आत्म-देव की उपासना

November 1972

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प्रतिमाओं में देखे जाने वाले भगवान बोलते नहीं, पर अन्तःकरण वाले भगवान जब दर्शन देते हैं तो बात करने के लिए भी व्याकुल दीखते हैं। यदि हमारे कान हों तो सुनें- वे एक ही बात कहते चले जायेंगे- “मेरे इस अनुपम उपहार-मनुष्य जीवन को इस तरह न बिताया जाना चाहिए- जैसे कि बिताया जा रहा है। ऐसे न गँवाना चाहिए-जैसे कि गँवाया जा रहा है। यह बड़े प्रयोजन के लिए ओछी रीति-नीति अपनाकर मेरे प्रयास अनुदान का उपहास न बनाया जाना चाहिए।”

जब और भी बारीकी से उनकी भाव भंगिमा और मुखाकृति को देखें तो प्रतीत होगा वे विचार विनिमय करना चाहते हैं और कहना चाहते हैं कि बताओ तो-इस जीवन सम्पदा का इससे अच्छा उपयोग क्या और कुछ नहीं हो सकता जैसा कि किया जा रहा है? वे उत्तर चाहते हैं और संभाषण को जारी रखना चाहते हैं।

अंतरंग में अवस्थित भगवान की झाँकी, दर्शन, संभाषण, परामर्श और पथ प्रदर्शन तक ही पर्याप्त नहीं है उसमें गाय बछड़े जैसा वात्सल्य भी विह्वल दीखता है। परमात्मा हमें अपना अमृत दुग्ध-अजस्र अनुदान के रूप में पिलाना चाहते हैं। पति और पत्नी की तरह भिन्नता को अभिन्नता में बदलना चाहते हैं। आत्मसात् कर लेने की उनकी उत्कण्ठा कितनी प्रबल दृष्टिगोचर होती है।

हम ईश्वर के बनें, उसके रहें, उसके लिए जियें। अपने को इच्छा और कामनाओं से खाली कर दें। उसकी इच्छा और प्रेरणा के आधार पर चलने के लिए आत्म-समर्पण करदें, तो परमेश्वर को अपने कण-कण में लिपटा हुआ, अनन्त आनन्द की वर्षा करता हुआ पायेंगे। ऐसा दर्शन कर सकें तो हम धन्य हो जायें।

-महर्षि अरविन्द


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