रोग निवारण हेतु मनोबल का उपयोग

March 1986

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रोग पहले मन में प्रवेश करते हैं पीछे शरीर में उभरते हैं। शरीर पर चेतना का अधिकार है। चेतना में विकृतियाँ उत्पन्न होने पर शरीर भी विकारग्रस्त होता है। जिस आहार-विहार के अनाचार की निन्दा की गई है और रोगों का निमित्त कारण बताया गया है, वह वस्तुतः मानसिक दोष ही है। असंयम मन में उभरता है। उसका प्रयोग भर इन्द्रियों द्वारा होता है। मन पर कोई तीव्र आघात लगे तो बड़ी से बड़ी लालसा भी तत्काल समाप्त होगी। मन लगने तक ही इन्द्रियों में उत्साह रहता है। मन के शान्त होने पर अनाचार बन पड़े ऐसा हो ही नहीं सकता।

शरीर पर मन का अधिकार है। मस्तिष्क जैसे ही निद्राग्रस्त होता है वैसे ही शरीर मृतक तुल्य निःचेष्ठ हो जाता है। शोक, हानि विग्रह जैसे समाचार सुनते ही चित्त बेचैन हो जाता है। भूख प्यास, निद्रा सभी गायब हो जाती है। क्रोध की अवस्था में शरीर की उतनी ही क्षति होती है जितनी तेज बुखार में। मन लगने पर काम अच्छा और जल्दी होता है किन्तु यदि अन्यमनस्कता छाई रहे तो बेगार भुगतने की तरह किया हुआ काम अधूरा और घटिया ही रहेगा। चेहरे की तेजस्विता और मुर्दनी बहुत कुछ मन की स्थिति पर अवलम्बित रहती है। मात्र शरीर रचना ही जन्मजात होती है। आकृति पर आमतौर से प्रकृति ही छाई रहती है। उसी को देखकर लोग किसी के व्यक्तित्व का स्तर परखते हैं।

मनोविकार रोगों के जन्मदाता हैं। अनेक प्रकार के असंयमों का सृजन भी विकृत मन ही करता है। इसके अतिरिक्त क्रोध, आवेश, निराशा, भय आशंका चिन्ता आदि का भी ऐसा कुप्रभाव पड़ता है कि अच्छा खाते-पीते और सुविधाएँ रहते हुए भी शरीर क्षीण होता जाता है। इसके विपरीत यह भी देखा गया है कि हँसोड़, उत्साही और निर्द्वन्द्व मनुष्य घटिया खान-पान रहते हुए भी हट्टे-कट्टे रहते हैं और निरोग देखे जाते हैं।

चिकित्सा उपचार में भी श्रद्धा विश्वास का भारी योगदान रहता है। जिस चिकित्सक पर- जिस औषधि पर गहरा विश्वास हो, उसका प्रभाव विलक्षण होता है और रोग मुक्ति का सुयोग जल्दी ही बन जाता है। किन्तु यदि अविश्वास हो, सन्देह या आशंका रहे तो न चिकित्सक का उपयुक्त प्रभाव पड़ेगा और न उनकी दी हुई दवा कारगर सिद्ध होगी।

देखा गया है कि “शंका डायन- मनसा भूत” बाली उक्ति अनेक बार सही सिद्ध होती है। भूत पलीत हो या न हो पर उन पर विश्वास करने वाले तो अवश्य ही हावी रहते हैं। अन्धेरे में दौड़ता हुआ चूहा भी भूत लगता है और विश्वासी मरघट के समीप ही खेतों में काम करते रहते हैं, झोंपड़ी बनाकर बाल-बच्चों समेत रहते हैं। उन्हें खटका तक नहीं होता।

ग्रह नक्षत्रों की दशा विपरीत होने की बात जिनके मन में जम जाती है उनका मन काम में हाथ डालते हुए भी डरता है और असमंजस की स्थिति में काम प्रायः उलटा ही पड़ता है। इससे देव प्रतिकूल होने की बात पर ओर भी अधिक विश्वास जम जाता है। ऐसे व्यक्तित्वों का भविष्य अंधकारमय ही बनता जाता है। सामने आये हुए सुयोग का भी वे लाभ नहीं उठा पाते।

छोटे रोग को बड़ा मान लेने पर वह विपत्ति बन जाता है। शरीर में भरा हुआ विजातीय द्रव्य जितनी हानि पहुँचाता है, उससे अनेक गुनी हानि मन की कुशंका में उत्पन्न होती है। जो जल्दी मरने की बात सोचते रहते हैं उसका सोचना ही आधी आयु को खा जाता है। जितने व्यक्ति मौत से मरते हैं, उससे अधिक लोग मौत के भय से मर जाते हैं।

