इस विश्व ब्रह्मांड में दो शक्तियाँ संव्याप्त हैं। एक परब्रह्म ब्रह्मांडीय- चेतना। दूसरा पराशक्ति प्रकृति पदार्थ क्रिया। इन दोनों के ही संयोग से जड़-चेतन जगत की गतिविधियाँ चल रही हैं। सृजन, अभिवर्धन, परिवर्तन की त्रिविधि हलचलें इन दोनों के ही सुयोग सम्वर्धन से चलती रहती हैं। इन्हें ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहते हैं।
प्रकृति और पुरुष के समन्वय से जीव सत्ता उत्पन्न होती है। शरीर प्रकृति है, आत्मा पुरुष। दोनों के समन्वय से जीव बन जाता है। जीव का जीवन प्राण है। प्राण वह चेतना है जो सृष्टि के आरम्भ में प्रकृति पुरुष के समन्वय से उत्पन्न हुई। जीवधारियों में इच्छा के रूप में और पदार्थों की क्रिया शक्ति के रूप में अपनी गतिविधियां सुसंचालित रखने लगीं। प्राण को एक प्रकार की सचेतन विद्युत कहा जा सकता है।
अचेतन विद्युत पावर, एनर्जी, ताप प्रकाश, शब्द के रूप में काम करती है और समुद्र की लहरों जैसी हलचलें करती हुई एक से दूसरे को प्रभावित करती हैं। ब्रह्मांड में विद्यमान ग्रह-नक्षत्र इसी बल के सहारे अपनी-अपनी कक्षा और धुरी में घूमते हैं। उसी के द्वारा एक -दूसरे से बँधे हुए अधर में लटक रहे हैं। इसे पदार्थ गत प्राण कह सकते हैं। यही शरीर की कोशिकाओं और तंतुओं को परस्पर सम्बद्ध रखता और निरन्तर क्रियाशील बनाये रहता है।
चेतना का प्राण मन के रूप में है। मन निरन्तर हलचलों से भरा रहता है। उसकी कल्पनाएँ ज्वार-भाटों की तरह उठती रहती हैं। शरीर संचालन में भी उसका भारी योगदान है। मन उदास, खिन्न, उद्विग्न हो तो शरीर की पाचन शक्ति से लेकर निद्रा तक में अस्त व्यस्तता आ जाती है। कोई प्रसन्नता भरा समाचार मिले तो उत्साह में जरा-जीर्ण शरीर भी उठ खड़ा होता है और आवेश में ऐसा कुछ करने लगता है जैसा शरीर की रुग्णता या जीर्णता की स्थिति में सम्भव नहीं था।
शरीर का मोटा मजबूत होना एक बात है और प्राणवान होना दूसरी। मोटे व्यक्ति में प्राणशक्ति की कमी रहे तो वह निष्क्रिय डरपोक, निराश और शंकाशील रहेगा। किन्तु उसमें प्राण की मात्रा बढ़ी-चढ़ी हो तो साहसी, पराक्रमी, शूरवीर, निर्भय स्वभाव का होगा। उसकी इच्छाशक्ति, संकल्पशक्ति, स्फूर्ति, क्रियाशक्ति बढ़ी-चढ़ी होगी। जो ठानेगा उसमें जुट पड़ेगा और अनेक व्यवधानों को पार करता हुआ सफलता के लक्ष्य तक जा पहुँचेगा।
प्राण शक्ति मनुष्य के दुर्बल शरीर को भी ओजस्-तेजस्-वर्चस् से भर देती है और क्षीण काय-कलेवर से भी आश्चर्यजनक कार्य करा लेती है। गान्धी जी 92 पौण्ड के और पाँच फुट दो इंच ऊँचे थे। देखने और तौलने में वे चौदह वर्ष के लड़के जैसे लगते थे। पर उनके प्राण का प्रवाह ऐसा था जिससे ब्रिटिश सरकार जैसी समर्थ सत्ता काँपती थी। जिसकी उँगली के इशारे पर हजारों सत्याग्रही जान निछावर करते थे।
प्राण इस ब्रह्मांड में सर्वत्र संव्याप्त है। वह मनुष्य के साथ संकल्प बल के सहारे जुड़ता है। शरीर में उसका प्रवेश वायु के साथ होता है। विज्ञानी आक्सीजन को प्राण कहते थे और सोचते थे कि रक्त उसी के कारण शुद्ध रहता है और वही जीवनी शक्ति है। पर जब यह सोचा गया कि साँस में ऑक्सीजन घुली रहने और फेफड़े ठीक काम करने पर भी मनुष्य मर क्यों जाता है तो समझ में आया कि प्राण और आक्सीजन दो पृथक वस्तुएँ हैं। प्राण के निकल जाने पर शरीर में आक्सीजन सिलेंडरों के माध्यम से साँस पहुँचाई जाती रहे तो भी उसे जीवित नहीं किया जा सकता।
