श्वेतकेतु ने बारह वर्ष तक गुरुकुल में अध्ययन किया। आचार्य ने खुशी-खुशी श्वेतकेतु को विदा किया। दीर्घकाल के ज्ञानार्जन ने विनम्रता के स्थान पर अहंभाव को जन्म दिया। घर आने पर पिता ने पूछा - ‘वत्स! क्या तुमने आचार्य के सान्निध्य में वह विद्या प्राप्त की है जिससे अज्ञात का ज्ञान हो सके और अकल्पित के प्रति कल्पना दौड़ सके?’
श्वेतकेतु पिता का मुँह देखता रह गया, वह नहीं समझ पाया कि किस श्रेष्ठ ज्ञान की ओर संकेत किया जा रहा है। उसने सोचा हो सकता है मेरे आचार्य उस ज्ञान से अपरिचित हों और इसीलिए ब्रह्मचारियों को उसका उपदेश न दिया गया हो।
पिता ने अपने पुत्र को चकित देखकर कहा-’एक रजत खण्ड के ज्ञान से रजत का ज्ञान हो जाता है क्योंकि रजत के बने विभिन्न आभूषणों को भले ही किसी दूसरे नामों से पुकारा जाये पर उनमें यथार्थ रूप से तो रजत ही है, इसी प्रकार विभिन्न प्राणियों में भी एक शाश्वत सत्य के दर्शन होते हैं पर देखने के लिए आँखें चाहिए, यह चर्म चक्षु नहीं वरन् ‘ज्ञान चक्षु, विवेक चक्षु।’
बात को और सरल बनाने के लिए उन्होंने जल से भरा एक पात्र मँगाया उसमें नमक घोल दिया। पिता ने कहा- ‘बेटा! इसमें घुले नमक को बाहर निकालो।’ भला पानी में घुला नमक कहीं निकल सकता था? और न देखा ही जा सकता था?
अब उन्होंने उस जल पात्र को अपने पुत्र के ओठों से लगाते हुए कहा- ‘इसका एक घूँट पीकर देखो।
उसने एक घूँट भरा और कुल्ला कर दिया बिल्कुल नमकीन था। पिता ने फिर उस पात्र को घुमाकर दूसरी ओर से एक घूँट पीने के लिए कहा वह भी नमकीन था। नमक पड़े पानी का स्वाद नमकीन तो होगा ही भले ही एक ओर से पान किया जाये अथवा दूसरी ओर से।
पिता ने कहा - ‘अच्छा इस नमक की खोज कर सकते हो।’ श्वेतकेतु ने कहा- ‘पिताजी! मैं नमक नहीं देख रहा हूँ बल्कि मुझे इस पात्र में जल दिखाई दे रहा है।’
‘आयुष्मान्, ईश्वर भी संसार में समस्त प्राणियों में व्याप्त है पर उसके दर्शन नहीं होते। हाँ उसके अस्तित्व का अनुभव सभी को होता है। ईश्वर के प्रति विश्वास उत्पन्न करने वाली इस आत्म विद्या के अभाव में सम्पूर्ण ज्ञान अधूरा रहता है।