मन को समुन्नत बनाने का एक मात्र राजमार्ग

March 1986

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प्रत्येक पिता की इच्छा होती है की हमारा पुत्र हमारी तुलना में अधिक सम्पन्नता, ख्याति, पदवी, प्रतिष्ठा प्राप्त करे। गुरु भी अपने शिष्य को अपने से बढ़कर देखना चाहते हैं क्योंकि गढ़ी हुई प्रतिमा का श्रेय अन्तः उसके सृजनकर्ता को ही जाता है।

हमारा ‘स्व’ वस्तुतः आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं। हमारे दो पुत्र हैं। एक मन दूसरा शरीर। इन दोनों के द्वारा ही गाड़ी के दो पहियों की तरह जीवन की रीति-नीति बनाई और चलाई जाती है। गाड़ी में दो बैल जुतते हैं उनके बीच ठीक तालमेल बना रहे तो राह आसानी से कटती है और गाड़ी लक्ष्य तक पहुँचती है।

आत्मा का कर्त्तव्य है कि वह अपनी वरिष्ठता विशिष्टता इस बात से सिद्ध करे कि वह अपने इन दोनों पुत्रों, शिष्यों को कितनी समुन्नत स्थिति तक पहुंचा सका। लक्ष्य को कितना ऊँचा रखने और उसे प्राप्त कर लेने की प्रतिज्ञा कितनी लगन और प्रतिष्ठापूर्वक सम्पादित की जा सकी।

अनुकरणीय, अभिनन्दनीय, महामानवों की तरह जीवनयापन कर सकना, किसी के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। उसके उपरान्त मेधा, प्रतिभा, क्षमता और साधन सुविधा हर किसी को मिली है। प्रश्न इतना भर है कि उनका सही रीति से सही प्रयोजन के लिए, सही समय पर उपयोग कर सकना जाना गया या नहीं।

जीवन का आयुष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण भाग उठती आयु से लेकर- प्रौढ़ता बनी रहने तक का है। बचपन ऐसे ही बचकानेपन में बीत जाता है। ढलती आयु में थके माँदे दिन कटते हैं। जो कुछ भी कहने लायक पुरुषार्थ किसी से बन पड़े हैं वे उसी शक्ति और स्फूर्ति वाली अवधि में सम्पन्न हुए हैं। जिनने यह समय वासना तृष्णा, के चंगुल में कसे-कसे गँवा दिया। समझना चाहिए कि उसने बहुत भारी घाटा उठाया। इस तथ्य को प्रत्येक आत्मा स्वयं समझे और दोनों भुजाओं की तरह प्रयासों को सफल बनाने वाले मन और शरीर को समझाये।

मनुष्य स्वभावतः बहुत महत्वाकाँक्षी है। अबोध स्थिति से ही उसे मान और प्यार पाने की इच्छा होती है तनिक सी आयु बढ़ते ही विलास, वैभव और बड़प्पन की ललक जगती है। यही हैं वे ग्राह जो गज को सरोवर में घसीट ले जाते हैं। यही हैं वे कौरव जो द्रौपदी को भरी सभा में निर्वस्त्र करते हैं। सतर्कता इस बात की रहनी चाहिए कि शत्रुओं से बचा जाय। सज्जनों के साथ मित्रता का निर्वाह इसके उपरान्त ही बन पड़ता है। दल-दल में कंठ तक फँसा हुआ मनुष्य प्रगति पथ पर अग्रसर कैसे हो? पहला प्रयास डूबने की स्थिति से उबरने का होना चाहिए। मन को तृष्णाओं से और शरीर को वासनाओं के गर्त में गिरने से बचाया जाना चाहिए। उन्हें कहा जाना चाहिए कि कुसंग से पहले निकला जाय सत्संग का लाभ इसके उपरान्त ही मिलेगा। हेय पशु प्रवृत्तियों से पीछा पहले छुड़ाया जाय। ऊँचा उठने की चेष्टा तभी बन पड़ेगी।

पतन में गिरने से बचना और ऊँचा उठने का सुयोग बनना तभी सम्भव है जब साँसारिक एषणाओं की ओर सरपट, दौड़ने की आदत बदली जाय और उलटकर उन महत्वाकाँक्षाओं के मार्ग पर चला जाय जो महानता के लक्ष्य तक पहुँचाता है।

परिवर्तन की यह संधि बेला आई या नहीं, इसकी एक ही कसौटी है कि औसत भारतीय स्तर का निर्वाह स्वीकार हुआ या नहीं। “सादा जीवन उच्च विचार” के आदर्श की महत्ता मानी गई या नहीं? अमीरी का बड़प्पन निरर्थक मानकर महानता का गौरव गले उतरा या नहीं। यदि इतना बन पड़े तो जीवन वस्तुतः नितान्त हलका-फुलका हो जायेगा। उसकी राई रत्ती जितनी आवश्यकता है तनिक सी सूझ-बूझ और मेहनत के सहारे पूरी होती चलेंगी। सांसारिक समस्याएँ और कठिनाइयाँ सरलता पूर्वक हल होती चलेंगी। अनसुलझी कोई गुत्थी रहेगी नहीं। जहाँ सन्तोष और सादगी का रसास्वादन हुआ नहीं कि वह परिस्थितियाँ देखते-देखते बदल जायेंगी जो व्यस्त रखतीं और त्रस्त करती थीं।

