तत्व ज्ञान का तीसरा चरण

March 1986

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पृथ्वी पर जीवधारियों की संख्या बढ़ती ही रही है। एक जोड़ा कई बच्चे जनता है। इसलिए जब तक कोई विशेष आपत्ति न टूट पड़े, प्राणियों की संख्या बढ़ती ही रहती है। मनुष्यों की संख्या बढ़ना तो और भी अधिक तेजी से हो रहा है, क्योंकि उसे निर्वाह के साधन अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक आसानी से और अधिक मात्रा में मिलते जाते हैं। कामुकता के क्षेत्र में भी अन्य प्राणियों को उसने पीछे छोड़ दिया है। इस कारण भी उसकी संख्या बढ़ती ही जाती है।

किसी परिवार या नगर में पहले की अपेक्षा जनसंख्या बढ़ी होने के आधार पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि यहाँ प्रगति का वातावरण बन रहा है। देखा यह जाना चाहिए कि स्तर गिरा या उठा। स्तर के साथ व्यक्ति की गरिमा भी जुड़ी हुई है और उस समुदाय की भी जिसमें वह जन्मा एवं कार्य करता रहा। देश, धर्म, समाज और संस्कृति का जहाँ भी भान हुआ है वहाँ उसके मूल में ऊँचे स्तर के व्यक्ति रहे हैं, चाहे उनकी संख्या थोड़ी ही क्यों न रही हो?

जनसंख्या की भांति बढ़ती ही समृद्धि के आधार पर भी किसी व्यक्ति या समुदाय का महत्व नहीं माना जाना चाहिए। धनियों में सभी बुद्धिमान् नहीं होते। कितने ही ऐसे होते हैं। जो चोरी चालाकी का आश्रय लेकर सम्पन्न बन जाते हैं। इस प्रकार आया हुआ पैसा वैसा ही अवाँछनीय रास्ता बनाता है और दुर्व्यसनों में चला जाता है। बिना परिश्रम और बिना न्याय का धन आता हुआ तो दिखाई पड़ता है, पर वह जाता कुपात्रों के ही हाथ है। कमाने वाले उस धन की दुर्गति होते हुए स्वयं ही देख लेते हैं।

इसी प्रकार माँसलता, प्रतिभा, सुन्दरता, कला-कौशल आदि का भी कोई मूल्य नहीं है। उससे लोग आकर्षित भर होते हैं, पर उसके प्रति श्रद्धा या सम्मान प्रदर्शित नहीं करते, ऐसे सफल मनुष्य अगले दिनों किसी मुसीबत में फंस जायं तो कोई आँसू नहीं बहाता। न किसी को उनके न रहने पर कोई अभाव अखरता है। उनकी बात अलग है, जो उन्हीं की कमाई पर पलते थे।

फिर जीवन की सफलता किस कसौटी पर कसी जाय? और कैसे जाना जाय कि किस ने मनुष्य जन्म लेकर उसे सार्थक बनाया और दूसरों के लिए अभिनन्दनीय अनुकरणीय परम्पराएं छोड़ कर गया?

यह किस प्रकार बन पड़े? इसका एक ही तरीका है कि मनुष्य बहादुरी के साथ जिये। गौरव बहादुरी के साथ ही जुड़ा हुआ है। सेना में लड़ाई में जीतने या बहादुरी दिखाने वाले, या शहीद ही अभिनन्दन के पात्र बनते हैं। जंगल में सिंह वनराज कहलाता है क्योंकि उसका पराक्रम ऐसा है जो समूचे जंगल पर अपनी धाक जमाये रहता है। हाथी पहले लड़ाई में भी काम आते थे और जिस सेना में अधिक होते थे उसे जिताकर रख देते थे। अब भी वे जिस जुलूस में निकलते हैं, उसकी शोभा बढ़ा देते हैं।

मनुष्य शेर, हाथी या सेनापति तो नहीं बन सकता, पर लड़ाई के दूसरे मोर्चे उसके लिए खुले हुए हैं, जिन पर लड़कर वह आत्म गौरव और लोक सम्मान अर्जित कर सकता है।

