सब कुछ कहने के लिए विवश न करें

March 1986

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युग परिवर्तन के महान् प्रयोजन में एक वर्ष के समयदान की याचना महाकाल ने की है। काम बड़ा और लम्बा भी। किन्तु एक वर्ष की ही माँग क्यों की गयी, जबकि इक्कीसवीं शताब्दी को आने में अभी 15 वर्ष और बाकी हैं और इस अवधि में महान घटनाएं होने वाली हैं। अशुभ से लड़ने और सृजन में जुटने के लिए असंख्यों एक से एक महत्व के काम सामने आने वाले हैं। पूरा जीवनदान कर भी दिया जाय तो भी आवश्यकता और उपयोगिता को देखते हुए भी वह कम है। फिर विचारणीय है कि बारम्बार एक वर्ष के समयदान की याचना ही क्यों दुहराई जा रही है?

फिर एक वर्ष की शर्त ही क्यों? किस लिए? पिछले वर्षों में भी कितने ही व्यक्तियों ने अपने जीवनदान मिशन के लिए दिए हैं और वे अपनी प्रतिभा का भली प्रकार निर्वाह कर रहे हैं। पूछने पर बताते ही हैं “कि जिस प्रकार जीवन दान, कन्यादान आदि को वापस नहीं लिया जाता, उसी प्रकार जीवन-दान को भी वापस लेकर प्रतिज्ञा तोड़ने की अपेक्षा और कुछ कर बैठना अच्छा। इसलिए जीवन यदि लोकमंगल के लिए समर्पित किया है तो इसी भूमि में प्राण त्यागेंगे। इसमें हेरा-फेरी करना न हमें शोभा देता है और न इसमें मिशन का गुरुदेव का गौरव है। हमारी तो प्रत्यक्ष बदनामी है ही, जो सुनेगा वह धिक्कारेगा। इसलिए निश्चय तो निश्चय ही है। इस छोटी-सी आयु में ऐसा कलंक सिर पर लादकर क्यों चलें जिसकी कालिख-कालिमा फिर कभी छूटे ही नहीं।”

“अब तक एक सौ से अधिक जीवनदानियों का समुदाय प्राण-पण से अपनी प्रतिज्ञा पर आरुढ़ है तो हमारे ही ऊपर क्यों ऐसी शर्त लगायी जा रही है कि एक ही वर्ष के लिए समय दिया जाय?” इसका मोटा उत्तर तो प्रश्नकर्त्ताओं को यही लिखाया जा रहा है कि यह दोनों पक्षों के लिये परीक्षा का समय है। आप लोग मिशन को देख लें, भली-भाँति परख लें, साथ ही हमें भी। साथ ही एक अवसर परखने का हमें भी दें कि आप इस “क्षुरस्य-धारा” तलवार की धार पर चल सकेंगे या नहीं? अपना चिन्तन, चरित्र और व्यवहार उत्कृष्टता की कसौटी पर खरा सिद्ध कर सकेंगे या नहीं? बीच में कोई पक्ष अनुत्तीर्ण होता है तो उसके लिए यह छूट रहनी चाहिये कि वापस जाने या भेजने का उपाय अपना लिया जाय। जीवनदान बहुत बड़ी बात है। यदि वह दूसरों के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत कर सकने की स्थिति में बना रह सकता हो तो ही उस अनुदान का गौरव है, अन्यथा मिथ्या वचन देने और उसे वापस लौटाने में किसी का भी गौरव नहीं है।

घटिया कदम ओछे लोग ही उठाते हैं। हममें से किसी पक्ष को भी अपनी गणना ओछे लोगों में नहीं करनी चाहिये। इसलिए परीक्षा-काल एक वर्ष की जाँच पड़ताल रखने में ही उत्तम है। बाद में फिर नये सिरे से विचार किया जा सकता है और नया कदम उठाया जा सकता है।

आमतौर से एक वर्ष की बात के सम्बन्ध में सन्देह उठाने वालों का यही उत्तर लिखाये जा रहे हैं। किन्तु इतने भर से किसी को सन्तोष नहीं होता। वे इसके अतिरिक्त और भी कई तरह की कल्पनाएं करते हैं। दिए हुये उत्तरों को पर्याप्त नहीं मानते। उसके पीछे कोई रहस्य खोजते हैं। मनुष्य का स्वभाव भी है कि हर गम्भीर प्रश्न पर कई प्रकार से सोचे। इसे अनुचित भी नहीं कहा जा सकता।

