स्वेच्छा मरण- एक उलझी गुत्थी

March 1986

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आहार विहार के व्यक्तिक्रम से लोग अपनी जीवनी शक्ति बुरी तरह गंवाते जा रहे हैं। ऐसी दशा में न अपनी स्थिरता बनाये रखना सम्भव होता है और न कठिन रोगों से जूझते हुए निरस्त कर पाना। जिनने अपने बचपन और यौवन में समर्थता की पूँजी संग्रह नहीं की है, उनके लिए बुढ़ापा बहुत कष्ट साध्य होता है। सामान्य दिनचर्या के लिए भी दूसरों का सहारा तकना पड़ता है और यदि वह साधन उपलब्ध न हों तो दिनचर्या का क्रम भी यथावत् नहीं चल पाता। स्वच्छता का क्रम भी गड़बड़ा जाने से नये किस्म की बीमारियाँ उठती रहती हैं।

कई बार शरीर अत्यधिक जर्जर हो जाता है। इतना ही नहीं, कभी-कभी कोई ऐसे भयंकर रोग घेर लेते हैं, जिससे शरीर की अपनी दैनिक सफाई और उपचार व्यवस्था भी नहीं बन पड़ती। विशेषतया वहाँ के लोगों के लिए तो और भी कठिनाई होती है, जहाँ सरकारी अस्पताल नहीं है।

रोगों की पीड़ा कई बार इतनी जकड़न पैदा कर देती है। इस पीड़ा की बहुलता के साथ जिन्दगी के बचे हुए दिन काटना कठिन पड़ता है और स्थिति दयनीय दुर्गति स्तर की बन जाती है।

विचारकों के सामने यह प्रश्न है कि जिनकी बीमारी असह्य स्थिति तक पहुँच गयी है, उन्हें शान्तिपूर्ण मृत्यु के आह्वान का कोई उपाय करना चाहिए या नहीं। असह्य पीड़ा की तुलना में कई बार गहरी निद्रा में ले जाने वाली या सरलतापूर्वक जीवन का अन्त कर देने वाली व्यवस्था अधिक सुविधाजनक प्रतीत होती है।

प्रचलित कानून के अनुसार आत्महत्या करना या उसमें सहायता करना अपराध है। प्रयास करने वाले पकड़े जाने पर दण्ड के भागी होते हैं। अतएव जिनके दिमाग में असह्य व्यथा से छूटने का विचार उठता है वे भी विवशता में उसे कार्यान्वित नहीं कर पाते। इस कठिनाई को हल करना उचित है या नहीं, उस प्रश्न पर बहुत समय से विचार किया जा रहा है।

आवेश में, प्रतिशोध रूप में हत्या या आत्म-हत्या करना गर्हित है। इस सम्बन्ध में दो मत नहीं हो सकते। आदमी ऐसी स्थिति में आपे से बाहर हो जाता है। उचित अनुचित का विवेक भूल बैठता है एवं छोटी बात के लिए भी प्राण घातक आक्रमण जैसी नृशंसता कर बैठता है। किसी से असन्तुष्ट या रुष्ट होने पर उस पर प्राण घातक आक्रमण ही कर बैठा जाय, यह न्याय की कोई भी विचारणा समर्थन नहीं कर सकती। फिर आवेशग्रस्त की तो ऐसी स्थिति रहती ही नहीं, जिसमें वह अपराध और दण्ड के मध्यवर्ती और सत्य का निर्णय कर सके। इसके लिए न्यायालय बने हुए हैं। कानून की धाराएँ निर्धारित हैं। किसने किस परिस्थिति में, किस स्तर पर अपराध किया और उसके लिए कितने दण्ड की आवश्यकता है, इसका निर्णय करना निष्पक्ष एवं विचारशील न्यायाधीश का ही काम है। क्षतिग्रस्त तो आवेश में आपे से बाहर होता है। औचित्य वाली बात सोचने की उसकी मनःस्थिति ही नहीं होती। ऐसी दशा में उसका प्रतिशोध या आक्रोश इतना उग्र भी हो सकता है कि प्रति पक्षी का प्राण हरण भी कर ले। इसलिए न्याय का अधिकार विचारशील न्यायाधीशों को निर्धारित संहिता के अनुरूप देने का ही विधान है। जो कानून हाथ में लेता है वह अपराधी माना जाता है और कानून हाथ में लेने का दण्ड स्वयं उसे भुगतना पड़ता है।

आत्महत्या भी लगभग इसी प्रकार का अनुचित प्रयास है। व्यक्ति किसी के व्यवहार से रुष्ट होकर जब उसे दंड दे सकने की स्थिति में नहीं होता तो उस आक्रोश को अपने ऊपर उतारता है और स्वयं आत्महत्या कर बैठता है। इस प्रयास के अनेकों कारणों में से दो प्रमुख हैं। एक यह है कि दूसरों से जिस प्रकार के सहयोग सद्व्यवहार की आशा नहीं होती, वह न मिलने पर जो क्षोभ उत्पन्न होता है, उसके बदले वह आत्म हत्या कर बैठता है। इसका वास्तविक उद्देश्य अपने अभाव में जो दुःख या कष्ट दूसरों को देना होता है उसकी पूर्ति आत्महत्या जैसे उपाय से करना होता है।

