मध्य युग में जन-मानस का रुझान आदर्शवादिता की ओर न होकर भौतिकवादी दर्शन की तरफ खिंचता चला जा रहा था। एक तरफ तो अत्याचार और अनाचार की लहर निरन्तर फैल रही थी तो दूसरी ओर पुरोहित वर्ग ने पाप विमोचन की एक नयी नीति को अपना रखा था। धर्म के पुरोहितों ने जनता का जमकर शोषण कर स्वर्ग के सपने दिखाकर टिकट देना आरम्भ कर दिया था।
मार्टिन लूथर ने इसी प्रचलन के प्रतिरोध में अपनी आवाज उठाई कि मात्र आदर्शवादी सिद्धाँतों को ही इस भूलोक पर मान्यता दी जाय। अपने क्रान्तिकारी प्रतिपादनों का प्रस्तुतीकरण करने से पूर्व लूथर ने सर्वप्रथम विटनवर्ग में अवस्थित कैसल चर्च में उन तथ्यों का गहन अध्ययन किया जो ईसाई धर्म से संबंध रखते थे। धर्मतन्त्र की वास्तविकता को प्रकट करते हुए उन्होंने 95 विषयों पर शोध प्रबन्धों को लिखा। विटनवर्ग चर्च में लूथर ने ‘आल सेन्टस चर्च’ की मान्यताओं को धर्मतन्त्र में समाविष्ट करते हुए परिशोधन का अभियान छेड़ा। लूथर की ये विचारधारायें प्रायोगिक स्तर की थीं। पोप के विशेषाधिकारों की ओर तो उन्होंने तुरन्त उँगली नहीं उठायी लेकिन धर्म में संव्याप्त विकृत मान्यताओं का खण्डन अवश्य किया। ईसाई धर्म की उन मान्यताओं की भी अवहेलना की जो इस बात पर दबाव देती थीं कि स्वर्ग उसी व्यक्ति को मिलेगा जिसने अपने को क्रूस पर लटकाया है।
जर्मन राष्ट्र की कुलीनता के संदर्भ में उन्हें सम्बोधित करते हुए लूथर ने बताया कि सम्राटों एवं शासनाध्यक्षों को आतंकवादी, दमनकारी नीतियों के स्थान पर मानव-कल्याण की भावनाओं से ओत-प्रोत नीति बनाना चाहिए। इसी के परिणाम स्वरूप रोम और जर्मनी में धर्मतन्त्र के सही स्वरूप की पुनः स्थापना संभव हो सकी। सन् 1520 में चार्ल्स पंचम के साम्राज्य काल में सर्वप्रथम मैनीफैस्टो “ऐड्रेस टू दी क्रिश्चियन नोबिलिटी आफ दी जर्मन नेशन” में उस धर्म परायण प्रभु सत्ता का उन्होंने खण्डन किया, जो मनुष्य को बजाय मुक्ति के उलटा बंधन में बाँधती थी।
प्रतिकूलताओं के बीच काम करने वाले इस समाज सुधारक मार्टिन लूथर ने कभी चिंता नहीं की कि स्वार्थी धर्माचार्य रुष्ट होकर उसका कुछ बिगाड़ भी सकते हैं। जनता के राजनीतिक एवं सामाजिक विद्रोह के समय उन्होंने ‘सैक्सौनी’ के प्रशासक को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने गर्जना की कि कृषकों, दलितों के ऊपर अमानवीय, अनैतिक एवं अत्याचारपूर्ण किसी भी सिद्धान्त का सरकारी तौर पर न थोपा जाय वरन् ईश्वरीय सिद्धान्तों को ही उनके ऊपर लागू होने दें। उनका कहना था कि “हमारा प्रशासक तो एक मात्र परमात्मा ही है। हमें मात्र उससे डरना चाहिए सामंतशाही व पोपशाही से नहीं। सन् 1524 में राजा महाराजाओं में क्रोध की ज्वाला भभक उठी और लूथर के अन्य सहयोगियों को जो आन्दोलन में उनके साथी थे, देश से बाहर निकाल दिया गया, लेकिन लूथर फिर भी नहीं घबराये। पाखण्डवादी पुरोहितों के प्रति उन्होंने अपना संघर्ष अन्त तक चालू रखा।
इसी का परिणाम था कि धनाध्यक्षों एवं धर्माचार्यों की मिली भगत से जन साधारण के हो रहे शोषण के विरुद्ध एक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ जिसने एक सुधारवादी समुदाय को जन्म दिया। यूरोप व पाश्चात्य जगत के कई देशों की प्रगति जो आज दृष्टिगोचर होती है, का मूल श्रेय इस सन्त मार्टिन लूथर को जाता है जिसने अपने समय में सत्ता व आतंक के खिलाफ एकाकी क्रान्तिकारी मोर्चा लड़ा था।