एक सिद्ध पुरुष थे। उनके बारे में किंवदंती थी कि ताँबे से सोना बनाने की विद्या जानते हैं। अनेक लोग सीखने आते महात्मा कहते- बारह वर्ष साथ रहकर सेवा करनी पड़ेगी। इसके उपरान्त ही सिखाया जा सकेगा। शिष्य बनने वालों में से इतना धैर्य किसी में नहीं था। सीखकर जल्दी लौटने वाले सभी थे। इतनी प्रतीक्षा कौन करे? एक संकल्पवान शिष्य निकला। वह पूरे बारह वर्ष तक निष्ठापूर्वक रहा। न उतावली दर्शाई न किसी प्रकार की आशंका की। बारह वर्ष पूर्ण हुए। गुरु ने शिष्य को निकट बुलाया और वचनानुसार सोना बनाने की विद्या सिखाने का उपक्रम आरम्भ किया। शिष्य ने वह सीखने से इन्कार कर दिया और कहा- “आपके साथ रहकर मैं स्वयं ही सोना हो गया हूँ। आपके रास्ते पर चलूंगा। सोना इकट्ठा करके लालच और विलास के नरक में क्यों गिरूंगा?”
गुरु ने उसे सच्चा सत्यान्वेषी बताया व कहा ऐसे ही साधक सुपात्र कहाते व दैवी अनुदान अनायास ही पाते हैं।