इन मोर्चों में पहला मोर्चा है अपनी दुर्बलताओं की मंडली को परास्त करके रख देना। सामान्य मनुष्यों को लोभ, मोह, काम, क्रोध, व्यसन आदि दुर्गुण इस प्रकार दबोच लेते हैं कि वह किसी काम का नहीं रहता है। अपनी आँखों में स्वयं गिरता है और दूसरों की आँखों में भी। यह छापामार शत्रु ऐसे हैं जो अपने ही भीतर घुसे बैठे रहते हैं, पर दीख नहीं पड़ते। इस पर भी चोट इतनी करारी करते हैं कि उनका दबोचा आदमी किसी योग्य नहीं रह जाता। घटिया और गिरा हुआ व्यक्तित्व लेकर जहाँ भी जाता है, वहीं अपमानित होता है। सफलताएं ऐसे व्यक्ति को दूर से ही नमस्कार करती हैं। इनके विरुद्ध मोर्चा लगाना सहज नहीं है। जन्म-जन्मान्तरों के कुसंस्कारों से जूझना पड़ता है और वे जब भी अवसर पाते हैं तभी चढ़ दौड़ते हैं। हार नहीं मानते इस समुदाय के साथ जीत लिया जाय तो समझना चाहिए कि बड़ी बात हुई।

आदर्श जीवन जीने के लिए आत्म संयम बरतना पड़ता है। इन्द्रियसंयम, अर्थसंयम, समयसंयम, विचारसंयम वही बरत सकता है, जिसमें समझदारी, ईमानदारी जिम्मेदारी और बहादुरी की समुचित मात्रा हो। इस मोर्चे पर हारा हुआ व्यक्ति अपना, समय, श्रम, धन और यश सभी गंवा बैठता है। इसलिए इस प्रकार की रणनीति अपनानी पड़ती है जिससे इस क्षेत्र में भी विजयी बनकर तपे सोने की तरह खरा सिद्ध होकर निकला जाय।

समाज का तीसरा मोर्चा है। उसमें अनैतिकता, अन्ध मान्यताएँ, कुरीतियाँ, पग-पग पर बिखरी पड़ी हैं। वे अपने साथ सम्मिलित होने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देती हैं और इनकार करने पर विरोध, उपहास ही नहीं करतीं पर नीचा दिखाने का भी प्रयत्न करती हैं। दुष्टों के समुदाय में रहकर भले आदमी की खैर नहीं। वे समझते हैं, ईमानदार त्यागी कहलाकर हमें अपनी तुलना में हेय ठहरा रहा है। इसके अतिरिक्त उन्हें यह भय भी रहता है कि हमारी पोल न खोल दे, बदनाम न कर दे, आमदनी की राह में रोड़े न अटका दे। इस पर कुकल्पना से प्रेरित होकर वे अकारण शत्रुता पर उतर आते हैं और जैसे ही बन पड़ता है, षड्यन्त्र रचकर नीचा दिखाते हैं। इन सारी कठिनाइयों को जो झेलता रहे और अपने मार्ग पर चट्टान की तरह अविचल खड़ा रहे उसे बहादुर ही कहना चाहिए।

घर परिवार, मित्र सम्बन्धी, सभी तथाकथित हितैषियों का एक ही परामर्श रहता है कि कमाओ, खाओ जो समय बचे उसे इन्हीं लोगों के मोद-प्रमोद में लगाओ। मन संयम बरतो, न आत्मोत्कर्ष की बातें करो, न समाज सेवा की। इस प्रकार काम करना तो दूर, जो ऐसी सलाह देते हैं, उनसे भी दूर रहने की कहते हैं और मिलने जुलने का समाचार सुनते हैं जो जल-भुन कर खाक हो जाते हैं। घर की बर्बादी का लाँछन लगाते हैं। इन लोगों से कडुए मीठे शब्दों में किसी प्रकार निपटना ही पड़ता है। इनकी बात मानें तो जीवन का लक्ष्य नष्ट होता है। न मानें तो कलह उत्पन्न होता है। इस मोर्चे पर पूरी चतुराई की रणनीति बनानी पड़ती है। अन्यथा नर-पशुओं की बिरादरी में बंधे रहना पड़ता है।

