यह सब कैसे सम्भव हुआ?

March 1986

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यह विचित्र घटना अठारहवीं सदी के आरम्भ की है। उन दिनों स्पेन और फ्राँस के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था। 5000 स्पेनी सैनिकों का नेतृत्व कर थे कमाण्डर ली. जोर्नबाव। सैनिक दो तीन टुकड़ियों में बँटकर चल रहे थे। एकाएक लगभग 1500 सैनिकों की टुकड़ी देखते ही देखते लुप्त हो गई। इस घटना के घटने में कुछ सेकेंड लगे होंगे। कमाण्डर ली. जोर्नबाव को इसकी सूचना मिली। उक्त स्थान को खतरनाक घोषित करते हुए जोर्नबाव ने शीघ्राति-शीघ्र पर करने के लिए सैनिकों को आदेश दिया। सैनिकों को ढूंढ़ने के लिए विशेषज्ञों की एक टोली भेजी गई जो समीपवर्ती स्थानों से पूर्णतया परिचित थी। ढूँढ़-खोज का कार्य कई दिन तक चलता रहा, पर उनका कोई सुराग न मिल सका। इस घटना का विवरण पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ वन्डरफुल इवेन्ट्स” में मिलता है।

इसी से मिलती-जुलती एक घटना सन् 1856 में प्रशिया में घटी। 650 फ्रांसीसी सैनिकों का एक ग्रुप निकटवर्ती जर्मन चौकी पर हमला करने के लिए बढ़ रहा था। सभी सैनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस थे। अचानक हवा का हल्का बवण्डर आया और देखते ही देखते 645 सैनिक हवा में विलुप्त हो गये। बचे हुए पाँच सैनिकों के लिए यह घटना अचम्भित कर देने वाली थी। अब शेष सैनिकों ने उस स्थान की एक-एक इंच भूमि देख डाली, पर उनका कोई पता न लग सका। सेना की दूसरी टुकड़ी को जाकर इन पाँचों ने घटना की सूचना दी। महीनों खोज बीन चलती रही, पर उन सैनिकों को कोई चिन्ह तक नहीं मिल सका।

सन् 1939 में चीन और जापान के बीच युद्ध चल रहा था। चीनी सेना की एक टुकड़ी जिसमें 3000 सैनिक थे, का पड़ाव नानकिंग नामक स्थान पर पड़ा था। टुकड़ी का संपर्क सूत्र केन्द्र से निरन्तर बना हुआ था। एक दिन प्रातः अचानक केन्द्र से संचार संपर्क टूट गया। केन्द्रीय सैनिक कमाण्डर ने अविलम्ब उक्त टुकड़ी के सैनिकों की खोज आरम्भ कर दी। पड़ाव के स्थान पर सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र एवं खाद्य-सामग्री तो विद्यमान थे, पर वहाँ न तो किसी प्रकार के युद्ध का चिन्ह मिला और न ही सैनिकों के अवशेष। खोजी कुत्ते उक्त स्थान पर जाकर भौंकते रहे। वे वहाँ से आगे बढ़ने का नाम नहीं लेते थे। दो फर्लांग दूरी पर दो सैनिक सुरक्षा पहरे पर नियुक्त थे, मात्र वे ही बच सके। इन दोनों सैनिकों ने किसी प्रकार के बाहरी आक्रमण होने अथवा सैनिकों के वहाँ से भाग जाने की सम्भावना से इनकार कर दिया।

व्यक्तियों के अचानक लुप्त हो जाने की घटनाएँ नई नहीं हैं। अभी पिछले दिनों जून 1979 में लन्दन की श्रीमती क्रिस्टीन जान्सटन नामक महिला ने वहाँ के न्यायालय में सम्बन्ध-विच्छेद का एक विचित्र मुकदमा दायर किया। उक्त मुकदमे का आधार रोचक किन्तु आश्चर्यजनक था। त्याग पत्र में उल्लेख था कि उसके पति श्री एलन हवा में गायब हो गये, उस कारण वैवाहिक सम्बन्ध विच्छेद की अनुमति दी जाय। घटना इस प्रकार बताई जाती है कि श्रीमती क्रिस्टीन जान्सटन एवं उनके पति श्री एलन सन् 1975 के गर्मियों के अवकाश में उत्तरी ध्रुव की यात्रा पर गये। दोनों पति-पत्नी रूसी सीमा से लगे लैपलैण्ड में स्थित एक गिरजा घर के निकट से होकर गुजर रहे थे। शीतल वायु के झोंकों का आनन्द उठाते हुए दोनों आगे बढ़ रहे थे। पत्नी कुछ कदम आगे बढ़ गई। पीछे मुड़कर देखा तो मि. एलन का कहीं पता न था। इस घटना को घटित होने में मात्र कुछ सेकेंड लगे होंगे। श्रीमती क्रिस्टीन ने ढूँढ़ने के असफल प्रयासों के बाद स्थानीय लोगों से मदद माँगी। ‘फिनिश’ जाति के लोगों ने खोजी कुत्तों की सहायता से एलन के खोजने का अथक प्रयास किया, पर कुत्ते उस मोड़ पर जाकर रुक जाते थे जहाँ से ‘एलन’ गायब हुए थे। रूसी सेना का कैम्प निकट होने से सेना विशेषज्ञों का भी सहयोग लिया गया। पर अब तक इस रहस्य का उद्घाटन न हो सका कि एलन का क्या हुआ? इन तथ्यों पर अवलोकन करने के बाद, उनके बर्फ में दबने की सम्भावना के भी निवारण के बाद लन्दन की अदालत ने मि. एलन को “लापता” घोषित करते हुए श्रीमती क्रिस्टन के पक्ष में फैसला दिया। उन्होंने पुनर्विवाह कर लिया। मि. एलन कहाँ गए? यह अब तक पता नहीं चल पाया।

