गायत्री का युग्म है- यज्ञ और सावित्री का- सविता। गायत्री जप अनुष्ठान की पूर्ति पर यज्ञ की व्यवस्था करना आवश्यक माना गया है। सामान्य जप में भी यदि सम्भव हो तो तिल, घी, शक्कर और जो सुगन्धित पौष्टिक वनस्पतियाँ सम्भव हों उन्हें मिलाकर 24 आहुतियाँ तांबे के या मिट्टी के बने कुण्ड में दी जा सकती है। नित्य न बन पड़े तो महीने में एक दिन संक्राति के दिन अथवा पूर्णिमा को हवन कर लेना चाहिए।
अनुष्ठानों के अन्त में दोनों प्रकार के विधान हैं। एक प्रतिदिन का, दूसरा अन्तिम दिन पूर्णाहुति का। दोनों में से जिसमें सुविधा हो उस उपचार को अपना लेना चाहिए।
गायत्री व्यक्तिगत साधना है। उसमें “नः” शब्द बहुवचन परक आता तो है। तो भी यह “नः” (याने हम सब) शब्द निजी परिवार या निजी संपर्क क्षेत्र तक सीमित है। उस व्यक्तिगत साधना को एकान्त में, किसी शुद्ध वातावरण वाले स्थान में बैठकर करने का विधान है। निजी अनुष्ठान में सार्वजनिक सहयोग का निषेध है। इसे तो अपनी सामर्थ्य भर स्वयं ही करना चाहिए। हवन प्राचीन काल में जप का दशांश होता था। अब महंगाई की परिस्थितियों को देखते हुए शतांश की संगति बिठा दी गई है। शुद्ध गो घृत मिलना कठिन हो गया है। इसलिए जड़ी-बूटी पंचाँग के अलावा तिल, गुड़ और थोड़ा सा गौ दुग्ध किसी प्रकार मिल सके तो उतने से ही काम चला लेना चाहिए। चर्बी मिले वेजीटेबिल की अपेक्षा तो मात्र तिल का हवन कर लेना भी अच्छा है। चन्दन चूरा, देवदारू चूरा आदि मिल सके तो अभाव में उससे भी परम्परा की पूर्ति हो सकती है।
सावित्री का सविता सूर्य है। उसके लिए सूर्योपस्थान आवश्यक है। सूर्य के दर्शन तो प्रातःकाल स्वर्णिम आभा रहने तक ही हो सकते हैं। पीछे तेज धूप हो जाने पर दर्शन करने से आँखें खराब होती हैं। तब जल में सूर्य की परछाई देखकर उसके ध्यान में सविता के इष्ट की उपस्थिति मानी जा सकती है।
सावित्री सामूहिक है। जब अनेक व्यक्तियों को जप अनुष्ठान यज्ञ में सम्मिलित करके वह संकल्प पूरा किया जाता है, तब वह सावित्री बन जाती है। सूर्य को ‘सप्त ऋषि’ अर्थात् सात रंग की किरणों वाला और ‘सहस्रांशु’ सहस्र किरणों वाला कहा गया है। नवग्रहों का अधिपति होने से उसे नवधिपति भी कहते हैं। इस आधार पर कुण्डों की संख्या निर्धारित कर सामूहिक यज्ञ किया जा सकता है। सामूहिक अर्थात् सार्वजनिक, जिसमें अनेकों लोग सम्मिलित हों। अनेकों कुण्ड हों। अनेकों व्यक्ति सम्मिलित हों। जहाँ सार्वजनिक धन का उपयोग किया जाय, वह सविता यज्ञ है।
व्यक्तिगत जीवन के दोष-दुर्गुणों, संचित कुसंस्कारों का निवारण करने के लिए, व्यक्तिगत मेधा, प्रज्ञा प्रतिभा, श्रद्धा बढ़ाने के लिए वेदमाता गायत्री की उपासना की जाती है। इससे मनुष्य का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत होता है। इसलिए उसे देव माता भी कहा गया है। सावित्री विश्वमाता है उसका प्रभाव व्यक्ति विशेष तक सीमित न रहकर विश्वव्यापी पड़ता है। जनमानस का परिष्कार, लोककल्याण, वायुमण्डल की शुद्धि, वातावरण की परिष्कृति यह सब सावित्री शक्ति के प्रतिफल हैं। उसमें “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना सन्निहित है।