स्वराज्य तो मिल गया, राजनैतिक लड़ाई तो बन्द हुई पर दुष्प्रवृत्तियाँ तो हर क्षेत्र में इतनी भरी पड़ी हैं कि उनसे जूझना ही नहीं उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन भी करना है। पहले मुट्ठी भर अंग्रेज थे, अब सामने कुरीतियां, दुष्प्रवृत्तियों के पक्षधरों की सेना खड़ी है। इनसे निपटना जेल जाने से नहीं हो सकता है। जन-जन के मन-मन को बदलना है। उलटे को उलट कर सीधा करना है। यह बहुत टेढ़ा काम है। पर करना तो उन्हीं को पड़ेगा जो अपने को जीवित या जागृत मानते हैं।

तत्व ज्ञान के तीसरे चरण के कुछ सूत्र हैं-

- अनीति से हर मोर्चे पर जूझना है। चाहे वह भीतर छिपी हो या बाहर खम ठोक रही हो।

- औचित्य का संस्थापन हर क्षेत्र में करेंगे। उसके लिए अपने पराये का पक्षपात न बरता जायेगा।

- बहादुरी का पूरा परिचय साहसी, शूरवीरों की तरह दिया जायेगा। पर साथ ही समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी का भी पूरी तरह निर्वाह किया जायेगा।

इन सूत्रों को विचारते रहा जाय और सोचते रहा जाय कि चक्रव्यूह में सब ओर से फँसे होने पर भी अपनी रणनीति कैसे बनाई जाय। कहाँ, कैसे, किन परिस्थितियों और दुष्प्रवृत्तियों से टकराने के साथ विजय प्राप्त करने का मनोरथ पूरा करके रहा जाय। तत्वज्ञान का यह तीसरा चरण पहले दो की तुलना में अधिक जटिल भी है और साथ ही अधिक महत्वपूर्ण भी।

प्रतीक पूजा की पद्धति और प्रक्रिया

आध्यात्म क्षेत्र के उत्कर्ष विकास में प्रतीक पूजा को माध्यम बनाकर इस विद्या के प्रवीण-पारंगतों ने असाधारण दूरदर्शिता का परिचय दिया है। यों विज्ञ विचारशील अपनी मानसिक समस्याओं का समाधान और उत्कर्ष का प्रयोजन अपने संकल्प बल के सहारे ही पूर्ण कर लेते हैं, पर वैसा सर्वसाधारण से नहीं बन पड़ता। यह क्षेत्र नया होने से- पूर्व संचित अनुभव की बहुलता न होने से- प्रतीकों के माध्यम से शिक्षण की गाड़ी आगे बढ़ाई जाती है।

बाल कक्षा के विद्यार्थियों की कठिनाई को समझते हुए उस क्षेत्र के विशेषज्ञों ने कितने ही उपाय निकाले हैं। प्रथम पुस्तक सचित्र होती है। उसमें ‘क’ के साथ कबूतर, ‘ख’ के साथ खरगोश, ‘ग’ के साथ गधा और ‘घ’ के साथ घड़ी के चित्र बने होते हैं। इन वस्तुओं या प्राणियों को बच्चों ने प्रायः देखा है। यदि नहीं देखा है तो उसकी आकृति-प्रकृति का ढांचा उनके मन पर बिठा दया जाता है। अब इन चित्रों की स्मृति के साथ अक्षर क्रम का तारतम्य जोड़ना कुछ अड़चन भरा तो है, पर बालकों की अनगढ़ मनःस्थिति को देखते हुए वही उपाय सरल और सीधा रह जाता है। किण्डर गार्डन पद्धति में लकड़ी के टुकड़ों को जोड़कर अक्षर बनाये जाते हैं। बालफ्रेम में लगी गोलियों के सहारे बच्चे गिनती गिनना जल्दी और सही तरीके से सीख जाते हैं।

