मानवी काया का अदृश्य अस्तित्व

March 1986

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मनुष्य मात्र वह शरीर नहीं है, जो बाह्य रूप से दीखता है परन्तु वह चेतना कस सूक्ष्म रूप है, जो मृत्यु के बाद भी बचा रहता है। मनुष्य के चारों और एक ऑरा होता है, जो ज्ञानी, भक्त और सिद्ध पुरुषों में स्पष्ट दीखता है। यही ऑरा (प्रभामण्डल) मनुष्य की चेतना का शरीर या सूक्ष्म शरीर है, जो कि उसकी वास्तविकता है। यह ऑरा प्रकाश के रंगों और लहरों के रूप में होता है एवं समस्त विषयों में भावनाएँ व्यक्त करता है। यह भिन्न-भिन्न लोगों में भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। यह मनुष्य के धार्मिक, दार्शनिक, राजनैतिक, आर्थिक, दूसरों के प्रति उसके सम्बन्धों उसके व्यवहारों और अधिकारों आदि बातों को व्यक्त करता है। चिन्तन के अनुरूप बदलता रहता है।

“मेन विजीबल- इन विजीबल” पुस्तक के लेखक सी.डब्ल्यू लेडवीटर के अनुसार हमारे मन के अनेकों दिशाओं में दौड़ लगाते रहने के कारण और परिस्थितियों के कारण यह ऑरा अनेक भागों में विभाजित हो जाता है। हम नित्य अनेक सुख साधनों को चाहते हैं और अनेक आकाँक्षाएँ रखते हैं। इनकी पूर्ति न होने के कारण, ये भाव अचेतन मन में अंकित हो जाते हैं। इनका प्रभाव हमारे चरित्र और चिन्तन पर बुरा पड़ता है। हमारे जाने-अनजाने असंख्य विद्वेषों, प्रतिशोधों का अंकन नित्य चेतना पर होता है। हिप्नोटिज्म से या ध्यान द्वारा मस्तिष्क को उत्तेजित करके इन्हें ज्ञात किया जा सकता है। इससे मन का मस्तिष्क से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

हमारे असंख्य विचारों और भावनाओं के कारण आदतों में भी परिवर्तन होते रहते हैं। हमें प्रेम, घृणा, सुन्दरता, कुरूपता, सहानुभूति, साहस, धैर्य, शत्रुता या मैत्री की भावनाएँ नित्य पीड़ित करती रहती हैं। इस परिवर्तन के अनुसार हमारी चेतना मण्डल या ऑरा भी बदलता रहता है। ईसा का कथन है कि स्वर्ग का राज्य कहीं नहीं है। स्वर्ग मात्र मनुष्य के मन और हृदय की एक स्थिति भर है। जब वह अपनी त्रुटियाँ देखकर उन्हें सुधरता है और सत्य को समझता है तो उस दृष्टिकोण से वह स्वयं को स्वर्ग जैसी स्थिति में पहुँचा लेता है।” इस सत्य या ज्ञान को जान लेने पर वह हमेशा दूसरे मनुष्यों की सहायता करता है। साथ ही आन्तरिक शाँति और मन की स्थिरता से चेतना शुद्ध होती है और शीघ्र ही परमात्मा से एकत्व स्थापित करती है। वैज्ञानिकों और अनुसन्धान कर्त्ताओं को अपने अनुसन्धानों में शान्ति एवं स्थिरता से ही मन के नए-नए आयामों का रहस्योद्घाटन करने में सफलता मिली है।

विभाजित चेतना भी एक बार अवसर मिलने पर तनावों एवं दबावों से मुक्त होकर एकत्व स्थापित कर सकती है। इसके लिए उसका स्वतन्त्र, शान्त एवं स्थिर होना आवश्यक है। उसे लालसाओं, आदतों और आकर्षणों से सर्वथा मुक्त होना चाहिए तब उसकी प्रकृति और समझदारी सही दिशा में नियोजित होती है तथा वह अपने एवं दूसरों के प्रति व्यवहार सत्य के आधार पर करता है। इससे वह समस्याओं से मुक्त रहता है और सभी परिस्थितियों एवं कठिनाइयों का मुकाबला आसानी एवं धैर्य के साथ कर लेता है। इस शुद्ध चेतना के स्वतः प्रकाशित होने से ब्रह्मांड से सीधा संपर्क कायम हो जाता है और वह वहाँ की समस्त शक्तियों का लाभ उठाता है।

साधारणतः हम सोचने, सुनने और सामान्य काम करने आदि में अपनी शक्ति का एक अंश ही लगाते हैं। परन्तु विपत्तियों में हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और उससे प्रायः मुक्त हो जाते हैं। यह चेतना की कुल शक्ति तब अपनी पूरी सामर्थ्य से काम करती है, जो उसकी स्वतन्त्रता की द्योतक है। यह अज्ञात शक्ति मनुष्य के भीतर से ही आती है। इस शक्ति का आभास मनुष्य के ऑरा के प्रत्येक भाग से होता है। ऑरा की असीम शक्ति जीवन और चेतना की एकता का प्रतीक है। डा. एनी बेसेन्ट के अनुसार ऑरा का प्रकाश भीतर से बाहर की और चक्राकार में प्रवाहित रहता है एवं यह प्रकाश अनेक रंगों में जीवन की स्थितियों को प्रकट करता है। दिव्य दृष्टा पुरुष इसे देख सकते हैं।