इन दिनों मनुष्य व्यक्तिगत कठिनाइयों से ही संत्रस्त है। व्यक्तिगत भ्रष्टता ही बढ़ी हुई है। व्यक्तिगत आकाँक्षाओं की ही प्रबलता है। इसलिए उस स्तर के लोगों को गायत्री उपासना करनी होती है। जिन साधकों को स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि शान्ति आदि निजी आकाँक्षा है उन्हें गायत्री साधना का अवलम्बन लेना ही उचित है।
जिनकी अहन्ता मिट गई, जो निस्पृह हो गये, जिनने भव-बंधन तोड़ डाले, उन जीवनमुक्तों का स्वार्थ विकसित होकर परमार्थ बन जाता है। उन्हें उसी की चिन्ता रहती है, वह ऋषि की वाणी बोलता है- “न मुझे राज्य चाहिए, न स्वर्ग, न मुक्ति। दुःखीजनों के दुःखों को दूर करने की ही एक मात्र कामना है। भगवान बुद्ध ने भी मरते समय यही कहा था कि “जब तक संसार का एक भी प्राणी बन्धन में बँधा है तब तक न मुझे स्वर्ग में जाना है न मुक्ति पानी है। मैं इन दुखियारों का दुःख दूर करने के लिए बार-बार जन्मता और मरता रहूँगा।” यही है सावित्री का तत्वज्ञान।
गायत्री और सावित्री का अन्तर समझने के लिए दीपक और सूर्य का उदाहरण ठीक पड़ता है। दीपक अपने घर में प्रकाश भर देता है। निजी काम-काज के लिए वह पर्याप्त भी है। उसे जलाना सुगम है। कोई बड़ा जोखिम भी नहीं है। तनिक-सी सावधानी से उसका उपयोग सदा सर्वदा होता रहता है। उसके प्रयोग की परम्परा पीढ़ियों से चली आ रही है। उसे आँख खोल कर देखा भी जा सकता है। त्राटक साधना में उस पर दृष्टि भी जमाई जाती है, पर इससे आँखों को कोई हानि नहीं होती।
सूर्य की बात बड़ी है। उसका प्रकाश सर्वत्र फैलता है। सौर-मण्डल के सभी ग्रह-उपग्रह उससे प्रकाशवान होते हैं। हमारे निकटवर्ती चन्द्रमा में अपना कोई प्रकाश नहीं वह मिट्टी का ढेला मात्र है, पर सूर्य का प्रकाश पड़ने से वह ऐसा चमकता है कि रात्रि की उसकी चाँदनी ही दिन जैसा काम कर देती है। अनय ग्रह-उपग्रहों के सम्बन्ध में भी यही बात है। सौर-मंडल का कोई पिंड अपने प्रकाश से नहीं चमकता, उन सभी को सूर्य की आभा ही प्रकाशित करती है। अपनी पृथ्वी भी अन्य ग्रहों से देखने पर ऐसी ही चमकदार दीखती होगी। सम्भव है वह ब्रह्मांड के अन्य नक्षत्रों पर खड़े होकर देखने पर एक प्रकाशवान तारे जैसी दीखती हो।