कितने ही पत्रों में इस संदर्भ में कितनी ही बातें पूछी गई हैं। उनमें से कुछ का उल्लेख भी यहाँ किया जा रहा है। कितनों ने ही पूछा है कि (1) आपकी आयु एक वर्ष ही शेष रह गई है क्या? जिसमें उतने ही समय में अपने घोषित संकल्पों को पूरा करना चाहते हैं? (2) एक वर्ष बाद हिमालय चले जाने और तपस्वियों की ऊँची बिरादरी में सम्मिलित होने का मन है क्या? (3) अगले वर्ष कोई भयावह दुर्घटनाएं तो घटित होने वाली नहीं हैं? (4) एक वर्ष बाद आपको प्रज्ञा अभियान दूसरों के जिम्मे छोड़कर कोई असाधारण उत्तरदायित्व वहन करने की भूमिका तो नहीं निभानी है? (5) कहीं माताजी का स्वास्थ्य तो नहीं गड़बड़ा रहा है? (6) जिनके मन में इतने दिनों से उद्भट उत्कण्ठाएं उठाई जाती रही हैं, उन्हें ऐसा तो नहीं समझा गया है कि यह समय चुका देने पर फिर उन्हें कभी ऐसा अवसर नहीं मिलेगा? (7) युग परिवर्तन के सम्बन्ध में कोई ऐसा घटनाक्रम तो घटित नहीं होने जा रहा जिसकी सुरक्षा के लिए उन्हें अपने पास बुला रहे हों? (8) किन्हीं को कोई ऐसा सौभाग्य तो प्रदान करने वाले नहीं हैं, जिन्हें निकटवर्ती लोगों को ही दिया जा सकता हो? भविष्य में ऊँचे उत्तरदायित्वों के साथ जुड़ा हुआ महामानवों जैसा श्रेय तो नहीं मिलने जा रहा है, जिसका रहस्य कुछ विशेष लोगों के कान में ही कहा जाना हो? (9) पात्रता जाँचकर अपनी विशिष्ट क्षमताओं का वितरण विभाजन तो नहीं कर रहे हैं?

ऐसे-ऐसे अनेकों प्रश्न हैं, जिनमें से कितनों का ही उल्लेख अप्रकाशित रहना ही उपयुक्त है। इस प्रकार के रहस्यमय प्रश्नों में से किसी का भी उत्तर “न” या “हाँ” में नहीं दिया जा सकता। कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें स्वीकार कर लिया जाता है। कुछ को अस्वीकार करने में भी हर्ज नहीं होता। पर कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनके सम्बन्ध में मौन धारण करना, कुछ न कहना ही उचित है। कई बातें ऐसी होती हैं, जिनके सम्बन्ध में गोपनीयता को रखना ही लगभग सत्य के समतुल्य नीतिकारों ने बतलाया है।

जिन की झड़ी इन दिनों लगी हुई है उनसे किसी महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन की आशा नहीं करनी चाहिए। उन्हें इतना ही पर्याप्त समझना चाहिए, जितना कि एक दूसरे की जाँच पड़ताल का हवाला देते हुये कहा गया है।

हमने अपने भूतकाल की घटनाओं का भी पत्रिका के अंकों में सीमित ही उल्लेख किया है। पूछने पर भी नपा तुला ही वर्णन किया है, जो नहीं प्रकट किया गया वह इसलिए सुरक्षित है कि उसे हमारा शरीर न रहने से पहले न जाना जाय। उपरान्त जो लोग चाहें अपने अनुभव प्रकट कर सकते हैं। यदि इन घटनाओं की चर्चा होती है तो इन्हें प्रत्यक्ष कहने पर सिद्ध पुरुषों की श्रेणी में अपने को प्रख्यात करने की महत्वाकाँक्षा आँकी जा सकती है।

शासन संचालकों को शपथ दिलाई जाती है, उनमें एक गोपनीयता की भी होती है। हमें भी ऐसा ही वचन अपने मार्गदर्शक को देना पड़ा है कि लोकसेवी ब्राह्मण के रूप में ही अपनी जानकारी सर्वसाधारण को दी जाय। जो अध्यात्म की गरिमा सिद्ध करने के लिए आवश्यक समझा जाय उतना ही प्रकट किया जाय। जो हमारी व्यक्तिगत साधना, तपश्चर्या, सिद्धि, जिम्मेदारी एवं भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं से सम्बन्धित है, उन्हें समय से पूर्व वर्णन न किया जाय।

युग परिवर्तन की अवधि में अनेकों घटनाएं घटित होंगी। अनेकों महत्वपूर्ण व्यक्तियों के वर्तमान रुख एवं कार्यक्रम में जमीन-आसमान जैसा अन्तर उत्पन्न होगा। ये बातें अभी से नहीं कही जा सकतीं। रहस्यमयी भविष्यवाणियाँ करने के लिए अपनी सिद्धियाँ प्रकट करने के लिए हमें मनाही की गई है, उस प्रतिज्ञा का निश्चय ही पालन किया जाएगा। इसलिए कोई सज्जन वे प्रश्न इस वर्ष के संदर्भ में न पूछें, जो भविष्य के सम्बन्ध में न कहने के लिए हम वचनबद्ध हैं, उन्हें नहीं ही कहेंगे।


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