यज्ञ द्वारा प्राण पर्जन्य की वर्षा

March 1986

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गीता में यज्ञ से पर्जन्य बरसने पर्जन्य से अन्न उत्पन्न होने और अन्न से बाहुल्य से सुख सम्पदा उपलब्ध होने का तथ्य प्रकाश में लाया गया है।

यहाँ पर्जन्य का अर्थ आमतौर से बादल किया जाता है और यज्ञ का माहात्म्य वर्षा होना बताया जाता है। यह तात्पर्य सही नहीं है। यदि यज्ञ करने से वर्षा हो जाया करती तो कहीं कभी सूखा के कारण दुर्भिक्ष न पड़ता और जिन देशों में हवन का प्रचलन है वहाँ वर्षा की कमी न रहती। अन्य देशों की बात जाने दें अकेले भारत को ही लें। देश के किसी न किसी भाग में वर्षा कम पड़ जाती है और उस दुर्भिक्ष में मनुष्यों तथा पशुओं को भारी कष्ट सहना पड़ता है। यदि उस आपत्ति का निवारण इतना सस्ता होता कि हवन करते ही पानी बरसने लगे तो इससे अधिक प्रसन्नता की बात क्या हो सकती है? जो लोग ऐसा अर्थ या दावा करते हैं वे सिद्ध चमत्कारी समझे जाते हैं। उन पर यश की वर्षा होती है और जितना व्यय उस यज्ञ पर आता उसे जनता प्रसन्नता पूर्वक वहन कर लेती। रेगिस्तान हरे-भरे हो जाते और संसार भर में सुख-सुविधाओं का अन्त न रहता। पर ऐसा होता कहाँ है? अर्थ या दावा करने वाले भी इस चुनौती को स्वीकार करने में समर्थ नहीं हो पाते। कर लेते तो तेल वाले देशों में जहाँ मीठे पानी के लिए लोग तरसते हैं। यज्ञ का बोलबाला होता और उस विज्ञान को सबसे ऊँचा विज्ञान माना जाता। ऐसे वैज्ञानिकों के प्रति सारी दुनिया कृतज्ञ बनकर रहती। बात सही सिद्ध न होने पर उपहास भी कम न होता और झूठे कथन के लिए लाँछन कम नहीं लगता।

वस्तुतः पर्जन्य का तात्पर्य अन्तरिक्ष से प्राण वर्षा होने का है। जिस प्रकार भूमि में रासायनिक खाद लगा देने से उत्पादन कहीं अधिक बढ़ जाता है। उसी प्रकार यह प्राण शक्ति बादलों के साथ या बिना बादलों के भी धरती पर बरसती है तो उसका लाभ वनस्पतियों, जीवधारियों विशेषकर मनुष्य को मिलता है।

प्राण, वायु के साथ मिला होता है। गहरी साँस खींचकर संकल्प शक्ति के चुम्बकत्व द्वारा इसी को प्राणायाम द्वारा खींचा और धारण किया जाता है। प्राणशक्ति का मनुष्य के लिए कितना महत्व है, इसका वर्णन शास्त्रों में भरा पड़ा है। प्रश्नोपनिषद् में तो इस विद्या पर अत्यधिक गम्भीर प्रकाश डाला और महत्व बताया गया है।

पाश्चात्य शरीर शास्त्री गहरी साँस का महत्व मानते हैं और प्राणायाम की विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा रोग निवारण का दावा करते हैं। इतना ही नहीं इसे मानसिक विकास और साहस सम्वर्धन की दृष्टि से भी उपयोगी मानते हैं। भारत में कभी इस विद्या का इतना विकास हुआ था कि प्राणों को ब्रह्मरंध्र में रोक कर मृत्यु को जीवन और परकाया प्रवेश जैसे असम्भव समझे जाने वाले कार्यों को सम्भव कर दिखाया जाता था। आद्य शंकराचार्य द्वारा भारती देवी के साथ शास्त्रार्थ करने के प्रसंग में इस विद्या का उपयोग किया गया था।

मैस्मरेजम के उपचारों में एक व्यक्ति दूसरे के शरीर में अपनी प्राणशक्ति का प्रवेश करके रोगी को कष्टमुक्त करता है। भारत में संपर्क सान्निध्य की घनिष्ठता स्थापित करने के सम्बन्ध में कितने ही अनुबंध प्रतिबंध लगाये गये हैं। क्योंकि इसमें एक व्यक्ति का प्राण दूसरे की चेतना में हस्तान्तरित होता है। मानवी शरीर की विद्युत के सम्बन्ध में अब किसी को शंका नहीं रही है। साथ ही यह भी एक प्रामाणिक मान्यता है कि अनन्त अन्तरिक्ष से प्राणशक्ति जीवनी विद्युत के रूप में प्रचुर परिमाण में भरी पड़ी है। उसे यदि धरातल पर अवतीर्ण किया जा सके तो वे क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक सुविकसित और सुसम्पन्न हो सकते हैं। मनुष्यों के शरीरों के सम्बन्ध में भी यह बात है। वंशानुगत विशेषताओं के कारण, प्रकृति के विशेष प्रवाह के कारण या मानवी प्रयत्नों द्वारा इस शक्ति का जिन शरीरों में अधिक अवतरण होता है, उनका शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक साहस अपेक्षाकृत अधिक बढ़ा-चढ़ा पाया जाता है।

