जिन्दगी का स्वरूप (kavita)

March 1986

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जिन्दगी बस, मावसी तम ही नहीं है। वह उषा का शारदी शृंगार भी है।।

है न कोई भार जो बंटता न बाँटे। फूल भी हैं बाग में, केवल न काँटे।।

जिंदगी संत्रास कुँठा ही नहीं है। वह अमल पोषक सुधामय प्यार भी है।।

ठीक है- होगी किसी की रिक्त गागर। पी चुके हम तीन अंजलि बाँध, सागर।।

जिन्दगी बस क्रम अभावों का नहीं है। प्राप्ति हित संघर्ष की जयकार भी है।।

कक्ष में उत्सव अकेले मत मनाओ। द्वार खोल पड़ोसियों को भी बुलाओ।।

जिंदगी बस वद्ध सीमित सर नहीं है। मुक्त पावस की सरस जल धर भी है।।

है मनुज वह कब? कि थक कर बैठ जाये। वक्त पर वह बाहुबल को आजमाये।।

जिंदगी मंझधार का भय ही नहीं है। नाव की उड़ती सुदृढ़ पतवार भी है।।

देह है नश्वर सभी यह जानते हैं। किन्तु ऋषियों को मृतक कब मानते हैं।।

जिन्दगी बस मरण का क्रम ही नहीं है। चेतना का चिर जयी त्यौहार भी है।।

जिंदगी बस मावसी तम ही नहीं है। वह उषा का शारदी शृंगार भी है।।

*समाप्त*


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