शरीर कार्य करता है। शरीर का विष्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि वह कुछ रासायनिक पदार्थों का संयोग कुछ है। यह रासायनिक पदार्थ पाँच तत्वों के संयोग से बनते हैं। तत्व जड़ हैं, इसलिए शरीर भी जड़ है। उसके गुण, कर्म, स्वभाव में जो उत्कृष्टता निकृष्टता पाई जाती है, वह वस्तुतः मन के स्तर पर निर्भर है। शरीर एक वाहन उपकरण मात्र है। वह चलाने वाले के इशारे पर चलता है। इन्द्रियलिप्सा भी वस्तुतः मनोविकारों के रूप में ही प्रादुर्भूत होती है। मन की चंचलता ही इन्द्रियों को चंचल बनाती है। निग्रहित मन लिप्साओं के प्रति अरुचि दिखाता है तो इन्द्रियों की लालसा भी सहज ही शान्त हो जाती है।
इतने पर भी दोष और श्रेय शरीर को ही मिलता है। क्योंकि वही व्यक्ति का दृश्य रूप है। उसकी स्वच्छता, सज्जा, सभ्यता ही नहीं आदतें भी मन पर ही निर्भर रहती हैं। उसका स्तर शरीर के हर क्रिया-कलाप से झलकता रहता है। शरीर और मन के सम्मिश्रण से ही व्यक्तित्व एवं स्तर बनता है।
मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय कहा गया है। वह भी शरीर का ही एक भाग है। जिस प्रकार मन की प्रेरणा से शरीर काम करता है, उसी प्रकार यह भी एक परोक्ष तथ्य है कि शरीर के अनुरूप मन का भी सम्मान विनिर्मित होता है।
शरीर का रासायनिक विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि वह आहार का- अन्न का उत्पादन है। अन्न के आधार पर ही शरीर बनता, बढ़ता, गड़बड़ाता, परिपुष्टि होता, उसी का पाचन समाप्त होने पर वह मर भी जाता है।
शरीर आरम्भ में शुक्राणु और डिम्बाणु के समन्वय से बना पानी के एक छोटे बबूले की तरह होता है। इसके बाद माता के शरीर से शिशु के शरीर में आहार पहुँचना आरम्भ होता है। फलतः वह बढ़ने लगता है और नौ महीने में इतना परिपक्व हो जाता है कि प्रसव के उपरान्त संसार के दबावों को सहन कर सके। इस स्थिति तक पहुँचाने का श्रेय माता द्वारा दिये गये उस अन्न को है जो नाल मार्ग से शिशु को निरन्तर मिलता रहता है।
जन्मने के उपरान्त उसे आहार की जरूरत पड़ती है। वह दूध के रूप में मिलता है। दूध भी आहार है- आहार अर्थात् अन्न। कुछ दिन बाद अन्न के रूप में दूसरी वस्तुएँ खाने लगता है और अन्ततः पूर्णतया आहार पर निर्भर हो जाता है। अच्छे आहार से शरीर सुविकसित परिपुष्ट होता है और उसका स्तर घटिया रहने पर कुपोषण के शिकार बालक या व्यक्ति दुर्बल रह जाते हैं। आहार का स्तर एवं अनुपात पेट की आवश्यकता के अनुरूप न रहने पर अपच रहने लगता है और वह अपच ही चित्र-विचित्र बीमारियों प्रधान कारण होता है। विषाणुओं का आक्रमण भी रक्त की शुद्धता न होने पर ही होता है और अशुद्ध रक्त बनने का कारण अपच है। अपच आहार की क्रमव्यवस्था बिगड़ जाने की ही परिणति है। तात्पर्य यह है कि बलिष्ठता, सुन्दरता से लेकर दुर्बलता और रुग्णता का प्रमुख कारण आहार के स्तर को ही समझा जा सकता है।
आहार के आधार पर शरीर बनता और बढ़ता है। रुग्णता को दूर करने में काम आने वाली औषधियाँ भी आहार बनाकर ही शरीर में पहुँचती और पचती हैं। आहार में विषाक्तता रहने पर शरीर की मृत्यु होने में भी देर नहीं लगती। इसलिए प्रत्यक्ष जीवन का आधार आहार ही माना गया है। वह न मिले तो मनुष्य दुर्बल होने लगता है और अन्ततः प्राण त्याग देता है।