पूर्वार्त्त दर्शन में एक व्यक्ति के अन्तर्ध्यान होकर कहीं और, किसी और काया में प्रकट होने के प्रसंग विवेचन सहित मिलते हैं। ऐसी ही परकाया प्रवेश की अनेकों पाश्चात्य जगत में घटी घटनाओं का उल्लेख बीसवीं सदी में “अचेतन मनोविज्ञान की खोज” नामक पुस्तक में किया गया है। एक प्रमुख घटना इस प्रकार है-

रोड्स नगर के एक नागरिक ऐसेलबर्न बैंक से दस हजार का चैक भुनाकर निकले और सहसा गायब हो गये। सैकड़ों मील दूर जाकर वहाँ चीनी का व्यापार करने लगे। अपना नाम उन्होंने एलेक्स ब्राउन रख लिया। उसके पूर्व उन्होंने कभी चीनी का व्यापार नहीं किया था। दो माह बाद स्वप्न टूटा और पुनः वे अपने पुराने स्थान पर पहुँचे। परामनोवैज्ञानिकों ने घटना का अध्ययन करने के उपरान्त बताया कि ब्राउन नाम का एक दूसरा चीनी व्यापारी उस नगर में रहता था जिसकी मृत्यु कुछ ही दिनों पूर्व हुई थी। उसी की आत्मा उन दो महीनों ऐसेलवर्न पर सवार रही।

सेन्टपीटर्स वर्ग से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “वीकली मेडिकल जनरल” में छपी दूसरी घटना का वर्णन इस तरह है-

22 सितम्बर 1874 को रूस के यूराल पर्वत स्थित नगर औरेनवर्ग का एक धनी यहूदी बीमार पड़ा। डाक्टरों ने सन्निपात बताया। यहूदी इब्राहिम चारको ठीक तो हो गया पर उसका व्यवहार अब पहले जैसा न था। अब वह ऐसी भाषा बोलता एवं लिखता था जो किसी की समझ में न आती। भाषा विशेषज्ञों से संपर्क साधा गया तो उन्होंने बताया कि यह भाषा लैटिन थी, जिसकी जानकारी इब्राहिम को पहले नहीं थी। अधिक पूछने पर उसने बताया कि उसका नाम इब्राहिम चारको नहीं इब्राहिम उरहम है तथा घर ब्रिटिश कोलम्बिया में है।

संयोग ही था कि ठीक उसी दिन उसी समय ब्रिटिश कोलम्बिया में इब्राहिम उरहम नामक व्यक्ति बीमार पड़ा। बीमारी से उठते ही वह यहूदी भाषा बोलने लगा तथा अपना नाम इब्राहिम चारको बतलाता था। अपना घर उसने औरेनबर्ग बताया।

शक्ल सूरत दोनों की एक जैसी थी। परामनोवैज्ञानिकों ने उसे आत्म सत्ता का प्रत्यावर्तन माना। यह कैसे हुआ? इसका कोई वैज्ञानिक स्पष्टीकरण किसी परामनोवैज्ञानिक के पास नहीं है। शंकराचार्य के परकाया प्रवेश एवं देवदत्त के पाटलिपुत्र के राजा की काया में प्रवेश के घटनाक्रम भी इसी प्रकार के हैं। पूर्वार्त्त दर्शन इनकी समुचित व्याख्या भी करता है।

कभी-कभी कुछ व्यक्तियों को दूर घट रहे घटनाक्रमों की अनुभूति पूर्व से ही होने लगती है। ये प्रसंग भी ऐसे हैं जो विज्ञान की समझ की परिधि से बाहर के हैं। यद्यपि परामनोवैज्ञानिक के लिए ये प्रसंग सामान्य माने जाते हैं।

गेटे ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक बार वह अपने निवास स्थान वाइमार में थे तो उन्हें अचानक तीव्र अनुभूति हुई कि वहाँ से हजारों मील दूर सिसली में एक भयंकर भूकम्प आया है। गेटे ने इस अनुभूति के सम्बन्ध में अपने मित्रों को बताया लेकिन किसी ने गेटे की इस बात पर विश्वास नहीं किया कि बिना किसी आधार के, बिना किसी सूत्र के इतनी दूर की बात इस प्रकार कैसे मालूम हो सकती है? लेकिन कुछ दिन बाद आये समाचारों से पता चला कि ठीक उसी समय सिसली में वैसा ही भूकम्प आया था जैसा कि गेटे ने अपने मित्रों को बताया था।