चित्रों के सहारे अनेक प्रकार के पेड़-पौधे, पक्षी, जानवर आदि का परिचय घर बैठे प्राप्त कर लिया जाता है। इस प्रक्रिया में चित्र बहुत सहायक होते हैं। प्राथमिक शालाओं की अधिकांश पुस्तकें चित्र समेत ही होती हैं। चित्रमाला सीरिज की किताबें बड़े बच्चे अधिक चाव से खरीदते, पढ़ते और साथ ही उनसे प्रभाव एवं अनुभव भी अर्जित करते हैं।

यह हो सकता है कि किसी की बड़ी आयु हो गई हो और दैनिक व्यवहार में आने वाले विषयों को छोड़कर अन्यान्य विषयों में उसकी जानकारी नगण्य हो, इतनी कम जितनी कि बच्चों की होती है। अध्यात्म विषय विशेष रूप में ऐसा ही है, जिसकी वास्तविकता के सम्बन्ध में लोग कम ही जानते हैं। विडम्बना यह बन पड़ी है कि अनेकानेक संप्रदायों ने परस्पर इतने विरोधी प्रचलन चलाये हैं कि उनमें असाधारण भिन्नता है। एक-दूसरे से बहुत बातों में भिन्न ही नहीं होते, वरन् विपरीत भी पड़ते हैं। ऐसी दशा में तथ्यों को किस प्रकार जाना समझा जाय- यह एक बड़ी कठिनाई रहती है। विषय तथा सत्य और तथ्यों को समझने के लिए प्रयत्नशील जिज्ञासुओं के सामने तो और भी बड़ी उलझन रहती है कि क्या मानें और क्या न मानें? विशेषतया यह कठिनाई उनको और भी हैरान करती है, जिनकी अध्यात्म विषय में गहरी पैठ नहीं है। इन्हें इस प्रकार से उस अनजान विषय में बालक ही कहा जायेगा, भले ही वे कामकाजी विषयों में कितने ही चतुर क्यों न हों।

इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए भारतीय तत्व वेत्ताओं ने नौसिखियों के लिए प्रतीक पूजा का प्रचलन किया है। दृश्यों के, कृत्यों के साथ आदर्शों, तथ्यों को इस प्रकार जोड़ा है कि उनकी सूझ-बूझ की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी पड़ती है। यह पूर्णतः एक विज्ञान सम्मत, तर्क सम्मत प्रक्रिया है।

मन्दिरों में देवताओं की पुरुषाकृति प्रतिमायें प्रतिष्ठित की जाती हैं। उनमें कर्मकाण्डों सहित प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है और यह मान्यता बना ली जाती है कि इसमें देवताओं का निवास है। इस प्रचलन में भावना की महत्ता स्पष्ट है। यदि प्राण प्रतिष्ठा न की जाय तो वे ही प्रतिमायें मूर्तिकारों के गोदाम में भरी रहने पर मात्र ‘असवाब’ या बड़े खिलौने भर रह जाती हैं। यहाँ प्रतिमा का महत्व कम और उस प्रक्रिया का अधिक है, जिसके आधार पर उसे प्राणवान कल्पित किया गया।

मूर्तियों को प्रणाम करते हैं। भोग लगाते हैं। सेवा अर्चा करते हैं, पर वह बदले में कुछ भी नहीं कहती। धन्यवाद तक नहीं देती, फिर भी साधक की श्रद्धा कम नहीं होती। यह एक पक्षीय सद्भावना का निर्वाह है। हम किसी के साथ नेकी करें, तो यह आशा न रखें कि यह इसका प्रतिफल चुकायेगा ही। प्रतिमा-पूजन में भावना की महत्ता के अतिरिक्त एक पक्षीय सद्व्यवहार निर्वाह को अपनाने का प्रतिपादन होता है।

