विज्ञानमय कोष और दिव्य दर्शन

March 1986

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मस्तिष्क में कल्पना और सूझ-बूझ उठती है। पर वह उपलब्ध ज्ञान और मन्थन से उत्पन्न हुए और मनन द्वारा ही उत्पन्न होती है। दिव्य प्रेरणाएं हृदय देश से भी उभरती हैं। ईश्वरीय संदेश वहीं मिलते हैं और वहीं से अविज्ञात प्रकृति रहस्यों की जानकारियाँ हस्तगत होती हैं। जिन वैज्ञानिकों ने अद्भुत आविष्कार किये हैं उनसे पूछा गया कि ऐसा अनोखा विचार आपको कैसे हस्तगत हुआ तो उनमें से प्रत्येक ने यही कहा कि “यह भीतर से उभरा” भीतर से शब्द से उनका तात्पर्य मस्तिष्क से नहीं, वरन् अन्तराल में उभरने से है।

यही वह क्षेत्र है, जहाँ अतीन्द्रिय शक्तियों का भण्डार है। बुद्धि क्षेत्र से बाहर की कितनी ही बातें कभी-कभी ऐसी सूझ पड़ती हैं जो विलक्षण प्रतीत होती हैं। पर परीक्षा की कसौटी पर वे सही उतरती हैं। ऋद्धि-सिद्धियों का क्षेत्र यही माना गया है। जिस किसी का विज्ञानमय कोष जाग पड़ता है उसे अविज्ञात भी- भूत और भविष्य भी इसी प्रकार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है मानो उसकी प्रत्यक्ष जानकारी उन्हें पहले से हो रही है।

मनोविज्ञानी जिसे “सुपर चेतन” कहते हैं और जिसकी संगति अलौकिक आभासों के साथ जोड़ते हैं, वह मस्तिष्क का नहीं वरन् विज्ञानमय कोष का क्षेत्र है। मानसिक संरचना में चेतन और अचेतन के दो ही पक्ष हैं। मस्तिष्कीय संरचना का दो भागों में ही विभाजन हुआ है। अस्तु उसका कार्यक्षेत्र ज्ञानवान् सचेतन ओर स्वसंचालित अचेतन के साथ ही जुड़ता है। जिसे अविज्ञात कहा गया है, जिसे सुपर चेतन भी कहते हैं, वह वस्तुतः विज्ञानमय कोश ही है।

इसे किन्हीं ग्रन्थों में सूर्य चक्र भी कहा गया है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश उदय होने पर अन्धकार तिरोहित हो जाता है और प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्ष दीख पड़ती है। उसी प्रकार विज्ञानमय कोष में प्रकाशित दिव्य ज्योति की छत्र छाया में व्यक्ति अपना स्वरूप लक्ष्य और कर्त्तव्य भी देख सकता है। उसे अपने सुसंस्कार और कुसंस्कार भी दीख पड़ते हैं। जबकि साधारण लोग इस सम्बन्ध में भ्रम भरी स्थिति में ही रहते हैं, उन्हें अपने में केवल गुण ही गुण दीख पड़ते हैं। दोषारोपण वे दूसरों पर करते रहते हैं। पर इससे किसी समस्या कसा समाधान नहीं होता। जिन दोषों को अपने भीतर ढूँढ़ना और सुधारना चाहिए, उन्हें यदि दूसरों से दोषी ठहराने की आत्म प्रवंचना की जायगी तो समाधान किस प्रकार बन पड़ेगा? विग्रह खड़ा होगा और गुत्थी उलझेगी।

आत्म-सत्ता में समाहित यथार्थता को यदि जाना जा सके तो व्यक्ति आत्म-कल्याण का मार्ग भी सरलतापूर्वक जान सकता है। अन्यथा भटकाव की स्थिति में हाथ कुछ नहीं लगता और खीज, थकान एवं निराशा ही पल्ले पड़ती है।

आत्मा को परमात्मा से मिलने की इच्छा रहती है। इस विलगाव के कारण ही सर्वदा असन्तोष छाया रहता है और समाधान ढूँढ़ने के लिए जिस-तिस वस्तु को निरखा, परखा जाता है, किन्तु निर्जीव जड़ पदार्थों में वह साधन कहाँ मिले जो चेतन स्तर का हो। व्यक्तियों का परिचय भी शरीर रूप में हो पाता है। वे कभी रुष्ट या पृथक भी हो सकते हैं, होते रहते हैं। ऐसी दशा में आन्तरिक शान्ति हस्तगत नहीं हो पाती और न जिनकी तलाश है, वह परमात्मा ही मिल पाता है।