पोलैंड की एक लड़की कुमारी मेरीना का प्रेमी स्टानी स्लोनिस जिसके साथ उसकी सगाई हो चुकी थी, प्रथम विश्वयुद्ध के दिनों में सेना में भरती होकर लड़ाई के मैदान में चला गया। युद्ध समाप्त होने के बाद अक्टूबर 1918 से वह लगभग नियमित रूप से काफी समय तक मसजरेंक (पोलैण्ड) के अधिकारियों का दरवाजा खटखटाती और अपने युवा मित्र के जीवित अथवा मृत होने की जानकारी पाने का आग्रह अनुरोध करती रही। मित्र का पता ठिकाना बताने के लिए कहने पर वह अपने एक स्वप्न का जिक्र करती और कहती कि उसका साथी एक अन्धेरी सुरंग में रास्ता ढूँढ़ रहा है। घोर अंधकार है, अन्धकार में रास्ता टटोलने के लिए उसके साथी ने मोमबत्ती जलाई, इसके बाद चारों ओर बिखरे पड़े मलबे को हटाने की कोशिश की। मलबा हटाते-हटाते वह थक गया। उसकी शक्ति जवाब दे गई। हार कर घुटनों के बल झुक गया और सिसकने लगा। मैरीना ने ठीक यही स्वप्न बार-बार देखा। परन्तु लोग उसकी बातों को सुनते-सुनते न केवल ऊब गए थे, बल्कि उसे पागल तक समझने लगे थे। कुछ समय उपरान्त उसके स्वप्न में थोड़ा सा परिवर्तन आया। अब वह स्पष्ट देखती है कि इंग्लैंड के मध्य प्रान्त में एक पहाड़ी है, उस पहाड़ी की चोटी के पास एक दुर्ग है। उस दुर्ग का बुर्ज टूटा हुआ है। वह टूटे हुए बुर्ज के मलबे तक पहुँचती है। वहाँ जाकर खड़ी होती है तो मलबे में से उसे अपने खोये हुए मित्र की जानी पहचानी आवाज सुनाई देती है, जो मदद के लिए पुकार रहा है। यह आवाज उन पत्थरों के नीचे से आ रही है। मैरीना ने मलबा हटाने की कोशिश की, पर मलबा था कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेता था। मलबा हटाते-हटाते वह बुरी तरह थक जाती है और निराश होकर हाँफती हुई वापस लौटती है। इसी निराश और हताशा के क्षणों में उसकी नींद टूट जाती है। अब यही सपना उसे बार-बार आता। मैरीना ने इन चिन्हों के आधार पर खोज करने के लिए अनेकों मित्र-परिचित व सम्बन्धियों से सहायता की याचना की। लेकिन स्वप्न में दिखे तथ्यों को यथार्थ सत्य मानने को कोई राजी नहीं हुआ। न ही किसी ने सहायता का आश्वासन तक दिया।

फिर भी मैरीना ने हिम्मत नहीं हारी। उसने अपनी अन्तःप्रेरणा को ही मार्गदर्शक माना और एकाकी अपने प्रिय मित्र की तलाश में निकल पड़ी। भूख-प्यास व भटकन की परवाह किए बिना, सड़कों के किनारे रात काटते हुए वह किसी तरह उस दुर्ग के पास पहुँचने में सफल हो गई। स्थानीय लोगों से अपनी बात कहने पर कुछ लोग सहायता करने को भी आगे बढ़ आये। सबके सम्मिलित प्रयास से दुर्ग का मलबा हटा तो भीतर के सुरंग का रास्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा। उस संकरे मार्ग से अपने मित्र को जीवित देखकर मैरीना हर्षातिरेक से विह्वल हो उठी। उसने अपने हाथों से चट्टान तोड़कर उसे बाहर निकाल लिया। उसका चेहरा पीला और सख्त पड़ गया था। इतना लम्बा समय उसने अपने पास इकट्ठे रखे हुए पनीर और शराब पर बिताया था। प्रकाश के लिए उसके पास मोमबत्तियाँ थीं उन्हीं का उपयोग किया था। उसका कहना था कि कैद रहने की स्थिति में वह अपनी प्रियतमा का ध्यान करता था व मन ही मन कहता था कि “तुम मुझे इस संकट से अवश्य उबारोगी।”

परोक्ष जगत के ये क्रिया कलाप जितने विचित्र हैं, उतने ही विलक्षण हैं प्रकृति एवं मन का यह समष्टिगत संसार। इनके रहस्यों को न कोई अभी तक समझ पाया है न आगे भी समझ पायेगा। “असम्भव” शब्द विज्ञान की डिक्शनरी में नहीं है, पर उपरोक्त घटनाक्रमों का क्या तर्क सम्मत समाधान है? इसका कोई उत्तर किसी के पास नहीं।


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