सफाई कर्मचारी हड़ताल कर दें तो सर्वत्र गन्दगी ही गन्दगी फैली दिखाई पड़ेगी। धोबियों की भट्टी चढ़ना बन्द हो जाय तो भकाभक कपड़े पहनने का अवसर किसी को भी न मिले। फूल न खिलें तो संसार से सौंदर्य की सबसे बड़ी इकाई समाप्त हो जाय। दीपक न जलें तो रात्रि की भयावहता विकराल ही बनी रहे। घर में भी हाथों हाथ न सूझे। ठीक यही घटना तब घटित होती है जब ब्राह्मण वर्ग की संख्या और स्थिति घटती चली जाती है। उसी की जिम्मेदारी है कि व्यक्ति और समाज को मलीनताओं से उबारे, उन्हें साफ सुथरा बनाकर रखे।
दूसरे वर्ग यह काम नहीं कर सकते क्योंकि जिनने जिस सिद्धांत को अपने निजी जीवन में समाविष्ट नहीं किया है, उसके द्वारा दिये गये उपदेश प्रभावी नहीं हो सकते, भले ही वे प्राँजल भाषा या मधुर कण्ठ से ही क्यों न दिये गये हों। बुराइयां कोई भी सिखा सकता है। चोरी, जुआ, बेईमानी, बदमाशी के स्कूल कहीं भी नहीं खुले हैं। इन्हें एक दूसरे की नकल करने भर सीखा जाता है। पानी को ढलान की ओर बहने में कोई कठिनाई नहीं पड़ती। मुश्किल तब प्रतीत होती है जब किसी को बहुत ही ऊँचा उछालना या किसी मनुष्य को अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियों से छुड़ाकर साफ-सुथरा बनाना हो। मक्खी पेट में चले जाने भर से मितली आने लगती और वमन का सिलसिला चल पड़ता है। कठिनाई तो तब पड़ती है, जब किसी रोगग्रस्त को उस संकट से मुक्त करके दिखाया जाता है। अग्निकाण्ड जैसे ध्वंस कार्य तो एक माचिस भी कर सकती है। उस छोटी-सी तीली से समूचा घर या खलिहान जलकर स्वाहा हो सकता है। किन्तु यदि वह सब पूर्ववत फिर से विनिर्मित करना हो तो ढेरों श्रम, समय, और साधन चाहिए।
ब्राह्मण को दुहरा काम करना पड़ता है। जहाँ कहीं भी ठहरना या आना-जाना हो वहीं गन्दी बिखरी मिलेगी और बहुत पहले से ही उसके आगमन का इन्तजार कर रही होगी कि कौन देवदूत आये और यहाँ का वातावरण स्वच्छ बनाये। इसी प्रकार खण्डहरों की कहीं कमी नहीं, जो जीर्णोद्धार के लिए उधर से निकलने वालों में से प्रत्येक का मुँह तकते रहते हैं। हर घाट पर उतरने वालों की भीड़ लगी रहती है और वे भी नाव वाले माँझी की प्रतीक्षा में बैठे होते हैं। माँझी अर्थात् ब्राह्मण। सफाई कर्मचारी अर्थात् ब्राह्मण। धोबी अर्थात् ब्राह्मण। स्वच्छता और सृजन प्रक्रिया को जारी रखने की उसी को जिम्मेदारी है।
भौतिक क्षेत्र में तो इन कार्यों को मजूरी पर करने वाले सर्वत्र असंख्यों मिल जाते हैं। जहाँ, जितने, जिस काम के लिए श्रमिक चाहिए, वे वहाँ अनायास ही मिल जाते हैं। अभाव उनका नहीं। अभाव है- चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में सुधार परिवर्तन लाने वालों का। व्यक्तित्व का इस प्रकार निर्माण करने की आवश्यकता है, जिसमें कोई लुंज-पुंज, दीन-हीन, समर्थता और तेजस्विता के ढांचे में ढल जाय। यह कार्य केवल वही कर सकता है जो अपनी कला की प्रवीणता के लिए अपने आप पर सफल प्रयोग कर चुका हो। ऐसे ही लोगों को प्रवीण पारंगत कहा जा सकता है। ऐसे ही लोग सड़े गोबर को पुष्प उद्यान में परिणत करके दिखाते हैं। ऐसे ही लोग सामान्य से कपड़े को कुछ ही पैसे के रंगों में बहुमूल्य चित्र बनाकर दिखाते हैं। उन्हीं की छैनी हथौड़ी अनगढ़ पत्थर को तराश कर देव प्रतिमा का स्वरूप देती है। जिसने अपना सुधार नहीं किया वह दूसरों को सुधार सकेगा इसकी आशा करना व्यर्थ है।