यहाँ यह ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि सूर्य ताप का मात्र 220 करोड़वाँ भाग पृथ्वी पर जीवधारियों के लिये जीने योग्य समुचित परिस्थितियाँ बनाये रखने हेतु सक्षम है। इतना ही मिलने की सृष्टा ने व्यवस्था भी बनायी है। दस करोड़ मील दूर अवस्थित सूर्य से प्रकाश ऊर्जा पृथ्वी पर सतत् आती व जीवों को प्राण चेतना से अनुप्राणित करती रहती है। इसमें न्यूनाधिक भी कमी आ जाए तो पृथ्वी पर प्रतिकूल परिस्थितियां उठ खड़ी होती हैं। सविता देवता की पृथ्वी पर जीवन योग्य वातावरण बनाये रखने के लिए कितनी आवश्यकता है, इसे वैज्ञानिक उदाहरणों से आसानी से समझा जा सकता है और फिर यह सूर्य तो मात्र हमारी पृथ्वी जिस सौर मण्डल की सदस्य है, उसका अधिपति है। ऐसे अगणित अरबों सूर्य परब्रह्म की इस विश्व व्यवस्था में सतत् ज्वलन्त बने रहकर ऊर्जा वितरण करते हैं। सविता से अर्थ परब्रह्म की इस समष्टिगत व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए। इसे हमारे सौर-मण्डल तक ही सीमित नहीं मानना चाहिए।
सूर्य की ऊर्जा जब गर्मी के दिनों में अधिक प्रखर एवं निकटवर्ती होती है तो उसकी तीव्र धूप में देर तक खड़ा होना मुश्किल हो जाता है। घासपात सूख जाते हैं। रेतीली धरती तवे जैसी जलने लगती है। पसीना छूटता है और बार-बार प्यास लगती है। बचने के लिए भागकर छाया का, पंखे का, कूलर का, आश्रय लेना पड़ता है। लू लगने, फुन्सियां उठने जैसी व्यथाऐं उठ खड़ी होती हैं। यह उसके तेजस्वी प्रताप का प्रतिफल है।
दूसरी ओर अनेकानेक लाभ भी हैं। प्राणियों में सक्रियता आती है। पौधे विकसित होते हैं। फलों का बाहुल्य होता है। उसी से बादल बनते और बरसते हैं। समुद्र के खारे जल को मेघ बनाकर मीठे जल में परिवर्तित करता है। ऐसे ही अनेक कारणों को देखते हुए उसे “जगत की आत्मा” कहा गया है। यदि उसका सन्तुलित प्रकाश पृथ्वी पर न आये तो फिर यह भी या तो बुध की तरह अग्नि पिण्ड बन जाय। या फिर प्लूटो, नेपचून की तरह सदा बर्फ से ढकी रहे और उनमें जीवन क विकास की कोई सम्भावना न रहे। पृथ्वी की अन्य ग्रह गोलकों की तुलना में जो सुन्दरता एवं सर्वांगीणता है वह सूर्य की सन्तुलित ऊर्जा के कारण ही बन पड़ी है।
दीपक सीमित है और सूर्य असीम। इस तथ्य को समझने के साथ ही यह भी समझा जा सकता है कि व्यक्ति एवं परिवार के लिए रात्रि के अन्धकारजन्य कठिनाइयों से निपटने के लिए दीपक ही जीवन प्राण है। उसी का उपयोग शक्य है। सूर्य को चाहे जब, चाहे जहाँ न्यौत बुलाना सम्भव नहीं है। वह अपने क्रम और नियम से ही आता चला जाता है, पर दीपक अपने हाथ की बात है। भले ही वह थोड़ा प्रकाश करे पर अपने प्रयास के अंतर्गत है। गायत्री को सर्वसुलभ, सर्वोपयोगी इसीलिए माना गया है कि उसका प्रयोग कोई भी कभी भी कर सकता है और उसकी व्यवस्था करने में भी ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता जो अपनी सामर्थ्य से बाहर हो।पर सूर्य के उपयोग के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। सूर्य चूल्हे बनाये गये हैं। पर वे भी रात्रि के समय और घने बादल कुहरे आदि की विपन्नता में काम नहीं करते। जबकि साधारण चूल्हे में आग एक माचिस भर के सहारे जलाई जा सकती है।