देव प्रतिमायें नवयुवकों जैसी होती हैं। वे कभी वृद्ध नहीं होती। इस प्रतिपादन में भी यह निर्धारण है कि यदि मनुष्य देवत्व का पक्षधर है तो उसे मरण पर्यन्त युवकों जैसी स्फूर्ति और आशा बनाये रखनी चाहिए।

देवियों की प्रतिमायें नवयुवतियों जैसी होती हैं और उन्हें मातृ भाव से पूजा जाता है। यह दृष्टि नारी मात्र के साथ होनी चाहिए। उन्हें देवियाँ समझें। मातृ बुद्धि से निहारें। कुदृष्टि का आरोपण करके उन्हें रमणी, कामिनी, भोग्या स्तर की वेश्या न समझें। उसकी शृंगार सज्जा को श्रद्धा सम्वर्धन का निमित्त समझें, न कि वासना भड़काने का। देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के पीछे जो आदर्श सन्निहित है, जिस तत्व ज्ञान का समावेश है उसी को प्रतिमा पूजन का सार एवं रहस्य मानना चाहिए।

अनेक धर्मकृत्यों में विशेषतया विवाह प्रसंगों में चूल्हा, चौकी, कुआँ, घूरा आदि पूजने का रिवाज है। तर्क की दृष्टि से इन उपकरणों के पूजन का रहस्य न तो समझा जा सकता है और न समझाया जा सकता है, पर जब प्रत्येक काम में आने वाले जड़-चेतन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाता है कि मानवी गरिमा के साथ यह तथ्य जुड़ा हुआ है कि कृतज्ञता हमारे भावना क्षेत्र में महत्वपूर्ण तथ्य बनकर प्रतिष्ठित रहे। हम कभी भी- किसी भी उपयोगी के प्रति कृतघ्न न बनें। विश्वकर्मा जयन्ती के दिने शिल्पी लोग अपने-अपने उपकरणों को पूजते हैं। दशहरा के दिन क्षत्रिय समाज में अस्त्र-शस्त्रों के पूजन करने का रिवाज है। व्यवसायी बहीखाता पूजते हैं और मुंशी लोग कलम दवात का अभिवन्दन करते हैं।

मरे हुए पूर्वजों के लिए श्राद्ध तर्पण करते हैं। इसमें कर्मकाण्डों के माध्यम से पूर्वजों का स्नेह-वात्सल्य पोषण स्मरण हो जाता है और पिण्डदान के माध्यम से दान-पुण्य की आवश्यकता- महत्ता भावना- क्षेत्र में सजग होती है।

विवाह के समय पति-पत्नी यज्ञाग्नि की परिक्रमा करते हैं। इतने भर से उनके अन्तराल में एक गहरी छाप पड़ती है कि अब हम एक-दूसरे के प्रति समर्पित हो गये और जीवन भर के लिए बँध गये। यह भावना न हो तो अँगीठी के या गैस के चूल्हे के इर्द-गिर्द बीस बार फिर लेने पर भी कोई श्रद्धा नहीं जगती और आत्मीयता की डोर नहीं बंधती।

तुलसी, आँवला, पीपल आदि की पूजा और उनके चरणों में जल चढ़ाने का तात्पर्य है कि वृक्ष मनुष्य समुदाय के लिए, प्राणियों के लिए, जीवन का आधार हैं, जिनके सहारे हमारा जीवन चलता है, उनका संरक्षण-अभिवर्धन हमारा कर्त्तव्य है।

दीवाली की रात को जलने वाले दीपक सघन अन्धकार में जगमग पैदा कर देते हैं। प्रतिभावानों का सहचरत्व संगठन भी ऐसा ही चमत्कार उत्पन्न करता है। होली बसन्त में गिरा बिखरा कूड़ा-करकट जलाकर धूलि नाली आदि की सफाई करके स्वच्छता का संदेश हृदयंगम करने और सर्वसाधारण तक उसकी प्रेरणा पहुँचाने की प्रतीक है।

शिखा, यज्ञोपवीत धारण के साथ यह तथ्य जुड़ा हुआ है कि इन प्रतीकों के माध्यम से हम गायत्री मन्त्र की शिक्षा और प्रेरणा को निरन्तर हृदयंगम किये रहें।