तत्त्वदर्शियों ने इस समस्या को सुलझाया है और कहा है कि ईश्वर सर्वव्यापी होते हुए भी किसी ऐसे स्थान पर नहीं पाया जा सकता जहाँ मिलना सम्भव हो सके। ऐसा स्थान केवल अपना हृदय है। यही विज्ञानमय कोष है। कस्तूरी की तरह वह मृग की नाभि में ही सुगन्ध के भण्डार रूप में होता है पर वह उसे जहाँ-तहाँ ढूँढ़ता फिरता है। इस भ्रम का निवारण शास्त्रकारों ने इस प्रकार किया है।

योगवशिष्ठ का कथन है “जो हृदय गुफा में निवास करने वाले भगवान को छोड़कर अन्यत्र ढूँढ़ता फिरता है वह हाथ की कौस्तुभ मणि की उपेक्षा जहाँ-तहाँ काँच के टुकड़े बीनते फिरने वाले समान है।”

श्वेताश्वरोपनिषद् में उल्लेख है- “जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हृदय गुफा में प्रवेश करके विद्यमान महेश्वर को नहीं देख पाता, वह अन्धे के समान है।”

तैत्तरीयोपनिषद् का वचन है- “जो हृदय गुफा में निवास करने वाले परब्रह्म को देखता और उनका सान्निध्य अपनाता है, वह तद्रूप हो जाता है।

सुबालोपनिषद् का वचन है- “परब्रह्म हृदय रूपी गुफा में रहने वाला है। वह अविनाशी और प्रकाश स्वरूप जो उसकी अनुभूति करता है वह उसी में लीन हो जाता है।

मुण्डकोपनिषद् की उक्ति है- इस सम्पूर्ण जगत को बनाने वाला और सब में समाया हुआ परमेश्वर ढूँढ़ने पर हृदय गुफा में ही विराजमान मिलता हे। वह प्रकाश स्वरूप है, जो उसे देखता है वही उसी में विलीन होकर रहता है।

व्यास भाष्य का उल्लेख है- उस परमेश्वर को देवालयों, सरिताओं, तीर्थों, वनों में, पर्वतों में कहीं भी ढूँढ़ते रहा जाय, पर जब वह मिलेगा तो हृदय गुफा ही उसका सुस्थिर स्थान दृष्टिगोचर होगा। जो वहाँ उसे ढूँढ़ता है, तृप्त होकर रहता है।

गीता में भगवान कहते हैं- “ईश्वर सब प्राणियों के हृदय देश में रहता है। उसी का अनुग्रह प्राप्त करने से परम शान्ति का अनुभव होता है।”

मुण्डक का कथन है- “वह परब्रह्म ज्ञानियों की हृदय गुफा में प्रकट होता है।”

शंख संहिता का कथन है- “हृदय देश में परमज्योति प्रकाशवान है। उसी में समस्त देवता निवास करते हैं।”

कठोपनिषद् कहता है “वह दूर से भी दूर है, किन्तु समीप से भी समीप है। उसे हृदय देश में अंगूठे के बराबर आकार में जलती ज्योति जैसा पाया जा सकता है।”

जाबालोपनिषद् में उल्लेख है- “जो उसे हृदय रूपी गुफा में ढूँढ़ता है, उसे साक्षात्कार का सुयोग मिलता है। अन्य लोग तो जहाँ-तहाँ भटकते ही रहते हैं।”

बिन्दूपनिषद् का वचन है- “हृदय क्षेत्र में विद्यमान उस परम ब्रह्म की अंगुष्ठ मात्र ज्योति का हमें ध्यान करना चाहिए।”

महोपनिषद् का वचन है- “हृदय देश में प्रज्वलित दीप शिखा जैसी प्रकाश ज्योति में उस परब्रह्म की झाँकी होती है। इसी में समस्त देवता भी समाये हुए हैं।”

योग कुण्डलिमेवनिषद् का वचन है- “अंगुष्ठ आकृति की प्रकाश ज्योति हृदय देश में सदा जलती रहती है। उसी के फैले हुए प्रकाश में साधक अपने अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है।”

महदोपनिषद् का वचन है- “हृदय गुफा में प्रवेश करें। वहाँ प्रज्वलित प्रकाश ज्योति का दर्शन करें। उसी में आत्मसात् होने का प्रयत्न करें और अपने आपको तद्रूप बना लें।”

मरुद उपनिषद् का कथन है- ”ज्ञान और विज्ञान का उद्गम विज्ञानमय कोश में है। उसका स्थान हृदय कमल में है। ज्ञानी साधक ध्यान रूप में उसका दर्शन उसी क्षेत्र में प्रकाश के रूप में प्रज्वलित देखत हैं।”

जाबालिउपनिषद् का कथन है- उसे हृदय देश में ढूँढ़ो। अन्यत्र मत भटको। वह प्रकाश रूप में अपने भीतर ही ज्वलन्त है। यही विज्ञानमयकोश है जिसके बारे में उपरोक्त आर्ष वचनों में संकेत किया गया है।


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