वस्तुतः सावित्री, सविता की ऊर्जा एवं आत्मा है। उसके प्रयोग से व्यापक क्षेत्र में विशाल और व्यापक कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं। किन्तु उसका उपयोग सरल नहीं है। वह अत्यन्त कठिन भी है और जोखिम भरा भी। छोटे से आतिशी शीशे पर सूर्य किरणें एकत्रित करने भर से आग जल उठती है और उससे भयंकर अग्निकांड हो सकता है। बिखरी हुई किरणें भी यदि एकत्रित की जा सकें तो उससे पृथ्वी की सारी सम्पदा कुछ ही क्षणों में जल भुन कर नष्ट हो सकती है। उसकी निकटता और दूरी दोनों ही एक से एक बढ़कर जोखिम भरी हैं। पर जो साहसी उसका विवेकपूर्ण प्रयोग कर पाते हैं, वे उससे लाभ भी कम नहीं उठाते।
सूर्य की सप्तधा किरणों से संसार के सभी रोग दूर हो सकते हैं। सूर्य चिकित्सा विज्ञान का अभी आरम्भिक प्रयोग ही चल रहा है। रंगीन काँचों के सहारे उस रंग की किरणें शरीर के किसी रुग्ण अवयव पर विधानपूर्वक डाली जाय तो उसका आश्चर्यजनक प्रभाव होता है। रंगीन बोतलों में पानी भरके धूप में रखने क उपरान्त वह पानी ही औषधि बन जाता है और बाजार औषधियों की तुलना में कहीं अधिक काम करता है। क्रोमोपैथी के ऐसे वैज्ञानिक प्रयोग चल भी रहे हैं कि मात्र सूर्य किरणों से सभी रोगों की चिकित्सा की जाय। वह सरल भी रहेगी और सस्ती भी। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि वर्तमान प्रचलित चिकित्सा प्रणालियों में से सभी को पीछे धकेल कर अगले दिनों सूर्य शक्ति के उपयोग से मनुष्य के शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों को दूर करने की सर्वांगपूर्ण चिकित्सा पद्धति काम में आने लगे। यह एक बड़ी समस्या है। रोग निवारण और आरोग्य सम्वर्धन का कोई सर्वसुलभ माध्यम अगले प्रयोग परीक्षणों द्वारा निकलता है तो इसे एक बहुत बड़ी उपलब्धि ही माना जायेगा।
दूसरा एक और प्रयोग भौतिक जगत में यह भी सोचा जा रहा है कि पेय जल की जो भारी कमी पड़ने जा रही है। उसका समाधान कैसे हो? बढ़ती हुई आबादी और बढ़ती हुई सभ्यता मनुष्य के दैनिक जीवन में अधिक पेय जल की माँग करती है। कारखानों में भी उसके बिना काम नहीं चलता। खाद्य उत्पादन के प्रयासों में सिंचाई की सबसे बड़ी आवश्यकता है। उसमें भी मीठा पानी चाहिए।
समुद्रों में यद्यपि भारी मात्रा में जल विद्यमान है, पर वह खारी होने के कारण न पीने के काम आ सकता है और न सिंचाई। न दैनिक जीवन में पीने, सफाई आदि के कामों में उसका उपयोग हो सकता है। ऐसी दशा में खारी पानी को मीठा बनाने का उपाय ढूँढ़े बिना गुजारा नहीं। यदि इस संकट का निराकरण सम्भव न हुआ तो पेड़-पौधों, पशु-पक्षी, मनुष्य उत्पादन उद्योग सभी का सर्वनाश होगा और धरती पर निवास करने वाले प्राणियों और पदार्थों के लिए सर्वनाश का संकट आ उपस्थित होगा।
