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November 1972

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प्रेम ऐसी तुच्छ वस्तु नहीं है कि धर्म को हटाकर उसके स्थान पर आप बैठे। प्रेम महान है, प्रेम उदार है। प्रेमियों को भी वह उदार और महान बनाता है। प्रेम का मुख्य अर्थ है ‘आत्मत्याग‘।

-जयशंकर प्रसाद

भगवद् भक्तों का भाव प्रत्यारोपण इसी केन्द्रबिन्दु पर होता है। कौन भक्त किस आकृति के इष्टदेव की कल्पना करता है इसका कोई अधिक महत्व नहीं। महत्व इस बात का है कि इष्टदेव को किस स्तर का गढ़ा गया। यदि भक्त ने मद्यप, माँसाहारी, पक्षपाती, खुशामदी, लोभी प्रमादी स्तर का इष्टदेव चुना होगा तो वहीं सारे दोष दुर्गुण लौटकर उपासना करने वाले पर गिरेंगे और उसे अभक्त से भी अधिक गये गुजरे स्तर का बना देंगे। अत्याचारी, आक्रमणकारी, दुरात्मा लोग अपने अवाँछनीय स्वार्थों की पूर्ति के लिये तान्त्रिक देवी देवताओं की वाम मार्गी पूजा करते, बलि चढ़ाते देखे जाते हैं। निश्चित रूप से ऐसे इष्टदेव उपासक को पतन के गर्त में धकेलने के ही माध्यम बनते हैं। कारण स्पष्ट है इष्टदेव सदा उपासक की मानसिक सन्तान भर होता है उसे जिस स्तर का गढ़ा गया है फल उसके भिन्न स्तर का हो ही नहीं सकता। यदि आत्मिक उत्कृष्टता अभीष्ट हो तो उपास्य-प्रेमास्पद की सत्ता आदर्शवादी सिद्धान्तों की आधारशिला पर खड़ी की गई होनी चाहिए। वस्तुतः उच्चतम मानवी स्तर ही उपासना में प्रयुक्त होने वाला भगवान है। प्रेमास्पद उसी को बनाया जा सकता है।

इसका अभ्यास व्यक्ति के रूप में भी किसी को प्रेमास्पद बनाकर भी किया जा सकता है, यह प्रयोग किया जा सकता है, पर यह प्रयोग आरम्भ करने से पूर्व हजार बार यह परख लेना चाहिए कि आदर्शों की कसौटी पर यह मनुष्य किस सीमा तक खरा उतरता है। इसके लिये उसके वचनों को नहीं अब तक के चरित्र को कसौटी मानना चाहिए। बिना बारीकी से किसी की चरित्रनिष्ठा को परखे-भावावेश में प्रेम करने लगना अपने आपको विपत्ति में फंसा लेने के बराबर है। दो प्रेमियों के बीच गुण, कर्म, स्वभाव एवं व्यक्तित्व का भी आदान-प्रदान होने लगता है। यदि प्रेमपात्र निकृष्ट स्तर है तो वह हेय प्रवृत्तियाँ अपने ऊपर भी लद पड़ेंगी।

प्रेम चाहे आदर्शों से किया जाये चाहे व्यक्तियों से उसमें कुछ पाने का नहीं, देने का ही भाव रहना चाहिए। भगवान के लिये अपनी उपलब्धियों का समर्पण उसके संकेतों पर अपने क्रिया-कलाप का निर्धारण जहाँ दृष्टिगोचर हो वहीं ईश्वर भक्ति का अस्तित्व देखा जा सकता है। जहाँ मनोकामनाओं की भरमार हो, भौतिक सुविधाओं के लिये ईश्वर को बाध्य किया जा रहा हो और न मिलने पर झुँझलाया जा रहा है, समझना चाहिए कि उपासना का- भक्ति का- क,ख,ग,घ भी अभी यहाँ आरम्भ नहीं हुआ। ढेरों पूजा पाठ करने वाला व्यक्ति भी अभक्त और आत्मिक प्रकाश-प्रेम से रहित हो सकता है। ऐसे ही तथाकथित भक्त, नामधारी आज सर्वत्र बिखरे पड़े हैं और अपनी भाव शून्यता के कारण भक्ति के सत्यपरिणामों से सर्वथा वंचित रह रहे हैं।

व्यक्तियों के बीच यदि प्रेम तत्व का विकास किया जाना हो तो उसमें लेने की नहीं- देने की प्रतिस्पर्धा रहनी चाहिए। इससे पूर्व प्रेम साधना के लिये पात्र का चयन करते हुए यह देख लेना चाहिए कि उस व्यक्तित्व में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का कितना पुट है। आत्मा को आनन्द से विभोर रखने वाला और ऊंचा उठाने वाला प्रेम तत्व ऐसे ही वातावरण में पनपता और पल्लवित होता है।


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