चिन्तन और चरित्र की एकता होने पर ही दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता उपलब्ध होती है। एक नशेबाज अपने जीवन में दूसरे नये नशेबाज उत्पन्न कर लेता है और एक वेश्या कितने ही अनजानों को व्यभिचार के मार्ग पर घसीट लेती है। इसका कारण यही है यह लोग जैसा सोचते हैं वैसा ही करते भी हैं। कथनी और करनी के बीच का अन्तर हट जाय तो व्यक्ति निश्चित रूप से प्रभावशाली हो जाता है। भलाई सिखाई जाय या बुराई यह आगे की बात है। पर चिन्तन और चरित्र की एकता तो नितान्त आवश्यक है। विशेषतया कुसंस्कारों से घिरे हुए लोगों को सुसंस्कारी बनाने के लिए।
ऐसे व्यक्तित्व अब क्रमशः घटते जा रहे हैं जो निजी जीवन में आदर्शों की सभी कसौटियों पर खरे उतरें। साथ ही उस विशिष्टता का उपयोग लोक मंगल के लिए जन-मानस का परिष्कार करने के निमित्त करने में भावनापूर्ण समग्र तत्परता और तन्मयता के साथ संलग्न रहें। जहाँ यह दोनों बातें मिलती हैं, वहीं ब्राह्मणत्व की क्षमता परिपक्व होती है।
ब्राह्मण वर्ग की दो धाराएं हैं एक गृहस्थ, दूसरी विरक्त। जिनके ऊपर पारिवारिक उत्तरदायित्व लदे हैं, जिन्हें निर्वाह के साधन भी जुटाने पड़ते हैं और सीमित संपर्क क्षेत्र में ही सेवा कार्य कर सकते हैं, वे ब्राह्मण हैं। वे अपने परिवार क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों का प्रयोग अभ्यास करके देश को उत्कृष्ट स्तर क नर-रत्न प्रदान करते रहते हैं। साथ ही सम्पर्क क्षेत्र को समुन्नत सुसंस्कृत बनाने में भी पीछे नहीं रहते।
दूसरा वर्ग है- साधु। निजी परिवार न बसाने या उसके निर्वाह दायित्वों से व्यवस्थापूर्वक छुटकारा पा लेने वाले यदि प्रव्रज्या पर निकलते हैं, परिव्राजक की तरह परिभ्रमण को अपनी रीति-नीति बनाते हैं, उनकी अधिक उपयोगिता और प्रतिष्ठा इसलिए है कि उनका कार्यक्षेत्र सुविस्तृत होता है। जहाँ भी पिछड़ापन अधिक बड़ी मात्रा में दीखता है वहीं जा पहुँचते हैं। वे दीपक की तरह जलते और बादल की तरह बरसते हुए अपना जीवन बिताते हैं। जहाँ भी दुर्घटना हो रही होती है, वहीं दौड़कर जा पहुँचने का उपक्रम करते हैं। यह बात गृहस्थों के लिए कठिन पड़ती है। वह निरन्तर या बहुत समय तक घर से बाहर नहीं रह सकते।
ब्राह्मण और साधु वर्गों में से दोनों को ही परमार्थ परायण होना चाहिए। लोकसेवा में निरत यदि आदर्शों के अपनाने में निजी जीवन में प्रयोग तो किया गया। व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य मृदुल व्यवहार आदि का अभ्यास करने में अन्तः संघर्ष तो किया गया पर उसका मूलभूत उद्देश्य स्वार्थ साधन ही रहा तो बात बनी नहीं। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, चमत्कार, यश, सम्मान जैसे स्वार्थ यदि छूटे नहीं और घूम फिरकर उसी मलीनता में लिपट गया तो प्रयत्न की गरिमा चली गई। हाथी सरोवर में नहाने के उपरांत बाहर निकलता है तो सूँड से ऊपर बालू छिड़क लेता है और पहले जैसा ही मलीन हो जाता है। ऐसा ही प्रयत्न यदि सम्मानास्पद साधु ब्राह्मण भी करें और चित्र-विचित्र साधनाओं तक सीमित रहें तो समझना चाहिए कि उपार्जन तो सीखा पर उपयोग नहीं आया। कहा गया है कि- “यषा बिनु सन्त कराई।” स्पष्ट है जिसके भी हृदय में दया करुणा का भाव होगा वह स्नेह की आत्मीयता की अभिव्यक्ति किये बिना रह नहीं सकेगा। सेवा धर्म अपनाये बिना अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश या श्रेय प्राप्त करने की कुछ उपयोगिता नहीं रह जाती। स्वार्थ सिद्धि में निरत रहना संकीर्णता है क्षुद्रता भी। सामान्यजन धन वैभव उपार्जित करने में मरते खटते रहे हैं और जो करते हैं उसे विलासों में उड़ा देते हैं। ठीक यही बात उन साधु ब्राह्मणों के लिए भी कही जा सकती है जो मनोकामना की पूर्ति के लिए देवताओं की मनुहार करते हैं। भले ही वह इच्छा स्वर्ग मुक्ति जैसी परलोक से सम्बन्धित ही क्यों न हो? (क्रमशः)