इसका समाधान पानी को उबालकर भाप बनाना ही हो सकता है। यह बिजली से बनाने में तो बहुत महंगा पड़ता है। फिर आवश्यकता के अनुरूप पानी की विशाल मात्रा तैयार करने में तो संसार भर में प्रयुक्त होने वाली बिजली ही खप जायगी। तब अन्य कार्य कैसे चलेंगे। सूर्य में ऊर्जा का विशाल भण्डार है। वह बिखरा पड़ा होने के कारण हजारवाँ भाग ही धूप के रूप में काम आता है। इस ऊर्जा को एकत्रित कर लेने पर समुद्र के पानी को भाप बना कर जहाँ उसका उपयोग है वहाँ ले जाया जा सकता है। अभी तो बादल, समुद्रों, पर्वतों और दलदलों में भी बरसते हैं जहाँ उनका कोई उपयोग नहीं। सूर्य शक्ति का एकत्रीकरण और उसका अभीष्ट उपयोग कुछ असम्भव नहीं है। जिन वैज्ञानिक अनुसंधानों ने अणु शक्ति, हाइड्रोजन शक्ति, लेसर शक्ति, इन्फ्रारेड, अल्ट्रावायलेटरेज, माइक्रोवेव्ज जैसी अनेकों शक्तियों को ढूँढ़ निकाला है उनके लिए अगले दिनों यह प्रयास भी सम्भव होगा कि बढ़ती हुई जल समस्या का समाधान समुद्रों को भाप बनाकर उड़ाने और एक बड़े संकट का समाधान करने में समर्थ हो सकें। अरब देशों में ऐसे प्रयोग हो भी रहे हैं। यह एक मोटा प्रत्यक्ष विवेचन हुआ।
कहा जा चुका है कि गायत्री आत्मिकी और सावित्री भौतिकी है। उसे सहारे ही ब्रह्मा जी ने प्रत्यक्ष सृष्टि का सृजन किया है। उसमें वह सामर्थ्य भी मौजूद है कि समय-समय पर उपस्थित होने वाली चित्र-विचित्र समस्याओं का भी समाधान कर सके।
इन दिनों व्यक्ति का अध्यात्मिक जीवन ही नहीं, भौतिक परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल चल रही हैं। अभावों, विपत्तियों और उलझनों का सामना करना पड़ रहा है। उपायों सीमित प्रयासों से वह इनका हल निकालने की चेष्टा भी करता है, पर उसमें सफल नहीं हो पाता। बुद्धि तथा साधनों के होते हुए भी हर घड़ी खिन्न, विपन्न और तनावग्रस्त दीख पड़ता है। इसका समाधान सावित्री विद्या के सहारे ही सम्भव हो सकता है। इसका प्रयोग पूर्वकाल में विदित था, पर अब तो वह एक प्रकार से लुप्त ही हो गया। आवश्यकता अब इस बात की है कि उसको फिर से खोज निकाला जाय। उसे पुनर्जीवन दिया जाय।
इन दिनों सामूहिक समस्याओं का तो कहना ही क्या? अकेला अणु युद्ध भी निकट से निकटतम आता चला आ रहा है। वरन् उसके अतिरिक्त भी पर्यावरण प्रदूषण जनसंख्या विस्फोट, विकिरण, विषाक्तता की अभिवृद्धि नित नये-नये रोगों की उत्पत्ति जैसे अनेकानेक कारण हैं जो मनुष्य को उसकी निवास स्थली पृथ्वी को महाविनाश की चुनौतियाँ दे रहे हैं। इनका सामना करने के लिए सविता शक्ति का प्रयोग असाधारण रूप से कारगर हो सकता है। सर्वत्र जल की कमी पड़ने से भागीरथ ने तप करके गंगा को पृथ्वी पर लाने और उस समस्या को हल करने में सफलता पाई थी। दैत्यों से पराजित होने पर देवताओं को आत्मरक्षा के लिए किसी अचूक अस्त्र की आवश्यकता पड़ी तब दधीचि की अस्थियों से इन्द्र वज्र बना और संकट दूर हुआ। आज भी सविता शक्ति के अनुसन्धान, एवं प्रयोगों की वैसी ही आवश्यकता है। समाधान का यह दैवी अस्त्र ब्रह्मास्त्र कारगर होकर रहेगा, ऐसा सहज विश्वास किया जा सकता है। विधि-विधान क्या हो, इस पर विवेचन आगे किया जाएगा।