आरोग्य के सम्बन्ध में भी यही बात है। जिन्हें अपने दीर्घ जीवन पर विश्वास है उनका दुर्बल शरीर भी लम्बी आयु तक साथ देता रहता है। बड़े रोग को छोटा गिनने की लापरवाही तो नहीं करनी चाहिए किन्तु ऐसा भी नहीं होना चाहिए। किन्तु रोग होते ही घबरा जाना और अपने तथा घर वालों के हाथ-पैर फुला देना। प्रकृति के अनुरूप आहार-विहार को नये सिरे से ढाल लिया जाय तो शरीर की जीवनी शक्ति में ही इतनी क्षमता विद्यमान है कि वह बिगाड़ को सुधार दे। प्रकृति ने शरीर दिया है तो उसके साथ इतनी क्षमता भी दी है कि टूट-फूट की मरम्मत भी करती रहे। रोग वस्तुतः प्रकृति की भीतरी क्षमता के अनुरूप उभरते और समाप्त होते रहते हैं। चिकित्सा का प्रधान कार्य रोगी का मनोबल बनाये रहना है। जितना काम दवा करती है उससे कहीं अधिक रोगी का धैर्य, संयम और विश्वास काम करता है। इन्हें गँवा बैठने पर तो रोगी बेमौत मरने की तैयारी करता है।

मानसिक चिकित्सा का एक स्वर्णिम सूत्र यह है कि जिस अवयव में कष्ट हो उस पर ध्यान एकाग्र किया जाय और भावना की जाय कि इस स्थान की जीवनी शक्ति रोग द्रव्य को मार भगाने में तत्परतापूर्वक जुट रही है और उसका उपयोगी प्रभाव भी हो रहा है। इसमें उस स्थान पर उसी भावना से हाथ फिराते रहने का भी अच्छा प्रभाव होता है।

प्राण चिकित्सा के उपचारक हाथ फिराकर या उँगलियों के छोरों का स्पर्श कराकर रोगों की चिकित्सा करते हैं। चुम्बक को उस स्थान पर फिराकर भी चिकित्सा की जाती है। रंगीन बोतलों में पानी भरकर सूर्य की धूप में रखने और उस पानी के उपयोग से रोग निवारण करने तथा होम्योपैथी चिकित्सा में अधिकांश लाभ रोगी के मन पर विश्वास जमा देने के कारण मिलता है। यह प्रभाव उपचार प्रक्रिया से काम किसी प्रकार नहीं होता। सन्त महात्मा अपनी धूनी की भभूत देकर अनेकों का रोग निवारण करते देखे गये हैं। इसमें उनकी प्राण शक्ति का जितना योगदान होता है उतना ही रोगी के विश्वास करने का भी होता है।

अपने विश्वास की शक्ति को दूसरों के माध्यम बनाकर प्रयुक्त करने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि हम बाल क्रीड़ा न करें। यथार्थता को समझें। अपने विश्वास की क्षमता की गरिमा समझें और बिना किसी का अहसान लिए स्वयं अपने लिए प्रयुक्त करें। यह सभी प्रकारान्तर से “स्व संकेत” (आटो सजेशन) हैं। इन्हें जब सीधे अपने लिए या दूसरों के लिए प्रयुक्त करके उसका प्रत्यक्ष लाभ देखा जा सकता है तो तथ्य से अनजान रहकर पराश्रित क्यों बने रहें? अपनी सम्पन्नता और विभूति की गौरव गरिमा स्वयं ही क्यों न अनुभव करें। शक्ति अपनी है तो उसका श्रेय किसी और को क्यों लूटने दें।

बीमारियों के सम्बन्ध में अपनी अत्यधिक क्षमता- संकल्प शक्ति की प्रखरता का उपयोग हमें स्वयं करना चाहिए। पीड़ित अंग पर अपनी भावनाओं को केन्द्रित करना चाहिए और अनुभव करना चाहिए कि अन्तराल में सन्निहित जीवनी शक्ति अपनी मानसिक शक्ति के समन्वय से दूनी सामर्थ्यवान बन रही है और वैसा ही प्रयुक्त करने में सफल हो रही है जितना कि मनोबल के मिल जाने से औषधि उपचार दूना काम करता है। यह एक प्रकार की “बायोफीड बैक” प्रक्रिया है।

रोग में चिकित्सा की मनाही नहीं है। यदि उपचार करना ही हो तो प्राकृतिक चिकित्सा या वनौषधि उपचार का आश्रय लेना चाहिए। उसमें मलों के निष्कासन, विश्राम और शिथिलीकरण जैसे मनोवैज्ञानिक उपचारों तथा जीवनीशक्ति सम्वर्धन का समन्वय है। उसमें एक रोग को मारने के लिए दूसरा रोग उत्पन्न करने वाली हानिकारक प्रक्रिया से बचाव होता है। ऐलोपैथी उपचार में तो रोग मारण के नाम पर जीवनी शक्ति को ही मारा जाता है। चिकित्सा चलते रहने के साथ भी यदि मानसिक क्षमता संकल्प बल का भी प्रयोग किया जाता रहे तो इससे अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में और अधिक जल्दी लाभ मिलने की आशा है।


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