अन्न से रस, रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से अस्थि और मज्जा भेद वीर्य आदि बनते-बनते अंत मन बनता है। मन में चेतना का समावेश तो है, पर मस्तिष्क संस्थान वस्तुतः अन्न शरीर का ही एक भाग है। इसलिए स्वाभाविक है कि जैसा अन्न खाया जाय वैसा मन बने। शरीर शास्त्री ओर मनोविज्ञानी इस सम्बन्ध में प्रायः एक मत हैं कि आहार से मन का स्तर बनता है। प्रकृति की कैसी विचित्रता है कि जहाँ मन की प्रेरणा से शरीर को चित्र-विचित्र काम करने पड़ते हैं वहाँ यह भी एक रहस्य है कि मन का स्तर शरीर द्वारा बनता है। वह शरीर जो अन्न द्वारा विनिर्मित होता है। शरीर जहाँ मन का अनुचर है वहाँ उसकी स्थिति को बनाने में प्रमुख भूमिका भी निभाता है। इस उलझन को देखते हुए कहा नहीं जा सकता कि शरीर प्रधान है या मन। गुत्थी इस तरह सुलझती है कि दोनों का सृजेता अन्न है। इसलिए शरीर ओर मन का सूत्र-संचालक यदि अन्न को कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।
जीवन का- व्यक्तित्व का स्तर निर्धारित करने के लिए सर्वप्रथम अन्न के स्वरूप को सम्भालना पड़ता है। क्योंकि वही शरीर को विनिर्मित करता है और उसी के अनुरूप मन की प्रवृत्ति बनती है। इस प्रधान आधार की शुद्धता पर ध्यान न दिया जाय तो न शरीर की स्थिति ठीक रहेगी और न मन की दिशाधारा में औचित्य बना रह सकेगा।
आध्यात्मिक साधना क्रम में लोग एक भूल करते हैं कि वर्णमाला पढ़े बिना, एम.ए. की पुस्तक खरीद लाते हैं। उसे पढ़ने का हठ और पढ़ाने का आग्रह करते हैं। कई प्रकार के उपासनात्मक कर्मकाण्ड सीखने और उन्हें जल्दी-पल्दी निपटा कर तुर्त-फुर्त सिद्ध चमत्कार बटोरने की फिराक में रहते हैं। अच्छा होता कि कोई इन बाल-बुद्धि लोगों को यह समझा सकने में समर्थ हुआ होता कि हर साधना मन की एकाग्रता और पवित्रता से सधती है। इस श्रीगणेश के बिना गाड़ी एक कदम नहीं चलती जो साधना उपचार में मन की भूमिका को समझ लेगा उसे मनोनिग्रह की साधना को प्राथमिकता देनी होगी। इसके बाद अन्यान्य कर्मकाण्डों में हाथ डालने की बात सोची जा सकेगी।
मन निग्रह हठयोग से नहीं हो सकता। हठयोग के लिए अन्यान्य क्रिया-कलापों का सुविस्तृत क्षेत्र पड़ा है। पर आहार शुद्धि तो हर हालत में आरम्भिक तथा अनिवार्य है। हठ का आश्रय लेना हो तो भी सर्वप्रथम यही हठयोग साधना चाहिए कि आहार को पवित्रतम बनाया जायेगा। उसका स्तर और अनुपात मर्यादाओं के बन्धन में जकड़ कर रखा जायेगा।
आहार के सम्बन्ध में विचार करत समय थाली में परोसी गई वस्तुओं का निरीक्षण परीक्षण करने से पूर्व यह देखना होगा कि वह ईमानदारी की कमाई है या नहीं? उसमें चोरी, ठगी, हरामखोरी जैसे तत्वों का सम्मिश्रण तो नहीं। जो बिना मेहनत के अथवा कम मेहनत में अधिक कमाने के लालच में अनीतिपूर्वक कमाया गया है। वह अभक्ष्य है। चाहे उस अनुपयुक्त कमाई से फल, दूध जैसी व्रत उपवास में खरीदी गई वस्तु ही क्यों न खरीदी या परोसी गई हो।
आहार की शुद्धता रासायनिक पदार्थों पर निर्भर नहीं है वरन् उसकी कारण शक्ति पर निर्भर है। तथाकथित सात्विक पदार्थ खाते रहा जाय पर उनके उपलब्ध करने के तरीके में यदि अनीति अनाचार का समावेश है तो समझना चाहिए कि उससे बना यह शरीर या मन, आत्मिक प्रगति की अगली कठिन यात्रा में चल न सकेगा। अपंग की तरह जहाँ का तहाँ खड़ा रहेगा।