इसी प्रकार प्रत्येक पर्व-त्यौहार के पीछे कुछ शिक्षाएं हैं। गोवर्द्धन का त्यौहार वस्तुतः गो-संरक्षण-सम्वर्धन के लिए उत्साह भरता है। विद्या की देवी सरस्वती की, बसन्त पंचमी को जन्म जयन्ती मनाई जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि हममें से कोई अशिक्षित-अविद्याग्रस्त न रहे। शिक्षा प्रसार के लिए जितने भी उपाय सम्भव हों, उन सभी को तत्परता पूर्वक कार्यान्वित किया जाय। गुरु पूर्णिमा में बड़ों का अनुशासन अपनाने की शिक्षा है।

छोटे बच्चों के अन्नप्राशन आदि संस्कार किये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि बालकों के आहार की नियमितता और सुव्यवस्था पर पूरा ध्यान रखा जाय। विद्यारम्भ संस्कार कराने का तात्पर्य है कि न केवल भरण-पोषण वरन् शिक्षा एवं सुसंस्कारिता का अभिवर्धन भी समूचे परिवार का कर्त्तव्य है। चिंता में शरीर को जलाना अन्त्येष्टि यज्ञ है। हमारे अंग-अवयव यज्ञीय उच्च प्रयोजन के लिए समर्पित रहें। यह संदेश उस प्रक्रिया में समाहित है। तीर्थयात्रा में जनसंपर्क साधने और जहाँ-तहाँ की समस्याओं का समाधान करने के लिए परिभ्रमण करने को एक उपयोगी पुण्य कर्म माना जाय। धनदान करने की स्थिति न हो तो भी श्रमदान तो सर्वसुलभ है ही। नदी-सरोवरों की देव मान्यता का कारण भी यही है कि जलाशयों को शुद्ध पवित्र और गहरा रखने में हम चूक न करें।

यज्ञ में अपने उपयोग की तथा आरोग्यवर्द्धक वस्तुओं को अपने लिए उपभोग न करके वायुभूत बनाकर विश्वकल्याण के लिए बिखेरा जाता है। यह परमार्थ भावना का प्रशिक्षण है। अग्नि पूजा में उसे ज्वाला की ऊष्मा और चमक का प्रतीक माना जाता है। अग्नि के संपर्क में जो भी आता है, उसी के समतुल्य हो जाता है। हमारा जन-संपर्क ऐसा होना चाहिए किये गये-गुजरों को भी अपने समतुल्य बनाले ओर अपने पास भस्म को जीवन का अन्तिम अवशेष के रूप में रखकर जो भी मिले, उसे संसार के निमित्त वितरित कर दे।

अहिंसा का पालन करें, पर अनीति से संघर्ष के लिए सदा साधन संजोकर रखें, यह ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ का दण्ड धारण- अनुशासन है। हर श्रेष्ठ काम के लिए स्नान के उपरान्त तत्पर होने का प्रयोजन यह है कि हमारे शरीर मन, व्यवहार, उपार्जन आदि में पवित्रता का समुचित समावेश रहे। स्वस्ति वाचन और शान्ति पाठ मंत्रों में वातावरण को शान्तिमय और कल्याणकारक बनाने का निर्देशन है।

देवपूजा में चन्दन, पुष्प, धूप, दीप की प्रस्तुत करने का तात्पर्य है कि हम अपना जीवन प्रकाशोत्पादक तथा चन्दन की तरह समीपवर्तियों को सुगन्धित बनाने का प्रयास करें। अक्षत चढ़ाने का तात्पर्य यह है कि हमारी कमाई का एक अंश सत् प्रयोजन के लिए नियमित रूप से लगता रहे।

इसी प्रकार देव-संस्कृति में अनेकों चित्र-विचित्र प्रथा प्रचलित हैं, पर उन सबके पीछे प्रतीकों के माध्यम से सद्-प्रेरणा अपनाना ही प्रयोजन है।


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