यह प्राणशक्ति किसी क्षेत्र में प्रयत्नपूर्वक अधिक मात्रा में बरसाई जा सकती है और उसमें से जो जितना अवधारण कर पाते हैं वे उतने ही अधिक लाभान्वित होते हैं।

एक किलो दूध पीने का शरीर पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना 5 सी.सी. लैक्टोस का इन्जेक्शन लगा देने पर उसकी उपयोगी प्रतिक्रिया तत्काल दृष्टिगोचर होती है। यही बात अनन्त अन्तरिक्ष में से किसी स्थान, क्षेत्र समूह या व्यक्ति पर बरसाने के रूप में अग्निहोत्र के माध्यम से ऐसा प्रयोग सम्भव हो सकता है, जिससे उस क्षेत्र में छायी हुई उदासी या रुग्णता, अशक्तता का निवारण हो सके।

यह पर्जन्य है। इसी को प्राण वर्षा कहते हैं। प्राण सचेतन और विश्वव्यापी है इसलिए उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष तो नहीं देखा जा सकता पर उसके कारण उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रिया का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

अंतरिक्षीय प्राण वर्षा बादलों के पानी के साथ आसानी से होती रह सकती है और उसका प्रभाव प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। उस जल को पीने वाले अधिक परिपुष्ट होते हैं। जिस घास में प्राण तत्व अधिक घुला होता है, उसे खाकर खाने वालों की पौष्टिकता कई गुना बढ़ जाती है। अन्न में उसकी मात्रा बढ़ी-चढ़ी होने से खाने वाले मनुष्य सुदृढ़, निरोग एवं दीर्घजीवी होते हैं। यहाँ तक कि बुद्धिमता और साहसिकता की अभिवृद्धि भी होती देखी गई है। यह अन्तर यज्ञ सम्पन्न होने वाले क्षेत्रों में- और न होने वाले क्षेत्रों का अन्तर देखते हुए सहज ही जाना जा सकता है।

इस प्रकार के प्रयोग शाँति-कुज के ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में बहुत दिनों से चल रहे हैं। काम करने वाले वैज्ञानिक प्रयोगशाला के बहुमूल्य उपकरणों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि यज्ञ प्रक्रिया द्वारा सामान्य वायु और यज्ञ ऊर्जा सम्मिलित साँस में क्या अन्तर पड़ता है, तथा यह भी देखा जाता है कि उस क्षेत्र में पेड़-पौधों की उत्पत्ति पर क्या असर पड़ता है। जल जीवों पर भी यह प्रयोग सफल रहा है। रोगियों के रोग निवारण और अस्वस्थ व्यक्तियों के शारीरिक एवं मानसिक रोगों के निवारण में कितना चमत्कारी लाभ होता है?

मानसिक विकृतियों और सनकों के निवारण के लिए अभी तक कोई कारगर उपचार चिकित्सकों को हस्तगत नहीं हुआ था। मात्र पागलों के लिए बिजली के झटके दिमाग में लगाने जैसे प्रयोग चलते थे और उनका ही आधा अधूरा लाभ उठाने की स्थिति थी। किन्तु अर्ध विक्षिप्तों, सनकियों, एवं आवेशग्रस्तों, तनाव पीड़ितों के लिए कोई औषधि या “थैरेपी” हस्तगत नहीं हुई थी। यज्ञ चिकित्सा का ऐसे लोगों पर भी आश्चर्यजनक प्रभाव देखा गया है। इन लाभों के मूल में प्राण पर्जन्य को अन्तरिक्ष से आकर्षित करना और विविध प्रयोजनों के लिए सफल प्रयोग की सम्भावना इसी कारण बनी है। इस प्राण पर्जन्य को स्तर एवं मात्रा के अनुरूप बरसाना, आकाश से जमीन पर खींच लाना ही यज्ञोपचार का स्थूल लाभ है। पानी बरसाने वाली बात तो वस्तुस्थिति की जानकारी न होने के कारण ही चल पड़ी है। इस कथन से यज्ञ की उपयोगिता का महत्व बढ़ा नहीं, वरन् घटा ही है।


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