महत्वाकाँक्षाओं को बहुत हद तक बढ़ा लेने और उनकी पूर्ति का सुयोग न बन पड़ने पर भी मनुष्य कातर जैसी मनःस्थिति में जा पहुँचता है और उस व्यथा से छुटकारा पाने के लिए आत्म-हनन जैसा कुकृत्य कर बैठता है।

यह सभी स्थितियाँ विवेक हीनता की परिचायक है। जब मस्तिष्क संतुलित नहीं होता तो उसके लिए यह सोच सकना भी कठिन होता है कि उन्हें स्थिति से निपटने के लिए क्या करना चाहिए? शान्त चित्त से सोचने पर ऐसे अनेकों उपाय सूझ सकते हैं कि बिना कोई दुर्घटना किये भी समस्या का हल निकल सके ओर गुत्थी एक तरह न सही दूसरी तरह सुलझ जाय। आवेशजन्य आक्रमणों को इसलिए एक स्वतन्त्र अपराध गिना जाता है और उसके लिए पूर्व प्रकरण को ध्यान में न रखते हुए इस दृष्टि से दण्ड दिया जाता है कि उसने न्याय व्यवस्था होते हुए भी कानून को अपने हाथ में क्यों लिया? यह बर्बर तरीका है। इसलिए निन्दनीय भी है और दंडनीय भी।

किन्तु शरीर के इतना गल जाने पर कि चिकित्सक भी उसके बचने की आशा छोड़ दें और रोगी अपने आप में अत्यधिक कष्ट सहन कर रहा हो तो स्वेच्छामरण का प्रश्न इन दोनों परिस्थितियों में भिन्न हो जाता है। यह पीड़ा के असह्य होने पर उसको सहने के कार्यकाल का स्तर घटा देने की एक प्रकार से दया याचना है, जो किसी की सहायता से भी ली जा सकती है और उसका उपाय स्वयं भी खोजा जा सकता है। प्रश्न यह है कि ऐसी दशा में भी वह कृत्य आत्महत्या के अपराध में सम्मिलित होता है या नहीं। इसके संदर्भ में दो मत हैं। एक वह जिसका कथन है कि ईश्वरीय विधान को पूरा करके ही शरीर दफनाना या जलाना चाहिए। दूसरे पक्ष का कथन है कि जिस प्रकार रोगों के उपचार में ईश्वर की इच्छा को ध्यान में रखते हुए अपनी स्वतन्त्र बुद्धि कष्ट निवारण का प्रयत्न चिकित्सक करते हैं तो अनिवार्य स्थिति में स्वेच्छामरण को क्यों उचित नहीं समझा जा सकता?

गाँधी जी के आश्रम में एक बछड़ा अत्यधिक बीमार था। उसके बचने की कोई आशा नहीं थी। अहिंसा के समर्थक गाँधी जी ने डाक्टरों को परामर्श देकर उसे विष का इन्जेक्शन लगवा दिया था और उसकी जल्दी ही कष्ट रहित मृत्यु हो गई। इस प्रश्न को लेकर उन दिनों पक्ष और विपक्ष में बहुत चर्चाएं हुईं। पर गाँधी जी ने अपने निर्णय में कोई अनौचित्य न माना।

पिछले दिनों महाराष्ट्र की विधान सभा में ऐसे ही एक प्रस्ताव पर विचार हुआ कि इस स्तर के स्वेच्छामरण में सहायता करना दया धर्म का परिपालन माना जाय और डाक्टरों की समिति उसे जीवन का बचाना असम्भव घोषित कर दे तो उसे ऐसा उपचार दिया जाना चाहिए कि उसके स्वेच्छामरण में विलम्ब न लगे। ऐसा प्रस्ताव अमेरिका की कुछ फेडरल सरकारों ने तो पास कर नियम लागू भी कर दिया है। इसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में “यूथेनेसिया” कहा जाता है।

इस संदर्भ में संसार भर में अनेकों विचार चल रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि जब मनुष्य अपने शरीर का भार उठाने लायक नहीं रहा तो उसे दूसरों का समय और धन क्यों नष्ट करना चाहिए और स्वेच्छामरण के लिए अपने को प्रस्तुत क्यों नहीं रहना चाहिए? इसके विपरीत नरमपन्थी विचारशील पक्ष का यह मत है कि ऐसा करने पर मनुष्यों को एक-दूसरे के प्रति दया धर्म का पालन करने की गुंजाइश ही न रहेगी और मनुष्य पूरी तरह निष्ठुर उपयोगिता वादी बन जायेगा। कुछ भी हो, कैन्सर व अन्य असाध्य रोग तथा वृद्धों की बढ़ती संख्या के साथ यह पक्ष भी जोर पकड़ता जा रहा है।


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