यह स्मरण रखना चाहिए कि जीवन हमेशा वर्तमान स्थिति में होता है। भूतकाल की बातों को भूलने पर ही वर्तमान की स्थिति आती है और आत्मा (या चेतना) शुद्ध होती है। तब जीवन शुद्ध और स्वतन्त्र होता है। यही आत्म सत्ता का शाश्वत सौंदर्य है। मृत्यु एक प्रकार का पटाक्षेप है। वह आत्मा को शुद्ध करती है और भूतकाल के अनुभवों को समाप्त करती है। शुद्ध चेतना फिर भौतिक आकर्षणों और भाग-दौड़ में नहीं पड़ती। परमात्मा से उसका एकत्व कभी नष्ट नहीं होता। जीवन अविनाशी है, यद्यपि शरीर का नाष हो जाता है। पूर्वार्त्त दर्शन के अनुसार हर आत्मा का दुबारा जन्म फिर होता है, क्योंकि यह प्रकृति का नियम है। किन्तु अपवाद रूप में कोई-कोई मनुष्य अपने जीवन काल में ही चेतना को शुद्ध एवं स्वतंत्र कर लेते हैं, तब दुबारा जन्म लेना या न लेना उनकी इच्छा पर निर्भर होता है। ऋषि, महामानव, देवदूत इसी श्रेणी में आते हैं।

मनुष्य जब अपनी चेतना की क्षमता को समझ लेता है, और शुद्ध बना लेता है तब उनके जीवन एवं मृत्यु की अनेक समस्याएँ एवं पीड़ाएँ दूर हो जाती हैं। आत्म-सत्ता सम्बन्धी यह जीवन दर्शन जो भली-भाँति हृदयंगम कर लेता है, वह जीवित रहते हुए भी बन्धनों से, कषाय-कल्मषों से सर्वथा मुक्त रहता है।

मन को शक्ति इस प्राण शरीर या सूक्ष्म चेतना से ही मिलती है। मन बहुत संवेदनशील और शक्तिशाली है और प्रत्येक परिस्थिति का उस पर प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य का मन दूसरे के मन से अलग-अलग विचारों, भावनाओं एवं अनुभवों का समुच्चय होता है। इस आधार पर ही प्रत्येक का व्यवहार एवं आदतें दूसरों से भिन्न विकसित होती हैं। उनकी अभिलाषाएं भी भिन्न-भिन्न होती हैं। मन का व्यावहारिक प्रकटीकरण अपने आप निरन्तर जाने अनजाने में होता रहता है।

मृत्यु से शरीर नष्ट होता है परन्तु उसके सारे जीवन के अनुभव एवं उसकी सक्रियता के सूत्र सूक्ष्म शरीर में बीज रूप में विद्यमान रहते हैं। ये आत्मा के साथ हर जीवन में साथ देते हैं। आत्म-सत्ता प्रकृति में पूर्ण चैतन्यता एवं स्वतन्त्रता बनी रहती है। अपनी इस आन्तरिक विभूति की स्वतन्त्रता एवं शक्ति को समझने से मनुष्य असीम शक्तिशाली एवं क्रियाशील बन सकता है। इससे उसका हर नया पल सफल एवं महान् विकसित होता रह सकता है। महापुरुषों में हमेशा ताजगी, तरुणाई एवं सहृदयता आदि गुण पाये जाते हैं। यह शक्ति शरीर और मन की ही नहीं होती वरन् अंतरात्मा की होती है। चेतना के स्वतन्त्र होते ही यह जीवन-शक्ति विस्फोटक हो जाती है। यह स्थिति स्वैच्छिक मृत्यु होने के बाद नए जीवन में सुगमता से विकसित होती है और ऐसी आत्मा का हृदय शुद्ध होता है।

नित नूतन नवीनता और सुन्दरता बाह्य विश्व और पदार्थों में नहीं है, वरन् वे चेतना में हैं। चेतना ही सोचती, समझती और प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। मानव चेतना अति महत्वपूर्ण एवं सूक्ष्म है। दैनन्दिन क्रिया-कलापों की स्मृति उसकी भाव प्रवीणता को कमजोर करती है। पर स्मृति के बिना हम संसार में नहीं रह सकते। हमारे सम्पूर्ण क्रिया-कलाप स्मृति के आधार पर ही होते हैं। यह स्मृति जीवन के असंख्य आकर्षणों के कारण संकुचित हो जाती है। किन्तु शुद्ध चेतना पर समय और दूरी का प्रभाव नहीं पड़ता।

हमारी आत्म-सत्ता जीवन की संपूर्ण हलचलों को बिना किसी प्रतिरोध के अंकित करती रहती है, क्योंकि प्रतिरोध से कठिनाइयाँ, बाधाएं और समस्याएँ पैदा होती हैं। गीताकार के अनुसार शुद्ध चेतना असंख्य प्रकार के जीवन प्रवाहों को बिना प्रभावित हुए सहन करती रहती है। कौन कितना, किस सीमा तक स्वयं को शुद्ध बनाकर आत्म-चेतना को विकसित करता है, इसी पर उसकी अन्तरंग एवं बहिरंग क्षेत्र में सफलता निर्भर करती है। यही है वह तत्वज्ञान जो किसी भी साधारण से मनुष्य को बोध होने पर महामानव बना देता है।


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