समस्याओं के समाधान के सौ उपाय हैं। हम हठ पूर्वक एक को ही पकड़ बैठते हैं और सोचते हैं कि काम इसी प्रकार बनना चाहिए। अपनाया हुआ रास्ता छूटना नहीं चाहिए। जिस प्रकार सोचा जाता रहा है, उसी प्रकार पूरा होना चाहिए। यदि इस दुराग्रह को छोड़ दिया जाय और जीवनयापन के सम्बन्ध में दूसरे उपाय उपचार सोचे जायं तो ऐसे अनेकों मार्ग मिल सकते हैं जिन्हें अपनाकर शरीर की आवश्यकताएं सरलतापूर्वक पूरी की जा सकें।

महत्वाकांक्षाऐं वही श्रेयस्कर हैं जो बड़ा नहीं महान बनायें। महान बनने का एक ही उपाय है कि दृष्टिकोण और कार्यक्रम महान बनाया जाय। उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और शालीन व्यवहार यह तीन ही ऐसे त्रिभुज हैं जो मिलकर महानता की समग्र आकृति बनाते हैं। इन्हीं का समन्वय त्रिवेणी संगम बनाता है।

महान जीवन मात्र अपने लिए नहीं जिया जा सकता। वह संकीर्ण स्वार्थपरता की सीमा में आबद्ध नहीं हो सकता। उदात्त दृष्टिकोण अपनाते ही सब अपने प्रतीत होते हैं। “आत्मवत् सर्वभूतेषु” का शास्त्र वचन जीवन व्यवहार में उतर जाता है तब जैसी चिंता अपने लिए करनी पड़ती है वैसी ही सब के लिए उठ खड़ी होती है। जैसा व्यवहार दूसरों से अपने लिए चाहते हैं उसी प्रकार का दूसरों के साथ बन पड़ता है। दुर्गुण हटते ही सद्गुण उनका स्थान ग्रहण करने लगते हैं। आलस्य और प्रमाद गया नहीं कि पराक्रम और साहस जगा नहीं। मूढ़ता से पीछा छूटते ही सतर्कता व्यक्तित्व में समा जाती है। जो विवेक की कसौटी पर कसकर वस्तुएं खरीदता है- नीतियाँ अपनाता है, उसे खोटा खरीद लाने की शिकायत नहीं करनी पड़ती।

बल्ब बिजली के तार में सटते ही चमकने लगता है। आत्मा की गरिमा उसी क्षण प्रकाशवान हो उठती है, जिस क्षण कि वह प्रचलन की कीचड़ में से निकलकर भगवान के चरणों में जा बैठता है। आत्माओं कस समुच्चय ही परमात्मा है। विराट् विश्व को ही परब्रह्म कहते हैं सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन ही वह प्रयास है जिसे ईश्वर की सर्वोपरि आराधना कहा जा सकता है। उसके उद्यान को सुरम्य, सुविकसित बनाने में ईमानदार और परिश्रमी माली की तरह जुट पड़ना ही भगवान को प्रसन्न करने का एकमात्र उपाय है। इस तथ्य को स्मरण रखने के लिए ही बार-बार राम नाम रटा जाता है ताकि राम का सौंपा हुआ काम दृष्टि से ओझल न होने पावे।

इस संसार की समस्त समस्याओं का समाधान लोकमानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन से है। इन्हीं प्रयासों में निरत रहकर समूचे वातावरण को बदला जा सकता है। इस प्रयास में निरत रहकर अपनी दबी सत्प्रवृत्तियों को उभारा जा सकता है और महामानवों की गणना में अपने को सम्मिलित किया जा सकता है।

व्यक्तित्व को पुण्यमय और क्रिया-कलाप को परमार्थ परायण बनाकर ही हम अपना और साथ ही अगणित अन्यान्यों का भला कर सकते हैं। नाविक अपनी नाव को भुजबल से चम्पू चलाकर किनारे लगाता है और उसमें बिठाकर असंख्यों को पार लगाता है। यह कार्य किसी को धन या सुविधा साधन देकर नहीं किया जा सकता है। इसका उपाय तो एक ही है कि व्यक्ति की स्वतन्त्र चेतना को जगाया जाय और सन्मार्ग अपनाने क लिए उसे मार्गदर्शन, प्रोत्साहन और साहस प्रदान किया जाय। प्रत्यक्ष सहायता तो सामयिक आवश्यकता पूर्ति के लिए सहानुभूति अर्जित करके विश्वासपात्र बनने भर के लिए अर्जित करने के निमित्त की जाती है। वास्तविक हित साधन तो स्वावलम्बन और सुसंस्कार से ही बन पड़ता है। मन को यही पाठ हर घड़ी पढ़ाया जाय और उस हेतु व्यावहारिक कार्यक्रम बनाकर उन दोनों को दिया जाय तो समझना चाहिए कि आत्मा का शरीर और मन के प्रति जो कर्त्तव्य है, वह पूरा हुआ।


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