दार्शनिक इमर्सन कहा करते थे कि ‘भय’ एक मानसिक रोग है, जो मनुष्य की क्षमता और चेतना दोनों का अपहरण कर लेता है। यदि मनोबल बनाये रखा जाय तो काल्पनिक भयों से तीन चौथाई ऐसे होते हैं जिनसे कभी पाला ही नहीं पड़ता।
कहते हैं कि अमेरिका के इतिहास में ऐसा भयंकर तूफान कभी भी नहीं आया जैसा कि 19 मई सन् 1780 को आया था। इतिहासकार ह्वीटियर ने उसे “महान भयानकता का अविस्मरणीय दिन” लिखा है। ये न्यूयार्क से शुरू हुआ था और उसने पेन्सिलवानियाँ, कनेक्टीकट, रोड़ द्वीप- मैसाचूसेट्स वरमार, हैम्पशायर, पार्टलैण्ड आदि का सुविस्तृत भू-भाग अपने अंचल की काली छाया में ढक लिया था। कितने मरे और कितनी बर्बादी हुई इसका लेखा-जोखा पूरी तरह तो नहीं लगाया जा सका, पर इतना निश्चित था कि लगभग हर व्यक्ति अपने को मौत के शिकंजे में कसा हुआ अनुभव करता था। अब मरे तब मरे की कल्पना में उस क्षेत्र के हर निवासी की तब तक आंतें इठती ही रहीं जब तक कि यह सर्वनाशी तूफान टल नहीं गया।
जिस समय तूफान आया उस समय अमेरिकी विधानसभा का अधिवेशन चल रहा था। अन्धड़ ने सभा भवन में भी प्रवेश किया और क्षण भर सारी रोशनी गुल कर दी। प्रचंड हवा के झोंके दीवारों से टकराकर उन्हें उड़ा ले जाने की धमकी देने लगे। सदस्य गण अपनी-अपनी कुर्सियों से चिपक कर बैठ गये और कायरता पूर्वक एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। इस स्थिति में कई घण्टे बीत गये। किसी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था।
सन्नाटे की चीरते हुए विधानसभा के एक प्रतिभाशाली सदस्य डेवन पोर्ट अपने स्थान पर खड़े हुए और उनने जोरदार आवाज में अध्यक्ष को सम्बोधन करते हुए कहा- “सर! या तो यह कयामत का दिन है, या नहीं है। यदि है तो हमें डरना नहीं चाहिए जो होना है वह होकर ही रहेगा। यदि नहीं है तब तो डरने की कोई बात है ही नहीं। यदि कयामत का दिन ही हो तो भी हमें अपना कर्तव्य पालन करते हुए उसका स्वागत करना चाहिए। सर, मोमबत्तियाँ मँगाई जायँ और अधिवेशन का कार्य चालू रखा जाय।”
सारे सदन में बिजली सी कौंध गई। एक नये साहस का संचार हुआ। कई और सदस्य भी समर्थन में उठ खड़े हुए। अध्यक्ष ने उसे उचित समझा और मोमबत्ती जला कर अधिवेशन आरम्भ कर दिया गया।
उस मृत्यु विभीषिका के बीच अमेरिकी सीनेट का अधिवेशन चलना एक अविस्मरणीय घटना है उससे अधिक स्मरण रखने योग्य है- डेविन पोर्ट का सन्तुलन और साहस जिसने सदस्यों की भयाक्राँत मनःस्थिति को साहसिक कर्तव्य निष्ठा में नियोजित कर दिया था।
तूफान चला गया पर उस हिम्मत वाले और विचारशील व्यक्ति का मार्गदर्शन उस देश के इतिहास में एक अमर कहानी बन गया है और जब कभी कोई कठिन प्रसंग आता है तो उसी घटना का स्मरण दिलाते हुए कहा जाता है कि “भय” अपने आप में उतना बड़ा संकट है जितना कि विपत्ति का कोई क्षण कठिन नहीं होता।