इतने पर भी गहरी साँस का अपना महत्व है। आक्सीजन जीवनी शक्ति बढ़ाती है, रक्त को शुद्ध करती है, तापमान बनाये रखती है आदि बातें सही हैं। इसलिए यह भी सही है कि मनुष्य को गहरी साँस लेने की आदत डालनी चाहिए। फेफड़ों को पूरी तरह हवा से भरना चाहिए और उन्हें पूरी तरह खाली करना चाहिए। इस प्रकार फेफड़ों में एक बार में 200 से सी.सी. तक हवा शरीर में भरी जा सकती है और उसमें समाविष्ट आक्सीजन का लाभ उठाया जा सकता है, किन्तु देखा गया है कि लोग आलस्य वश उथली साँस लेते हैं और एक बार में प्रायः 500 सी.सी. ही हवा भीतर ले जा पाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि फेफड़ों का मध्य भाग ही क्रियाशील रहता है और इर्द-गिर्द के कोष्ठक निष्क्रिय पड़े रहते हैं, जिनमें क्षय आदि के जीवाणु-विषाणु आसानी से टिक जाते हैं और वंश वृद्धि करते हुए जीवन के लिए संकट बन जाते हैं।
कुछ दिन पूर्व तक भारतीय योग पद्धति के महत्वपूर्ण अंश प्राणायाम का लाभ ‘डीप ब्रीदिंग’ के आधार पर माना जाता था और जो लाभ मिलते थे उन्हें गहरी साँस लेने का प्रतिफल माना जाता था।
पर अब समझा जाने लगा है कि प्राण एक जीवन्त विद्युत है, जो शरीर से भी अधिक मनःक्षेत्र को प्रभावित करती है। मनुष्य को साहनी, पराक्रमी, तेजस्वी और स्फूर्तिवान बनाती है। इस उपलब्धि को यदि समुचित मात्रा में हस्तगत किया जा सके तो सामान्य दीखने वाला मनुष्य भी अपनी असाधारण विशिष्टता का परिचय दे सकता है।
शरीर और मस्तिष्क में बिजली के असाधारण आवेश पाये गये हैं। वे ही मस्तिष्कीय घटकों और शारीरिक जीवकोशों में अभिनव ऊर्जा का संचार करते और मनुष्य को उत्साहित रखते हैं। उत्साहित ही नहीं, प्रसन्न और क्रियाशील भी, साहसी एवं उमंगों से भरा हुआ भी।
यह विद्युत शक्ति आक्सीजन से सर्वथा भिन्न है। वह अनन्त आकाश से मस्तिष्कीय केन्द्र संस्थानों द्वारा अवतरित आकर्षित होती है। इसे खींचने में मन को गंगावतरण के लिए किये गये भागीरथी तप की भाँति निरत होना पड़ता है।
प्राणायाम माध्यम सही है पर यदि उसके साथ श्रद्धा विश्वास का पुट न होगा तो साँस भर का लाभ मिलेगा। प्राण का अभिनव आविर्भाव न हो सकेगा।
मनुष्य शरीर में बिजली का कितना भण्डार है इसकी नाप-तौल अब होने लगी है। देखा गया है कि उससे 60 वाट का बल्ब तक जल सकता है। समस्त शरीर में संव्याप्त और कार्यरत बिजली का यदि पूरा आँकलन किया जा सके तो प्रतीत होगा कि व्यक्ति चलते-फिरत जनरेटर के रूप में गतिशील रहता है। अभी अमेरिका में ऐसे 20 से अधिक मनुष्य जीवित हैं, जिनका शरीर झटके देता है। वस्तुओं को इधर-उधर उठक-पटक कर देता है। कई व्यक्ति इस भीतरी विद्युत के उबल पड़ने पर अकारण ही जलकर भस्म हो चुके हैं। इससे हर मनुष्य में बिजली जैव विद्युत की एक अच्छी खासी मात्रा होने की सम्भावना देखी जा रही है और यह सोचा जा रहा है कि उसको बढ़ाने या लाभ उठाने का तरीका क्या हो सकता है?